सांकरी हर की दून, केदारकांठा आदि की ट्रैकिंग करने वालों से गुलजार था। यह इस दूरस्थ क्षेत्र की तरक्की का सुखद एहसास दिला रहा था। यह तरक्की यहाँ के स्थानीय लोगों ने अपनी कड़ी मेहनत से पिछले पाँच-दस सालों में हासिल की थी। जखोल पहुँचते-पहुँचते रात हो चुकी थी। आगे की सड़क का हाल देख कर डर लग रहा था। तनु ने अपना मोबाइल खिड़की से बाहर निकाल कर चलती गाड़ी से एक वीडियो बनाया। यह साफ समझ आ रहा था कि एक ओर देहरादून के चमचमाते राजमार्ग हैं, तो इस दूरस्थ क्षेत्र की तकदीर में ये टूटीफूटी, बदहाल सड़कें।
9 अक्टूबर को सुबह 4 बजे फोन की घंटी से नींद खुली। हल्द्वानी से तनुजा जोशी देहरादून रेलवे स्टेशन में पहँुच चुकी थी। उन्हें रिसीव कर घर लौटा। गर्म कपड़े, स्लीपिंग बैग और ड्राई फूड के सीमित सामान को छाँट कर मेरी पत्नी किरन ने मीठी सिवइयाँ खिला कर हमें विदा किया। समय के बेहद पाबंद ‘पलायन एक चिंतन के संयोजक’ ठाकुर रतन असवाल की डाँट के डर से तय समय से आधा घंटे पहले हम दोनों द्रोण होटल पहुँचे, जहाँ सभी यात्रियों को एकत्र होना था। थोड़ी देर बाद ओमान में कार्यरत कोटद्वार निवासी अजय कुकरेती पहुँचे। उनके साजो-सामान को देख कर उन्हें अपने सहयात्री के रूप में पहचानने में देर नहीं लगी।
फिर दिल्ली से दलबीर रावत, पौड़ी से अरविंद धस्माना, पूर्व सैनिक एवं कर्मठ अध्यापक मुकेश बहुगुणा उर्फ मिर्ची बाबा, रतन असवाल, वरिष्ठ पत्रकार गणेश काला, इंजीनियर सौरभ असवाल, असिस्टेंट कमिश्नर जीएसटी मनमोहन असवाल, मानव शास्त्री नेत्रपाल यादव एक के बाद एक पहँुचे। हौसला अफजाई हेतु ‘दून डिस्कवर’ मासिक पत्रिका के संपादक दिनेश कंडवाल, ‘समय साक्ष्य प्रकाशन’ के प्रवीण भट्ट, रविकांत उनियाल उर्फ छोटू भाई ने भी द्रोण होटल पहँुच कर 8 बजे प्रातः हमारी इस यात्रा को हरी झंडी दिखाई।
हंसी-मजाक और राजनीतिक चर्चा में कांग्रेस की तिमले की चटनी से लेकर भाजपा के ठप पड़े डबल इंजन की रफ्तार पर तथा पहाड़ और उसके गंभीर विषयों पर खट्टी-मीठी गपशप के साथ हम मसूरी और वहाँ से यमुना पुल होते हुए नैनबाग से पहले सुमन क्यारी पहुँचे। यहाँ पुरोला के एस.डी.एम. शैलेन्द्र नेगी जी के आग्रह पर एक-एक प्याली चाय के साथ ऊँचे-नीचे डाँडों के सफर की थकान को दुरुस्त किया। नेगी इस यात्रा को इस क्षेत्र के पर्यटन के विकास के लिये मील का पत्थर मान रहे थे और अपनी शुभकामनायें हमें देने के लिये सुबह ही देहरादून से पुरोला के लिये चले थे। नेगी साहब की गाड़ी के पीछे-पीछे हम नैनबाग से डामटा तथा नौगाँव होते हुए लगभग 2 बजे पुरोला पहँुचे।
सहयात्री मनमोहन असवाल जी के कुमोला रोड स्थित घर पर उनके आग्रह पर रामा-सिरांई का लाल भात और राजमा के स्वादिष्ट लंच से सभी का तन-मन तृप्त हो गया। उनके स्नेहशील माता-पिता से विदा लेकर हम मोरी की तरफ बढ़े। रास्ते से एक स्थानीय नौजवान कृष्णा, जो आज के गंतव्य फिताड़ी गाँव का रहने वाला था, भी हमारे साथ हो लिया। उसकी वाक्पटुता और राजनीतिक व्यंग्यों से वातावरण हंसी के ठहाकों से भर गया। मोरी से हमने सफर के लिये जरूरी रसद सामग्री गाड़ी में रखी। यहाँ से कांग्रेस के युवा स्थानीय ब्लाॅक अध्यक्ष राजपाल रावत, प्रहलाद रावत और उनके साथी अपने निजी वाहन से हमारे सफर में जुड़ गये। मोरी से नैटवाड़ होते हुए टौंस और वहाँ से पक्की सड़क छोड़ हम सुपीन नदी के किनारे-किनारे बदहाल सड़क से होते हुए सांकरी पंहुचे।
सांकरी हर की दून, केदारकांठा आदि की ट्रैकिंग करने वालों से गुलजार था। यह इस दूरस्थ क्षेत्र की तरक्की का सुखद एहसास दिला रहा था। यह तरक्की यहाँ के स्थानीय लोगों ने अपनी कड़ी मेहनत से पिछले पाँच-दस सालों में हासिल की थी। यहाँ से जरूरत के टैंट, स्लीपिंग बैग, छाता-रैनकोट, मीठी-चटपटी टाफी, ट्रैकिंग स्टिक, तंबाकू-पानी आदि सामान पैक कर गाइड को साथ लेकर जखोल पहुँचे।
जखोल पहुँचते-पहुँचते रात हो चुकी थी। आगे की सड़क का हाल देख कर डर लग रहा था। तनु ने अपना मोबाइल खिड़की से बाहर निकाल कर चलती गाड़ी से एक वीडियो बनाया। यह साफ समझ आ रहा था कि एक ओर देहरादून के चमचमाते राजमार्ग हैं, तो इस दूरस्थ क्षेत्र की तकदीर में ये टूटीफूटी, बदहाल सड़कें। थोड़ी देर बाद सुपिन नदी के तट पर गाड़ी रुकी। सामान उतारा गया और पहले से मौजूद खच्चरों पर लादा गया। स्थानीय गाँववासियों के दिशा-निर्देश पर, टाॅर्च की रोशनी के सहारे हम ऊँची पगडंडियों पर आगे बढ़े। घुप्प अंधेरे में फिसलने और फिर खड़े होकर चलने का सिलसिला शुरू हुआ। पहाड़ पर पैदल चलने का पिछला अनुभव न होने के बावजूद तनु हिम्मत और हौसले से चलती रही। लगभग दो-ढाई घंटे की थका देने वाली यात्रा के बाद हम फिताड़ी गाँव से सटे रैक्चा गाँव के पूर्व प्रधान प्रह्लाद रावत, जो हमारे आज के मेजबान थे, के घर पहुँचे। छात्र राजनीति में मेरे सहयोगी रहे जयमोहन राणा और ग्रामीणों ने गर्मजोशी के साथ हमारा स्वागत किया। चाय की चुस्की और ड्राईफूड के बाद कांस की पारंपरिक थालियों में परसे गये शाकाहारी और मांसाहारी भोजन ने सारी थकान मिटा दी। अंधेरे के चलते आसपास का परिदृश्य देख पाना सम्भव नहीं था। हम जल्दी ही बेहद नर्म बिस्तरों पर सो गये।
चिड़ियों की पहली चहचहाहट के साथ नींद खुली। पिछले दिन की थकान और गर्म बिस्तर के मोह के कारण हम घर की चहल-पहल को नजर अंदाज कर नींद की हल्की-फुल्की झपकियों का आनंद लेते रहे। सुबह की चाय से ही यह आलस्य टूटा। मेरे सहयात्री भवन के अंदर की काष्ठ कला को देखकर अभिभूत थे। हालाँकि रौंतेली रवाँई के इस खूबसूरत परिवेश में पला-बढ़ा होने के कारण मेरे लिये यह सब नया नहीं था। इस घर में शौचालय की पक्की व्यवस्था थी, जिसके लिये मैंने मन ही मन प्रधानमंत्री जी के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित की।
बाहर विशाल पहाड़ और उस पर घने जंगल को चीरती, टेड़ी-मेड़ी, नीचे गहरी खाई में बहती सुपिन नदी की तरफ जाती पतली सी पगडंडी दिखाई दे रही थी। इस दृश्य से लगा कि पिछली रात हमने अंधेरे में भी काफी लंबा सफर तय किया। हमारे साथी बेजोड़ काष्ठ कला के भव्य मकानों और बाहर फैली प्राकृतिक छटा के साथ पारम्परिक वेशभूषा पहने ग्रामीणों की फोटो लेने में मशगूल थे।
रसोई में परिवार की महिलायें जोर-शोर से हमारे लिये नाश्ता तथा लंच पैक तैयार कर रही थीं। प्रधान जी आगे के सफर के लिये खच्चरों और पोर्टरों की व्यवस्था में लगे थे। आँगन में इस इलाके के लगभग हर घर में होने वाले हमाम, जिसमें लकड़ी जला कर पानी गर्म किया जाता है, में पानी गर्म था। हम सबने अपनी देह को आगे के सफर के लिये तरोताजा किया।
सुबह की गुनगुनी धूप में छज्जे पर बैठ कर जखिया के तुड़के में बनी स्वादिष्ट मैगी के साथ गर्मागर्म चाय का आनन्द लिया। विदा करते हुए प्रह्लाद भाई ने हम सबको हिमांचली टोपी पहना कर सम्मान से नवाजा। दल की एक मात्र महिला सदस्य तनु जोशी को उनकी अध्यापिका पत्नी ने शाल भेंट कर सम्मानित किया। आतिथ्य के इन भावुक क्षणों से हम अभिभूत थे। आगे जाने से पूर्व रैकचा से सटे फिताड़ी गाँव के ग्राम देवता सोमेश्वर महाराज के मंदिर में गये। यहां के हर मंदिर की छत पर लकड़ी से बना मुनाल और बकरी इस हिमालयी समाज की विशिष्टता है। लकड़ी से बने मुख्य द्वार पर हर दौर के सिक्के और नाग तथा हाथी-घोड़े के भित्ति चित्र खुदे होते हैं। महासू मंदिर के उलट यहाँ के अधिकांश मंदिर तीन गर्भ गृहों की जगह एक ही गर्भ गृह वाले होते हैं।
लंबे समय से ठप्प पड़ी सड़क से कासला गाँव के लिये चले। प्रधान प्रह्लाद रावत, मेरे कालेज के साथी जयमोहन राणा और रोजी राणा, राजपाल रावत, प्रह्लाद पंवार, दिनेश सिंह और जुनैल सिंह आदि साथी भी यात्रा में जुड़ गये। चार खच्चरों पर सामान लाद कर गाईड सुरेन्द्र काफिले में था ही। लगभग दो-ढाई किमी. की सीधी-सपाट सड़क के इर्द-गिर्द लाल केदार-मारछा की आकर्षक खेती पसरी हुई थी। पीठ पर घास का बोझा लादी महिलाएँ साबित कर रही थीं कि इस पर्वतीय राज्य की ग्रामीण महिलाओं के हालात जस के तस बने हुए हैं।
कासला गाँव में हमने मंदिर प्रांगण में बच्चों को पढ़ा रही आंगनवाड़ी कार्यकत्र्री और ग्रामीणों से स्थानीय समस्याओं पर बातचीत की। हमारे साथ स्थानीय एस.डी.एम. की उपस्थिति की पूर्व खबर और सर-बडियार की हमारी यात्रा के पुराने किस्सों के कारण यहाँ के विद्यालय चाक चैबंद दिखाये दे रहे थे।
कासला से राला गाँव की पगडंडी पर चढ़ते हुए नदी के ठीक उस पार पहाड़ी के ढालदार मैदान पर एक बहुत बड़ा गाँव लिवाड़ी दिखाई दिया। यह इस पंचगाई पट्टी का आखिरी गाँव था। गाँव के लिये एक ऊँची चट्टान पर सड़क काटती हुई एक जेसीबी मशीन भी नजर आयी। इस जे.सी.बी. मशीन को देख कर ऐसा महसूस हुआ मानो 15 अगस्त 1947 को दिल्ली से निकला ‘विकास’ 70 साल बाद अब लिवाड़ी पहुँचने वाला हो। यह हमारी सरकारों की कछुआ चाल का जीता-जागता उदाहरण था। इस गाँव में मेरा दोस्त नरेन्द्र परमार अभी हाल में ही शिक्षक के रूप में तैनात हुआ है। गाँव की जिस बदहाल संचार व्यवस्था का जिक्र उसने कुछ दिन पहले मुझ से किया था, उसे अब मैं भली-भांति समझ पा रहा था।
लगभग 2 किमी. तक पशुओं के सूखे गोबर से भरी और उस पर मंडराते कीट-पतंगों से भरी पगडंडी पार कर हम जब राला गाँव पहँुचे। पानी की एक पाइप लाईन से बहते शीतल जल से हमने अपनी तीस बुझाई। गाँव के बीच से गुजरते हुए हम गाँव वालों की निगाहों के सवालों से रूबरू हुए, मानो वे हमारा गंतव्य पूछ रहे हों।
राला गाँव के स्कूल में बच्चों ने बेहद अनुशासन पूर्वक ‘गुड मार्निग सर’ के सामूहिक अभिवादन से स्वागत किया। पीछे छूटा कोई साथी जब आता तो बच्चे ऐसे ही बार-बार खड़े होकर उसका अभिवादन करते। स्कूल का भवन सर-बडियार की अपेक्षा अच्छी हालात में था। बगोरी-हर्सिल के एक नौजवान अध्यापक भी तन्मयता से बच्चों को पढ़ा रहे थे। स्कूल की भोजन माता आगुंतकों के लिये कुर्सी ला रही थी। आंगन साफ सुथरा था और आसपास तरतीब से कटी झाड़ियाँ बता रही थीं कि ये सिर्फ हमें दिखाने के लिये नहीं किया गया था, अपितु स्कूल प्रबंधन वास्तव में बेहतर अध्यापकों के हाथ में था।
बाकी लोगों को छोड़ कर कमजोर चाल वाले हम तीन अजय कुकरेती, तनु जोशी और मैं चाय का मोह त्याग कर आगे निकल आये, ताकि आगे की खड़ी चढ़ाई पार करने में पिछड़ न जायें। हम यात्रियों में मनमोहन असवाल, रतन भाई, सौरभ और गणेश काला की रफ्तार सबसे तेज थी। वे सबसे देर में निकलते और सबसे पहले पहुँच जाते। जबकि मुकेश बहुगुणा, दलबीर रावत, पिंटू धस्माना और नेत्रपाल यादव संतुलित चाल से चल रहे थे। खट्टी-मीठी टाफी को चूसते हुए हमने जैसे ही उस ऊंचे रास्ते को पार किया तो सामने एक और कठिन चढ़ाई हमारे सामने थी। मखमली घास पर सुस्ताते हुए हमने थकान मिटायी और बाकी साथियों का इंतजार करने लगे। धीरे-धीरे, एक के बाद एक सभी साथी और खच्चर वाले पहँुच गये।
थोड़ा सुस्ताने और तंबाकू-पानी के बाद हम एक बार फिर ऊँची पहाड़ियों के इस खुशनुमा सफर पर बढे़। हमें समय रहते आज के पड़ाव देवबासा तक पहँुचना था। हालाँकि गाँव वालों का मानना था कि हम किसी भी सूरत में देवबासा नहीं पहँुच पायेंगे। फिर भी हिम्मत रखते हुए हम चल पड़े। तीसरा पहर हो चुका था, भूख से आँतें कुलबुलाने लगीं, मगर डाँट खाने के डर से मैं रतन भाई से कुछ कहने की हिम्मत नहीं कर सका।
अब तक सबसे आगे चलने का मोर्चा मैंने संभाला था, लेकिन जल्दी ही स्थानीय सहयात्री और मनमोहन असवाल हमें पीछे छोड़ते हुऐ आगे निकल गये। एक और खड़ी चढाई पार कर असवाल जी ने सबको भोजन की घोषणा की तो मेरी जान में जान आयी। प्रधान प्रह्लाद रावत ने लंच पैक में चार पूरियाँ और मिक्स सब्जी रखवायी थीं, जिसे मैंने एक विदेशी सैलानी की भांति एक साथ बरगर की तरह खाना शुरू किया। खच्चर वालों के साथ मिल-बाँट कर भोजन करने के बाद हमने बोतल में भरे ठंडे पानी से प्यास बुझाई।
लगभग चार बजे हम आगे बढ़े तो बुग्याल और पेड़ों का खूबसूरत साझा जंगल देखने को मिला। अब थकान का असर दिखने लगा था और हम लोग ढीले पड़ने लगे थे। वस्तुस्थिति को भाँपते हुए ठाकुर रतन असवाल ने इस ‘सुराल’ के जंगल में ही एक जगह पानी के नजदीक रात्रि विश्राम करने का फैसला लिया।
खच्चरों से सामान उतारा गया और उपयुक्त जगह पर फटाफट टेंट खड़े किये गये। खच्चर वाला खच्चर की पीठ से सामान उतारने के बाद तो बेहद आत्मीयता से खच्चर की पीठ सहलाने लगा। पशु और पशु स्वामी के बीच की यह आत्मीयता मुझे अंदर तक प्रभावित कर गयी। खच्चर वाले से जान-पहचान बढ़ी तो पता चला वह फिताड़ी गाँव का किर्तम सिंह है, जिसे मैंने प्यार से ‘मामटी’ बोलना शुरू किया, जो गढ़वाल के ‘भैजी’ और कुमाऊँ के ‘दाज्यू’ के समान आत्मीयता भरा संबोधन है। किर्तम मामटी भराड़सर के देवता का अनन्य भक्त था, जिसके चलते उसे खुद ही भोजन बनाने की बंदिश थी। जब उसका खाना बनता तो हमें उसके चूल्हे को छूने तक की इजाजत नहीं थी।
मुकेश बहुगुणा के निजी टेंट को महिला आरक्षण के तहत अलग से तनु को समर्पित कर हम एक टैंट में तीन लोग काबिज हो गये। टेंट से उचित दूरी पर जंगल से लकड़ी इकठ्ठा कर भट्टा जलाया गया। खिचड़ी के साथ फिताडी से जयमोहन द्वारा लायी गयी बकरे की एक रान को छोटे-छोटे टुकड़ों में भून कर सिग्नेचर की वाइन के साथ परोसा गया। शरीफ और सज्जन शाकाहारी प्राणी तनु, अजय कुकरेती और मैं खिचड़ी खा कर ही संतोषपूर्वक सो गये।
बगल के टेंट में काबिज मुकेश बहुगुणा, अरविंद धस्माना और दलबीर रावत की बातचीत की तेज आवाजों से नींद टूटी। बदन का सारा दर्द लंबी नींद से गायब हो चुका था। पाला जमने से बर्फ की एक पतली चादर टेंट सहित पूरे जंगल की जमीन पर फैल रखी थी। टाॅयलेट पेपर लेकर पर एक पेड़ की आड़ में निवृत्त हो लिया।
इधर खिचड़ी का नाश्ता तैयार हो रहा था, उधर ठाकुर असवाल जी का फरमान आया कि ऊपर देवबासा बुग्याल में सिर्फ घास के मैदान होने की वजह से दो खच्चरों पर भोजन पकाने के लिये सूखी लकड़ी जायेगी। अतः अपना-अपना स्लीपिंग बैग स्वयं उठायें। मैंने अपना स्लीपिंग बैग थोड़ा सुविधाजनक बनाया, घर से साथ लाये भुने हुए चनों की एक खेप और खट्टी-मीठी टाफियों को जेबों में ठूँसा और आगे की चढ़ाई शुरू कर दी।
खड़ी चढ़ाई ने दम फुला दिया तो चाल को संतुलित करने के लिये यह चटपटी टाॅफी बहुत काम आयी। किसी तरह ऊपर दिख रही चोटी पर पहुँचो तो फिर दूसरी चढ़ाई नजर आ जाती। फिर थोड़ा रुकते-सुस्ताते और को ऊँचे स्वर में इसी परिवेश के स्थानीय गीतों के दो मीठे बोल, ‘‘रूपिण-सुपिण नदी, बौहदी आपड़े धारे, घुमी आंऊदी डांडी कांठियों, बौहदी आपड़े धारे,’’ गाते हुऐ फिर आगे बढ़ जाते। जेबों में ठुँसे चनों की जुगाली मुँह जरूर सुखा रही थी, मगर भूख का एहसास रोके रही थी।
अन्ततः हम ट्री-लाइन की सीमा पार कर ढालदार बुग्यालों की छोटी-छोटी पहाड़ियों की धार पर ऊँची-नीची खूबसूरत पथरीली पगडंडियों पर आ गये। हमारी दाहिनी तरफ हिमालय की तलहटी पर सुपिण नदी के किनारे तक का लिवाड़ी, राला, कासला, रैक्चा गाँव तक का पीछे छूट चुक खूबसूरत रास्ता था तो हमारी बायीं तरफ रूपिण नदी के तट पर उत्तराखंड और हिमांचल सीमाओं पर बसे भीतरी, मसरी, डोडरा-कंवार के गाँवों की घाटी और उसके ऊपर चांगशील बुग्याल का विहंगम दृश्य। ग्रामीणों की भेड़-बकरियाँ, घोड़े-खच्चर इस मखमली घास में गाहे-बगाहे चरते हुए नजर आ जाते। पानी के अधभरे और सूखे ताल काफी समय से बरसात न होने की सूचना दे रहे थे।
इस शांत और धीमे सफर में लगभग दो घंटे चलने के बाद 10 बजे तक हम देवबासा पहुँच गये। पहले से ही कुछ सैलानियों ने यहाँ अपना तंबू गाड़े हुए थे। पता चला कि ये वुडस्टाॅक स्कूल मंसूरी के छात्र-छात्राओं का ग्रुप है जो पिछली रात ही अपने विदेशी अध्यापकों के साथ भराड़सर ताल की यात्रा में दूसरी तरफ रूपिण नदी घाटी से यहाँ पहँुच है। जिनमें से कुछ भराड़सर ताल के लिये सुबह ही निकल चुके थे। इनके कुछ अन्य साथी अलग-अलग ग्रुप बना कर सांकरी से हर की दून और केदारकांठा की तरफ भी गये हैं।
आज चलने के लिहाज से तनु ने बेहतरीन किया और स्थानीय साथियों और रतन असवाल, अरविंद धस्माना, मनमोहन असवाल, सौरभ असवाल, गणेश काला के साथ पहले पायदान पर रही। थोड़ा आराम के उपरांत आगे के कठिन रास्ते के मद्देनजर तनु को रुकने की हिदायत देते और अपना सारा सामान देवबासा में छोड़ सिर्फ रेनकोट और कैमरा लेकर हम लोग फटाफट भराड़सर के लिये चल पड़े। आगे कितना चलना है, इसका सही अंदाजा किसी को भी नहीं था। हमारे स्थानीय साथी जिसे एक किमी. बताते वह असल में तीन किमी. निकलता था।
लगभग एक किमी. की विकट खड़ी चढ़ाई चढ़ने पर ही मेरी साँस बुरी तरह फूलने लगी। ठाकुर असवाल जी ने सौरभ से पूछा कि क्या वह अपने बैग में आॅक्सीजन सिलेंडर लाया तो उसने असहमति में सिर हिला दिया। मैं मन ही मन वापस लौटने का फैसला करने के बाद भी कुछ दूर तक और चला रहा और अंततः अजय कुकरेती और मुकेश बहुगुणा को जेब में रखा बिस्कुट का पैकेट देते हुए वापस बेस कैंप देवबासा लौट आया।
देवबासा में नेत्रपाल यादव और तनु जोशी वुडस्टाॅक स्कूल के किचन टैंट में उनके स्थानीय किचन स्टाफ के साथ बैठकर अपने टैंट लगने का इंतजार कर रहे थे। मेरे अकेले लौट आने पर वे चैंके। नेत्रपाल ने इशारे से मुझे भराड़सर की चोटी दिखाई, जो बादलों से घिरी हुई थी। उन्होंने हिमालय पर अपनी समझ और अनुभवों को साझा करते हुए कहा कि वहाँ जाने के लिये मौसम अनुकूल नहीं है, इसलिए वापस लौटने में ही समझदारी थी।
खैर, वुडस्टाॅक स्कूल के इस कैंप के किचन में हमें अदरक और काली मिर्च की बेहद शानदार दूध वाली चाय नसीब हुई और थोड़ी देर के बाद बेहतरीन मटर-पुलाव भी परोसा गया। इस सम्मानजनक मेहमाननवाजी के बाद हम अपने टैंटों में शिफ्ट हो गये। टैंट ढलान वाली जमीन पर लगे थे, अतः थोड़ा असहज महसूस हो रहा था। थोड़ा आराम के बाद इस खूबसूरत प्राकृतिक छटा में हम एक दूसरे की फोटो खिंचने में मशगूल हो गये। फिर चूल्हा जला कर शाम के खाने की तैयारी में अपने गाइड सुरेन्द्र, पोटर जुनैल सिंह और खच्चर वाले किर्तम मामटी के साथ गप्पें मारने लगे। किर्तम मामटी ने अपनी पिछली यात्राओं के अनेक किस्से सुनाये। एक बार तो वह हर्षिल से बकरियों के साथ चीनी सेना के डेरे तक चला गया था। चीनी सैनिकों ने उसे खाना खिलाया और ससम्मान वापस भेज दिया। तब मुझे लगा कि हिमालय का उसका अनुभव कितना विशद है। काश, वह ये सब लिख पाता!
शाम ढलने के बाद रतन भाई और बाकी लोग लौटे तो पता चला कि ओलावृष्टि तथा गहरे कोहरे के कारण वे रास्ता भटक गये और भराड़सर के बेहद नजदीक होने के बावजूद वापस लौट आये। लेकिन स्थानीय साथियों के साथ मनमोहन असवाल और अरविंद धस्माना भराड़सर तक पहँुच गये थे। उन्हें लौटने में अभी समय लगना था। अजय कुकरेती ने बताया कि वे सबसे पीछे छूट कर रास्ता भटक गये थे, एक अंग्रेज, शायद वुडस्टाॅक स्कूल के टीचर रहे हों, ने उन्हें वापस सही रास्ते तक पहुँचाया। उन्होंने अजय को यह राय भी दी कि सुबह 6 बजे तक भराड़सर के लिये निकलने का सबसे उपयुक्त वक्त है, तभी समय रहते वापस बेसकैंप देवबासा पहुँचा जा सकता है।
थोड़ी देर बाद शोरगुल के साथ हमारे बाकी साथी प्रह्लाद रावत, मनमोहन असवाल, अरविंद धस्माना, राजपाल रावत, जयमोहन और रोजी राणा भराड़सर ताल से लौट आये। वे भराड़सर देवता की पूजा कर वहाँ से झील का जल और प्रसाद भी लाये थे। ‘पलायन एक चिंतन’ के बैनर के साथ वे वहाँ के खूबसूरत फोटो भी खींच कर लाये थे। उनके हाथों में ब्रह्मकमल और भेड़गद्दा के दुर्लभ फूल भी थे। इस पूरी यात्रा से यह अहसास हुआ कि हिमालय के अपने नियम-कानून हंै। यहाँ कोई भी जब चाहे, मुँह उठा कर नहीं जा सकता। हिमालय ही यहाँ आने का मौसम और समय तय करता है और एक निश्चित अवधि के बाद आपको वापस भी लौटना होता है।
रात के खाने के लिये दाल-भात था। खाकर हम लोग आग के पास बैठ गये। ढलानदार टैंट में सभी असहज महसूस कर रहे थे। नेत्रपाल यादव लेटते ही नीचे फिसल जाते तो उनके मुँह से ‘पूरा नरक कर रखा है’, सुन कर मेरी हँसी नहीं रुकती थी। तनु का छोटा सा टेंट उखाड़ कर एक उपयुक्त और सपाट स्थान पर लगा दिया गया। ढलानदार बुग्याल पर लगे टैंटों में सोना युद्ध अभ्यास जैसा लग रहा था। कड़कदार ठंड में तंबू के अंदर बिछी मैट और स्लीपिंग बैग का कोई तालमेल ही नहीं बैठ रहा था। बस लेटते ही हम नीचे की तरफ फिसले जा रहे थे। भविष्य में ऐसे हालात दोबारा न हों इसके लिये ये अच्छा सबक था।
सुबह उठे तो धूप आने में देर थी। इसलिए रात भर जलते चूल्हे के इर्द-गिर्द ही जमावड़ा लग गया। काली चाय की घूँट के साथ आराम से सब तैयार हुए।
स्थानीय गाँवों के हमारे साथियों की महफिल हम से थोड़ा अलग धूप में लगी थी। मुझे लगा कि उनकी बातचीत में शामिल होना चाहिये। उनकी चर्चा सरकारों की अनदेखी और बदहाल सड़क, बिजली और स्वास्थ्य पर हो रही थी। रैक्चा के प्रधान प्रह्लाद रावत ने मुझे बातचीत में शामिल करते हुए बताया कि हमने अपने गाँव में तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा का जोरदार स्वागत किया था लेकिन उन्होंने सड़क के लिये हमें कागजी औपचारिकता में उलझा कर लौटा दिया। लेकिन पंचायत मंत्री प्रीतम सिंह के प्रयास से प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के तहत सड़क के टेंडर कर जल्दी काम शुरू हो गया। यहाँ सड़क की बदहाली के चलते सेब फल पट्टी विकसित नहीं हो पा रही है। सरकारी योजनाओं की सैटिंग के लिये बदनाम मोरी ब्लाक के लोगों के लिये रोजगार के अन्य बेहतरीन विकल्प न होने कि बात पर तो मुझे भी उनसे आंशिक रूप से सहमत होना पड़ा। गोविंद वन पशु विहार के कारण टिहरी बांध की तर्ज पर वे भी विस्थापन के एवज में मोटे मुआवजा लेने के अलग-अलग सुझावों पर भी बात कर रहे थे, जिस पर हस्तक्षेप करते हुए मैंने उन्हें सरकार की वर्तमान विस्थापन नीति के खिलाफ पर्वतीय क्षेत्रों से मैदानी क्षेत्रों में विस्थापन के विरुद्ध इसी भौगोलिक वातावरण के समतुल्य दूसरे पर्वतीय क्षेत्र में विस्थापन की माँग पर जोर देने की सलाह दी, जिससे उनकी संस्कृति, खान-पान, वेश-भूषा, कृषि, पशुपालन, भवन निर्माण शैली और भाषा दुष्प्रभावित न हो। मैंने टिहरी से विस्थापित अपने रिश्तेदारों का हवाला देते हुए बताया कि किस तरह वे आज पहाड़ और मैदान के बीच की अजीब सी अव्यवस्थित संस्कृति में जीने को मजबूर हैं।
मुझे याद आया कि 2007-08 में पुरोला आये राहुल गांधी उस वक्त चैंक गये जब जयमोहन राणा ने यहाँ 60 रुपये किलो मोटा नमक खरीदने को मजबूरी उनको बतायी। जयमोहन राणा इस यात्रा में भी हमारे साथ थे। हम कितनी भी बड़ी-बड़ी बातें कर लें लेकिन अपनी धरती और गाँव की ये तकलीफें इनके लिये रोजमर्रा की दिनचर्या का हिस्सा है। इतने दूर यहाँ के बाशिंदों के दुख-तकलीफ के साथ उनके मन के इस मर्म को दुनिया के सामने लाना भी हमारे इस अभियान का हिस्सा है।
रैक्चा-फिताड़ी से हमारे साथ आये स्थानीय साथियों में प्रधान प्रह्लाद रावत, प्रह्लाद पंवार, राजपाल रावत, जयमोहन, रोजी सिंह, कृष्णा के साथ हमारे ‘पलायन एक चिंतन’ दल के साथी और असिस्टेंट कमिश्नर फाइनेंस मनमोहन असवाल ने आज यहाँ से वापस लौटना था। उन्हें विदा किया गया। बाकी सभी टीम को आज देवबासा से सीधे धार-धार लंबा सफर तय करते हुऐ भीतरी गाँव के लिये ढलानदार रास्ते से नीचे उतरना था। टीम लीडर ने हमें अपना निजी सामान खुद उठाने का निर्देश देते हुए चार में से दो खच्चरों को भी वापस भेज दिया।
मैं सीमा सुरक्षा बल का गुरिल्ला प्रशिक्षु रहा हूँ। सन 1998-99 के दौरान हिमांचल के सराहन और उत्तराखंड के ग्वालदम कैंप में जंगल ट्रैनिंग तथा माउंटेन ट्रेनिंग के का प्रशिक्षण लिया था। ये क्षण मुझे उन दिनों के अनुभवों की याद दिला रहे थे। आसपास के हालात में चलने से लेकर खाने-पीने के लिये मैं एहतियात और सूझ-बूझ बरत रहा था। ऐसी जगह पर आप लापरवाही के चलते बीमार या चोटिल होकर कर किसी पर बोझ नहीं बनना चाहेंगे। इसलिए सही तरीके से अपना पिठ्ठू कस कर, पीठ पर बाँध कर मैं तैयार हुआ। ऐसी यात्राओं में यह भी एहसास होता है कि खाली चलने से ज्यादा आरामदायक पीठ पर थोड़ा वजन लाद कर चलना होता है।
हम देवबासा से लौटने लगे तो एक ऊंची पहाड़ी से रतन असवाल ने हमें चारों तरफ फैली हिमालय की चोटियों से परिचित कराया। हिमालय की बंदर पूँछ चोटी से लेकर राड़ी का बौख पर्वत तक वहाँ से दिखाई दे रहा था। सुदूर पर्वतों की ढलान पर लाल केदार मार्छा की खूबसूरत दिखाई दे रही थी। एक तरफ चांगशील की ऊंची चोटी तक हिमांचल सरकार की सड़क दिखाई दे रही थी, वहीं दूसरी तरफ उससे बहुत नीचे रूपिन-सुपिन की नदी घाटियों के दोनों तरफ के गाँव अब तक सड़क से पूरी तरह नहीं जुड़े थे।
सफर के अगले चरण में भीतरी गाँव की तरफ बढ़े तो फिर से एक खड़ी चढ़ाई ने मोर्चा खोल दिया। मैने झल्लाकर कर गाइड सुरेन्द्र से पूछा तो उसने हमेशा की तरह बड़ी मासूमियत से कहा कि ये तो बस सीधा-सीधा रास्ता है। एक बार फिर समझ में आ गया कि इनका ‘सीधा-सीधा रास्ता’ भी कितना खतरनाक होता है। विकल्पहीन भारतीय जनता की तरह हम भी पीछे-पीछे चलने के लिये मजबूर थे।
अचानक हम मानो दुनिया के सबसे खूबसूरत पहाड़ी रास्ते पर आ गये थे। एक शानदार छः फुटी सड़क, जो हरे-भरे बुग्यालांे के बीचोंबीच सीधी निकल रही थी। ऐसी सुगंध, मानो आसपास कहीं कस्तूरी मृग मौजूद हों। या हो सकता है कि यह खुशबू बुग्यालों की जड़ी-बूटियों या औषधीय पौधों की रही हो, जिन्हें हम नहीं जानते थे। खैर, एक उत्साह से लबालब, चलते-चलते गुड़ चना खाते हुए दुबारा तरोताजा होकर हम अपने ढलते सफर की तरफ बढ़ते चले गये।
एक घाटी से हमें सांकरी का छोटा सा बाजार नजर आने लगा तो मोबाइल पर नेटवर्क मिलने की उम्मीद जाग उठी। मगर फोन खोला तो हाल जस के तस थे। पिछले तीन दिनों से घर पर कोई बात नहीं हुई थी। इस दौर में बिजली और मोबाइल सेवा से कटे इस क्षेत्र के लोगों की कठिनाई अब हमें ज्यादा बेहतर ढंग से समझ में आने लगी।
कुछ समय बाद आसमान में काले बादल मँडराते नजर आये तो बारिश का डर सताने लगा। हम एक घने जंगल में पथरीली ढलान पर बने जंगलात के एक जीर्ण-क्षीण पैदल रास्ते पर चल रहे थे, जो काफी समय से उपेक्षित होने के कारण बदहाल था। चढ़ाई की तरह ढलान पर भी तेज चलना कठिन होता है। ट्रैकिंग के नजरिये से महत्वपूर्ण होने के बावजूद इस रास्ते में दूर-दूर तक पानी का नामोनिशाँ नहीं था। हम सब बेहद किफायत के साथ पानी की घूँटें ले रहे थे। तनु, नेत्रपाल, सौरभ और मुझे छोड़ बाकी लोग आगे निकल चुके थे। अजय कुकरेती और दलबीर रावत हम से थोड़ा ही आगे थे। हम रास्ता न भटकें, इसलिये एहतियातन हमारा पोर्टर जुनैल भी हमारे साथ था।
काफी नीचे उतर आने के बाद हमें एक छोटे से बुग्याल में अपने नीले कैंप लगे दिखाई दिये। हमारे लिये ये राहत की बात तो होनी ही थी। लगभग 14 किमी. चलने के बाद हमने भीतरी गाँव से लगभग 8 किमी. ऊपर इस जंगल के पहले पानी के बहते स्रोत के पास ‘बणांग’ नामक इस जगह को रात्रि विश्राम के लिया चुना था। चारों तरफ जंगल से घिरे इस बुग्याल में वन गूजरों का एक उजड़ा हुआ डेरा भी था। आसपास बाँझ के पेड़ों की चोटी तक बारीक लोपिंग भी इस जगह पर गूजरों के नियमित प्रवास की गवाह थी। रतन भाई ने अपने अनुभव से बताया कि गुर्जरों का डेरा होता है, वह उस जंगल की सबसे शानदार और सुरक्षित जगह होती है।
हमारे पहुँचने तक कैंप के नजदीक जल रहे आग के भट्टे पर दाल का कुकर सीटी मार रहा था। आखिरी पदयात्री के रूप में जैसे ही हम कैंप में पहुँचे तो बारिश और ओलों ने हमारा स्वागत किया। बारिश थमने तक हम टैंट में दुबक गये और उसके बाद बाहर निकल कर चूल्हे की आग को दुरुस्त कर रात्रि भोजन की तैयारी में जुट गये।
रतन भाई द्वारा तैयार किये गये दाल के गर्म सूप से थकान उतरने लगी। भोजन पकने तक किर्तम मामटी ने चूल्हे के आसपास खच्चर के प्लान की बोरियाँ बिछा कर सबके बैठने की व्यवस्था भी कर दी।
महफिल सजने लगी। होंठो पर हिमांचली और जौनसारी गीतों के सुर थिरकने लगे। फिर रतन भाई और गणेश काला ने खुले कंठ से नरेन्द्र सिंह नेगी के गीतों की तान छेड़ी तो मुकेश बहुगुणा ने चुटकलों के ब्रेकअप से समाँ खुशनुमा कर दिया। दलबीर रावत ने एक शानदार गीत गाया तो नेत्रपाल यादव को भोजपुरी गीतों की धुन पर नृत्य करना पड़ा। कुछेक कुमाउनी गानों पर तनु ने भी गला साफ किया तो हमारे स्थानीय गाइड सुरेन्द्र और पोर्टर जुनैल और खच्चर वाले किर्तम मामटी के साथ मैंने लोकल गीतों पर अपनी क्षमतानुसार ‘तांदी’ नृत्य किया।
इन रोचक-रोमांचक क्षणों में भोजन के बाद हम एक बार फिर खामोश जंगल की इस खूबसूरत रात के आगोश में सो गये।
(जारी है)