प्रतिष्ठा में,
श्री त्रिवेन्द्र रावत जी
माननीय मुख्यमंत्री
उत्तराखंड सरकार
विषयः कोरोना के चलते प्रवास से अपने गांव लौट रहे लोगों को गांव में ही रुकने की आपकी अपील और
सरकार की नीतियों के संदर्भ में।
महोदय,
सादर नमस्कार। आशा है आप स्वस्थ एवं कुशल से होंगे। उपरोक्त विषय पर सबसे पहले आपका आभार व्यक्त करना चाहता हूं कि आपने गांव वापस आ रहे लोगों को यहीं रुकने के लिये आश्वस्त किया है। यह एक स्वागत योग्य कदम है। पिछले दिनों आपकी सरकार द्वारा गठित ‘पलायन आयोग’ ने भी अपने एक वक्तव्य में कहा था कि वे ऐसी नीतियां बनाना चाहते हैं ताकि घर वापस आ रहे लोग फिर महानगरों को न लौटें। ये लोग पहले भी अपना घर छोड़कर नहीं गये थे। नीतियों ने इन्हें पहाड़ छोड़ने को मजबूर किया था। ये सब अपनी रोटी-रोजगार के लिये लिये महानगरों में रह रहे हैं। सरकार इनके बारे में सोच रही है तो यह अच्छी पहल है।
मान्यवर, इससे पहले कि अपनी बात रखूं आपको जनकवि बल्ली सिंह चीमा जी का एक जनगीत सुनाता हूं। हो सकता है ‘रिवर्स पलायन’ की बातचीत के बीच आपको यह जनगीत थोड़ा असहज लगे। हो सकता इस जनगीत में आपको उस तरह का कोर्इ संदेश न दिखार्इ दे, क्योंकि जनता की आवाज देने वाली इन सांस्कृतिक ध्वनियों को नीति-नियंताओं ने सुनना बंद कर दिया है। लेकिन लोग गा रहे हैं। अपने संसाधनों को बचाने के गीत। शायद इन्हीं से निकलेगा जनपक्षीय नीति का रास्ता। खैर, उनका यह जनगीत-
साथी जल, जंगल, जमीन का बचना बहुत जरूरी है।
इसीलिये अंधे विकास से लड़ना बहुत जरूरी है।
जिसको रहबर चुनते हैं हम वो रहगन बन जाता है,
धर्म, जाति, झूठे वादों से जनता को बहलाता है।
पूंजीवादी लोकतंत्र का भंडाफोड़ जरूरी है,
इसीलिये अंधे विकास से लड़ना बहुत जरूरी है।
किसी सेठ को आत्महत्या करके मरते ना देखा,
किसी किसान को पैसा ले परदेश भागते ना देखा।
सही समय पर सही दाम फसलों का मिले जरूरी है
इसीलिये अंधे विकास से लड़ना बहुत जरूरी है।
मजूर-किसान की हालत हर दिन खस्ता होती जाती है,
शहरों में हर सेठ की दौलत दुगुनी होती जाती है।
कोर्इ खाता सूखी रोटी कोर्इ हलवा पूड़ी है,
इसीलिये अंधे विकास से लड़ना बहुत जरूरी है।
कोर्इ भी बुनियादी मुद्दा इन्हें नजर नही आता है,
हिन्दू-मुस्लिम, हिन्दू-मुस्लिम हर चैनल चिल्लाता है।
नकली मुद्दे, नकली बहसें सत्ता की मजबूरी है,
इसीलिये अंधे विकास से लड़ना बहुत जरूरी है।
लोकतंत्र को तानाशाही के रंग में रंग डालेंगे,
ग़र ना जागी जनता सारा देश तबाह कर डालेंगे।
ऐसे में संविधान की रक्षा करना बहुत जरूरी है,
इसीलिये अंधे विकास से लड़ना बहुत जरूरी है।
महोदय, पहाड़ पहुंचे लोग आपसे बहुत आशान्वित हैं। उन्हें लगता है कि जिस अंधे विकास से नीति-नियंताओं ने उन्हें घर छोड़ने को मजबूर किया वे उनके संसाधनों की हिफाजत करते हुये विकास का रास्ता ढूंढेंगे। बहुत सारे लोगों के बयान मीडिया में आ रहे हैं कि वे अब वापस महानगरों में नहीं जायेंगे। ये लोग सरकार की बनार्इ उस सड़क से बाहर गये थे, जिनका रास्ता महानगरों की ओर खुलता है। सरकारों ने आज तक कोर्इ ऐसी सड़क नहीं बनार्इ जो इन लोगों को गांव ला सके। आज भी वह सरकार की बनार्इ सड़क से नहीं, बल्कि कोरोना के बहाने आ रहे हैं। हां, सरकार की बनार्इ सड़कों से गांव तक भू-माफिया, शराब माफिया और खनन माफिया पहुंच गया। फिर नीति-नियंताओं ने तरीके से बताया कि गांव छोड़ने के लिये ‘नीति’ नहीं ‘व्यक्ति’ जिम्मेदार है। खैर, इस पर फिर बात करूंगा, फिलहाल आपने जो आस जगार्इ है उससे प्रेरित होकर मैं अपने गृह क्षेत्र गगास घाटी के लोगों को कैसे यहीं रोका जा सके इस पर आपकी नीति को समझना चाहता हूं।
मान्यवर, मैं अल्मोड़ा जनपद के द्वाराहाट विकासखंड की गगास घाटी के मनेला गांव का रहने वाला हूं। कुछ साल पहले रोजगार की तलाश में दिल्ली चला गया था। यहां किराये के मकान में रहता हूं। इन सालों में कोर्इ ठीक-ठीक रोजगार नहीं मिलने के कारण हमेशा गांव आने की सोचता रहा। पिछले एक साल से मैं गांव आने की तैयारी कर रहा था। मार्च में जब मैंने अपने गांव आने का अंतिम फैसला लिया तो कोरोना के चलते लाॅक डाउन हो गया। मुझे उम्मीद है कि मैं सितंबर-अक्टूबर तक पूरी तरह से अपने गांव में रहना शुरू कर दूंगा। तब मेरे लिये फिर एक नये संघर्ष का दौर शुरू होगा कि अब मैं क्या करूं? यह अच्छा हुआ कि आपने ऐसे लोगों के बारे में सोचा जो पहाड़ में रहना चाहते हैं। लेकिन यह कैसे होगा यह हमारी समझ से बाहर है। हमारी गगास घाटी अल्मोड़ा जनपद की सबसे विस्तृत पटि्टयों में से एक है। बहुत खूबसूरत। ऐतिहासिक। यहां मटेला, मकडों, पीपलटांडा, चैकुनी, गुढोली, चमना, गनार्इ, ऐराड़ी, मनेला, भेट, छाना, बाट कोटली, बिष्ट कोटली, दुगौड़ा, च्याली, धनखलगांव, नौसार, हाट, पनेरगांव, सकूनी, भंडरगांव, मेल्टा, उडगल, रावलसेरा, गोफा, पेटशाल, डोटलगांव, र्इड़ा, कामा, कनलगांव, रवाड़ी, बाड़ी, धमोली, नौलाकोट, क्वेराली, नायल, पारकोट, बिन्ता, भतौरा, सुरणा, तैल मैनारी, जाख, बैनाली, बगूना, कफलना, रतगल, महतगांव, रोतपुर, शुतरगांव, पागीसा, कुंवाली, नैणी, कुलसिवि, भ्िाटारकोट, दैना, मल्यालगांव, ऐना, मझोली, धनखोली, रौला खरक गांव हैं। ये दो विकासखंड द्वाराहाट-ताड़ीखेत और दो विधानसभा क्षेत्रों सोमेश्वर और द्वाराहाट के गांव हैं। एक विस्तृत पट्टी में बसे। गगास नदी के किनारे। रानीखेत के नजदीक। हल्द्वानी-बद्रीनाथ राष्ट्रीय राजमार्ग और हल्द्वानी बागेश्वर राजमार्ग से लगा हुआ। विशिष्ट भौगोलिक परिस्थिति में बसा यह क्षेत्र उत्तराखंड के विकास के लिये एक माॅडल हो सकता है।
महोदय, पहले मैं अपने क्षेत्र के बारे में थोड़ा बता दूं ताकि आप इस क्षेत्र के लिये जनपक्षीय नीतियां बनाते समय इसका उपयोग कर सकें। इस क्षेत्र में बहुत रमणीक स्थान पर एडद्यो का मंदिर है। इसकी दूर-दूर तक मान्यता है। इसकी तलहटी में बसे कुंवाली में पौराणिक विष्णु का मंदिर है। यहां सीर शैया पर विष्णु की दुर्लभ प्रतिमा है। मान्यता है कि यही आदिबद्री है। बासुलीसेरा को ब्रदीनाथ की जमीन कहा जाता है। यहां हर फसल में बद्रीनाथ के लिये हिस्सा भेजने की परंपरा है। कर्इ पुरातात्विक खोजों से पता चला है कि यह क्षेत्र ऐतिहासिक संदर्भों के लिये महत्वपूर्ण है। सकूनी का शिव मंदिर उत्तराखंड ही नहीं उत्तर भारत के सबसे प्राचीन मंदिरों में से एक है। बताते हैं इसकी स्थापना आठवीं शताब्दी में हुर्इ थी। थोड़ा आगे जाकर कामा गांव में हमारी नाथ परंपरा की बहुत बड़ी जागीर है, जिसे हम पीरों की गढ़ी कहते हैं। यहीं पारकोट को कभी वैद्यों का गांव कहा जाता था। हमारे शीर्ष पर कुमाऊं के भूमि-न्याय देवता गोलज्यू का प्राचीन मंदिर है उदेपुर। यहीं पांडुखोली जैसा सुरम्य क्षेत्र है। हमारी अराध्य दूनागिरी मां का आशीर्वाद इस क्षेत्र को मिला है, जिसकी पर्वत श्रंखला भटकोट से जीवनदायिनी गगास नदी का उद्गम है। गगास के उद्गम से लेकर उसकी यात्रा के अलग-अलग पड़ावों पर बहुत सारी पौराणिक कहानियां हैं, जो इसके महत्व को बताती हैं। दुगौड़ा, बासुलीसेरा, रावलसेरा, र्इडासेरा, कामा, कनलगांव, बिन्ता, भतौरा के विस्तृत सेरे यहां की धरोहर हैं।
महोदय, मैं जानता हूं कि एक मुख्यमंत्री के लिये किसी एक छोटे क्षेत्र के बारे में इस तरह की बातों का कोर्इ विशेष महत्व नहीं है। अगर होता तो शायद इन सारी विशेषताओं से भरपूर एक क्षेत्र को पलायन कर बाहर का रुख नहीं करना पड़ता। हमारे अभी तक के अनुभव बताते हैं कि इस क्षेत्र की अपार प्राकृतिक धरोहरों की उपेक्षा हुर्इ है। इस सोना उगलने वाली जमीन के लिये सरकार की तरफ से कोर्इ नीति नहीं बनी। अल्मोड़ा जनपद की सबसे लंबी नहरों में से एक छाना नहर का अस्तित्व संकट में पड़ने से दर्जनों गांव सिंचार्इ से वंचित हो गये। कर्इ आंदोलनों और प्रतिवेदनों के बावजूद इस नहर के बारे में कभी नहीं सोचा गया। क्षेत्र में पानी के अभाव के कारण लोगों के लिये खेती करना आसान नहीं रहा। इसके कारण कर्इ लोगों ने अपनी खेती कम कर दी। अब लोगों के पास जोत भी कम है। हमारे क्षेत्र में उन्नत किस्म की धान, गेहूं की फसल के अलावा एक पूरी बेल्ट सब्जियों की है। उपराऊ में दालें और पहाड़ी फसलें बहुतायत में उगती रही हैं। हमारी कर्इ पीढि़यों ने इसी से अपना भरण-पोषण किया। लेकिन समय के साथ इसमें बदलाव के लिये कोर्इ नीति नहीं बनार्इ गर्इ। परिणामस्वरूप अन्य जगहों की तरह यहां भी लोग खेती से विमुख होने लगे हैं। मैं इस क्षेत्र के विकास पर कुछ सुझाव रख रहा हूं। आशा है आप और आपकी टीम इस पर गौर करेगी।
1. गगास घाटी के इस पूरे क्षेत्र को एक पर्यटन जोन के रूप में विकसित करें। चूंकि यह स्थान बद्रीनाथ और बागेश्वर राष्ट्रीय मार्ग से लगा है। पहाड़ के हर क्षेत्र से इसका सीधा संपर्क है। राजधानी दिल्ली, हल्द्वानी और रामनगर की इससे सीधी पहुंच है। रानीखेत-कौसानी जैसे पहाड़ी पर्यटक क्षेत्रों के बीच इस खूबसूरत घाटी को पौराणिक-ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पर्यटन से जोड़ा जा सकता है। इसके लिये एडद्यों, दूनागिरी, पांडुखोली, बद्रीनाथ मंदिर कुंवाली, गोलज्यू मंदिर उदेपुर, वैद्यों के गांव पारकोट, नाथों की पीर कामा, सकूनी के पौराणिक शिवालय, रामकोट के अलावा यहां के सुप्रसिद्ध बग्वाली मेले को जोड़कर बनाया जा सकता है। प्राकृतिक रूप से संपन्न इस क्षेत्र और गगास घाटी को पूरी तरह से पर्यटक क्षेत्र बनाया जा सकता है।
2. गगास घाटी की उपजाऊ जमीन को देखते हुये इस पूरी घाटी में सरकार सामूहिक खेती के माध्यम से लोगों को रोजगार उपलब्ध करा सकती है। सरकार इस घाटी में कृषि, पशुपालन, उद्यान विभाग, सिंचार्इ विभाग, वन विभाग, मत्स्य पालन के अलावा अन्य विभागों का समन्वय कर इस पूरी घाटी को समेकित विकास के माॅडल के रूप में विकसित कर सकती है। सरकार सहकारिता के माध्यम से इस महत्वपूर्ण खेती में उन फसलों को प्रोत्साहित कर सकती है जो तुरंत आर्थिक लाभ देने वाली हों। इससे लोग अपनी खेती की ओर आकर्षित होंगे। जो लोग बाहर बस गये हैं उन्हें भी अपनी खेती जुती मिलेगी। जो लोग छोटे-मोटे रोजगार के लिये बाहर जाते हैं वे भी रुकेंगे। सामूहिक खेती और कृषि आधारित कामों से छोटी और बड़ी रकवे वाले लोग अच्छा जीवन-यापन कर सकते हैं (इस बारे में अलग से डाटाबेस पूरे प्रारूप को हमसे ले सकते हैं, जिसे हम अपने गांव से शुरू करने की कोशिश करेंगे)।
3. पूरे प्रदेश में जिस तरह आपने सरकारी स्कूलों को बंद किया है, उसी तरह गगास घाटी में भी दर्जनों स्कूल सरकार ने बंद किये हैं। बड़ी संख्या में बच्चे यहां से 16 किलोमीटर दूर द्वाराहाट पब्लिक स्कूलों में जाने को मजबूर हैं। गगास, छानागोलू, बग्वालीपोखर, कामा, बिन्ता, पारकोट, श्रीखेत, महतगंाव में यहां स्थापित बहुत सारे सरकारी हार्इस्कूल और इंटर कालेजों की जो हालात आपने बना दी है, भविष्य में वे भी बचे रहेंगे इसकी कोर्इ गारंटी नहीं है। हो सकता है आप किसी बड़े पब्लिक स्कूल के मालिक के लिये यहां की जमीन नपवा दें। और जब लोग इसका विरोध करें तो आप उन्हें ‘शिक्षा विरोधी’ बता दें। इसलिये आपसे निवेदन है इस क्षेत्र में सरकारी शिक्षा की व्यवस्था को ऐसा बनायें कि लोग कम से कम अपने बच्चों को पढ़ाने के लिये गांव न छोड़ें।
4. प्रदेश के अन्य जगहों की तरह ही गगास घाटी में चल रहे सरकारी अस्पतालों की जो हालत है उन्हें सुधारने की बजाय आप उन्हें नाकारा साबित करने में लगे हैं। स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव में भी लोग घाटी छोड़ने को मजबूर हैं । आप अगर चाहते हैं कि लोग अपने गांवों में रहें तो आपको मनेला, बासुलीसेरा, बिन्ता और कुंवाली के अस्पतालों को सुविधासंपन्न बनाना होगा। लेकिन आप जिस तरह से राज्य के सभी अस्पतालों को पीपीपी मोड के सहारे फाउंडेशनों के हवाले कर रहे हैं, हो सकता है इनका नंबर भी आ जाये। हो सकता है आने वाले दिनों में आप यह कहते हुये कि स्वास्थ्य सेवायें सरकार के बस की नहीं हैं किसी प्राइवेट अस्पताल के लिये इस क्षेत्र में जमीन बिकवा दें। अगर कोर्इ कहेगा कि ऐसा क्यों कर रहे हो तो आप उसे ‘स्वास्थ्य विरोधी’ करार दे सकते हैं।
5. जहां तक रोजगार का सवाल है, जिस जमीन और प्राकृतिक धरोहरों को बचाने की बात हम लोग कर रहे हैं उसे आपकी सरकार पूंजीपतियों के हवाले करने जा रही है। हमारे ही क्षेत्र की जमीन को विकसित करने की बजाय आपने किसी कंपनी को ‘विकास’ के नाम पर देने की छूट दे रखी है। जब ग्रामीण उसक विरोध कर रहे हैं तो आपके नुमाइंदे उन्हें ‘विकास विरोधी’ करार दे रहे हैं। वैसे आपकी सरकार ने पिछले दिनों जिस तरह भूमि कानून में संशोधन कर पूरे पहाड़ को एकमुश्त बेचने और लीज पर देने का इंतजाम कर उसे ‘विकास’ का रैपर चढ़ाकर हमसे छीनने की साजिश की है, उससे हमें विश्वास नहीं हैं कि आप कोर्इ ऐसी नीति बनाने जा रहे हैं, जिससे हमारे गांव बच सकें। आपके ‘पलायन आयोग’ बनने के बाद और तेजी से पहाड़ की जमीनों को सौदा हुआ है।
महोदय, पत्र लंबा हो गया है। हमारी समस्यायें भी छोटी नहीं हैं। बहुत बड़ी हैं। वर्षों की हैं। अनुत्तरित हैं। आपने कभी उनका उत्तर देने की कोशिश भी नहीं की। उत्तराखंड की समस्यायें जितनी बड़ी हैं उनके समाधान उतने ही छोटे हैं। इन समाधानों को आपने कभी खोजा नहीं। आज भी जिन बात को आप कह रहे हैं वे लोगों को बरगलाने वाली हैं। लगता है नीति-नियंताओं को उत्तराखंड का भूगोल पता नहीं हैं। यहां की सामाजिक संरचना को नहीं जानते। हमारे गांवों के दर्द आपकी राजनीति में शामिल नहीं हैं। जिस समय मैं यह पत्र लिख रहा हूं उस समय वे लोग अलग-अलग शहरों में आपके द्वारा दिये गये बसों का इंतजार कर रहे हैं, जिनके लिये आप नीतियां बनाने का नारा गढ़ रहे हैं। प्रशासन द्वारा गलत जानकारी के कारण ये लोग कर्इ किलोमीटर पैदल चलकर उन स्थानों को ढूंढ रहे हैं जहां उन्हें बस लेने को कहा गया है। आपके ‘लाट सहाब’ आर्इएएस अफसर जिनके आपने नंबर दिये हैैं वे फोन नहीं उठा रहे हैं। ये जनता का नहीं इन ‘लाटों’ का राज्य हो गया। उनका, जो आपको कुछ नहीं समझते। उत्तर प्रदेश के एक गुंडे विधायक को बद्रीनाथ जाने की इजाजत देने वाला आपने अपना अपर मुख्य सचिव बनाया है। गुडगांव, जयपुर, नोएडा और दिल्ली में लोगों को घर लाने की आपकी सरकार की घोषणायें हवार्इ-हवार्इ हैं। कर्इ और राज्यों में और लोग फंसे हैं। जो व्यवस्था अपने लोगों को सम्मान के साथ अपने राज्य में नहीं ला सकती वह उन्हें वहां ठहराने की नीति बना सकती है इसमें संदेह है। इसलिये मुनाफाखोरों और पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाने वाली नीतियों की जगह अपने विकास के केन्द्र में गांव के लोगों को रखें। ओली में किसी गुप्ता की लड़की की शादी का जश्न मनाने और च्याली में किसी कंपनी को ‘विकास’ के नाम पर कृषि योग्य जमीन देने से पलायन नहीं रुकेगा। आप पहाड़ के ही रहने वाले हैं। पहाड़ की संवेदनाओं के साथ पहाड़ को देखें। दूसरों की नजरों से नहीं।
शुभेच्छु
चारु तिवारी