हरिश्चन्द्र चंदोला
अब जब दिवंगत नेताओं की कथाएं छपने का ट्रेंड चला है तो मैं भी उनमें एक जोड़ने का प्रयास करता हूँ। यह नारायण दत्त तिवाड़ी जी से संबंधित है, जिनके पुत्र रोहित की दिल्ली में हत्या की कहानियों से आजकल अखबार भरे रहते हैं।
मैं 1947 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय का छात्र था और उसके हॉलैंड हाल के कैम्ब्रिज छात्रावास में रहता था। जुलाई में विश्वविद्यालय खुलने पर देखा कि नारायण दत्त तिवाड़ी भी उसी छात्रावास के अंतिम बडे़ कक्ष में स्थान पा गए थे। वे पहले किसी विद्यालय से स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण कर चुके थे तथा उसके बाद स्वतंत्रता आंदोलन में जेल हो आए थे। वहाँ से छूटने पर वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में खुले एक नए विषय ‘डिप्लोमैसी’ (विदेशों से राजनयिक संबंध) पर एम.ए. करने आए। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पहाड़ से अनेक विद्यार्थी थे और वे भी उनकी ही भांति सीधे-साधे। तिवाड़ी जी कांग्रेस की राजनीति में सक्रिय थे, किंतु विश्वविद्यालय की राजनीति में बिल्कुल नहीं।
स्वतंत्रता का पहला वर्ष था तथा विश्वविद्यालय में चौथी श्रेणी (चपरासी आदि) के कर्मचारियों का वेतन बढ़ाने के लिए जोरदार आन्दोलन चल रहा था। कांग्रेस में सक्रिय रहने के बावजूद तिवाड़ी जी ने कर्मचारियों के आन्दोलन में न तो भाग लिया और न ही उनकी सहायता की। हम उस छात्रावास में रहने वाले देखते थे कि तिवाड़ी जी कांग्रेस की सभाओं तथा अन्य गतिविधियों में भाग लेने जाते रहते थे। शायद उसी समय उनका प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू, जो इलाहाबाद के ही रहने वाले थे, से भी परिचय हुआ होगा।
हममें से कुछ विद्यार्थियों ने कर्मचारियों के आन्दोलन में भाग लेने का फैसला किया कुलपति के कार्यालय के बरामदे में भूख हड़ताल आरंभ कर दी। कुछ दिन बाद पुलिस आई। हम कार्यकर्तांओं से पूछताछ की, मगर किसी को पकड़ कर नहीं ले गई। कुछ दिन बाद हमने हड़तालियों के समर्थन में शहर में विद्यार्थियों का एक जुलूस निकाला, जिसके बाद पुलिस ने मुझ सहित चार छात्रों को को पकड़ कर ले गई। हमें कर्नलगंज थाने में बंद कर दिया गया। हम में से दो हॉलैंड हॉल में रहने वाले थे। छात्रावास के उप सुपरिंटेंडेंट चौफीन साहब ने जमानत दे कर हमें थाने से छुड़वाया। हमारे ऊपर शहर में शांतिभंग करने का मुकदमा अदालत में चलाया गया। चार आरोपी विद्यार्थियों में से दो गढ़वाल के थे। जुलूस के नेता आसिफ अंसारी, जो भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के थे, गिरफ्तारी के समय पता नहीं कहां गुम हो गए और पुलिस द्वारा पकडे़ नहीं जा सके। वे मुकदमे के सारे समय बिना गिरफ्तार हुए बाहर ही रहे।
मुकदमे से हम चारों बिना सज़ा पाए छूट गए। लेकिन उन महीनों में, जब केस चल रहा था न तो आसिफ अंसारी न अन्य कोई नेता हमारी सहायता में आए। हम लोग तो आशा कर रहे थे कि शायद नारायण दत्त तिवाड़ी, जो हॉलैंड हॉल में रहने के साथ-साथ कांग्रेस के सक्रिय सदस्य थे और पहाड़ के ही रहने वाले थे, मुकदमे में हम विद्यार्थियों की सहायता के लिए आयेंगे। लेकिन वे भी नहीं आए। हड़तालियों तथा पकड़े जाने वालों में कोई भी कांग्रेस का सदस्य नहीं था, अतः कांग्रेस ने चतुर्थ श्रेणी में काम करने वालों की हड़ताल में कोई सहायता नहीं की।
बहरहाल, अन्त में हड़ताल सफल हुई और तथा कर्मचारियों का वेतन कुछ बढ़ा दिया गया।
बाद के दिनों में जब तिवाड़ी जी बहुत बडे़ नेता बन गये तो भी वे कभी लड़ने-भिड़ने के झंझट में नहीं पडे़। पहाड़ के लोगों ने जब एक अलग राज्य की मांग की, तब भी वे उसके समर्थन में नहीं आए। यद्यपि बाद में राज्य का गठन हो जाने पर वे उस नए राज्य के प्रथम मुख्यमंत्री अवश्य बन गए। उनके दल कांग्रेस ने ही उनको उस पद पर बैठाया।
इस कथा का अर्थ यही है कि स्वतंत्रता की लड़ाई के बाद तिवाड़ी जी कभी किसी राजनैतिक लड़ाई मे भाग लेने नहीं आए। एक ऊँचाई पर पहुँच जाने के बाद उन्होंने किसी भी जनान्दोलन का समर्थन नहीं किया।