अनिल घिल्डियाल
देश के अनेक महत्वपूर्ण लोगों को निगल लेने वाले इस कोरोना काल ने संगीत के प्रकांड विद्वान, संगीत साधक, सितारवादक पं. हरिकृष्ण साह जी को भी हमसे छीन लिया है। पीपलकोटी (चमोली गढ़वाल) में जन्मे हरिकृष्ण साह जी उत्तराखण्ड के नामचीन संगीतज्ञों में एक थे। पैतृक व्यवसाय तो व्यापार था, पर अपनी शिक्षा के बाद उन्होंने संगीत को ही अपना क्षेत्र चुना और बद्रीनाथ की ओर रुख किया।
संयोग से उन्हीं दिनों दक्षिण भारत के नामचीन संगीतकार अद्वैत गुरु डाॅ. डी. आर. पर्वताकर जी का बद्रीनाथ आगमन हुुआ। संगीत जगत मेें पर्वताकार जी को वीणा महाराज के नाम से जाना जाता है। उन्होंने ही वीणा जैसे साज को विचित्र वीणा में तब्दील किया। वीणा महाराज की लम्बी-लम्बी जटाएं थीं और वस्त्र के नाम पर वे केवल लंगोटी धारण करते थे। हरिकृष्ण साह जी ने बद्रीनाथ में इन्हीं वीणा महराज से संगीत की शिक्षा प्राप्त की। सितार जैसे कठिन साज पर अभ्यास और वीणा महराज जैसा सख्त अनुशासन पसन्द गुरु। सुबह 4 बजे उठना, स्नान करना और रियाज में लग जाना……. यह थी हरिकृष्ण साह जी की उस वक्त की जीवनचर्या, जिसे उन्होंने जीवन भर अपनाये रखा। प्रसिद्ध भजन गायक हरिओम शरण जी ने भी साह जी के साथ ही बद्रीनाथ में संगीत की शिक्षा ग्रहण की।
गीत और नाट्य प्रभाग में कार्य करते हुए मैं गुरुजी के सान्निध्य में रहा, ये मेरा सौभाग्य है। गुरुजी का व्यक्तित्व आकर्षक था और उनमें किसी को भी अपनी ओर आकर्षित करने की अद्भुत क्षमता थी। जिस वर्ष मैने प्रभाग में प्रवेश किया, उसी वर्ष मैथिलीशरण गुप्त की नाटिका ‘पंचवटी’ बनी। इस नाटक में मैंने लक्ष्मण की भूमिका की थी। बैक ग्राउन्ड म्यूजिक तो गुरु जी का था ही, साथ में नृत्य की तैयारी करवाना, कलाकारोें को प्रशिक्षण देना भी उनकी कार्य पद्धति में ही आता था। नृत्य हो, नाटक हो या कोई अन्य कार्यंक्रम, आपकी राय के बिना प्रभाग में कुछ भी करना सम्भव नहीं था।
विभागीय दौरों में मुझे अनेक बार गुरु जी के साथ रहने का अवसर मिला। साफ-सुथरा रहन-सहन, और नित्य योग-ध्यान का उनका नियम था। एक डिब्बे में रखे हुए ठाकुर जी उनके साथ ही रहते, जिनकी धूप बत्ती करते हुए वे नित्य पूजा करते। इस संगत ने मुझे भी व्यसनों से दूर रखा। प्रवास में या प्रभाग में जब भी उनके साथ तबले पर मेरी संगत होती तो तालों के साथ लय खींचना, लय बांधना आदि गुरु जी से सीखने-समझने को मिलता। विलम्बित से झाले तक कैसे जाना है, थक गये तो कैसे बजाना है, गुरुजी सब समझाते।
सितार सीखने की मेरी जिद को वे लम्बे समय तक टालते रहे। कई जगह से सिफारिश करवाई तब जाकर वे माने। उनसे कई राग सीखे। जब हाथ थोड़ा अच्छा हो गया, तब यह कहते हुए गुरु जी खूब हंसे कि ‘‘जा बेेटा खूब कमा खा।’’
कुछ समय पहले जब उनका नैनीताल आगमन हुआ तो उन्होंने मुझे सितार ठीक करने को कहा था। वे मेरे काम की बहुत तारीफ करते थे और अक्सर कहा करते थे कि तुम हमारी शान हो। बीच में एक दिन उनका फोन भी आया था कि पांव की अंगुलिया कट गईं हैं। उन दिनों वे अपने लड़के गोपाल के पास रह रहे थे।
सात्विक, सरल, तपस्वी सा जीवन था उनका। कुर्ता-पायजामा जीवन भर उनका परिधान रहा। वे जब भी मिलते, हंसकर मिलते और 20 मई को जब ये दुनिया छोड़ कर गये तो ऐसे कि एकदम चुपचाप। उनका जाना उत्तराखंड के संगीत क्षे़त्र की अपूरणीय क्षति है।
उनके बारे में जितना लिखा जाए वह कम है। एक विद्वान संगीतज्ञ, बेहतरीन कलाकार, एक तपस्वी और सबसे ऊपर एक बेहतरीन गुरु। ऐसे गुरु के चरणों में शत-शत नमन।