हिमांशु जोशी
26 अक्टूबर 2020 को पिथौरागढ़ में ऑल वेदर रोड पर कैंटर के ऊपर मलबा गिरा और तीन की मौत। सुनने में तो यह एक आम खबर है पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले से प्रभावित यह रोड उत्तराखंड की अब तक की पूरी कहानी को समेटे हुए है। राजनीति, भ्रष्टाचार और अफसरशाही इस प्रदेश पर शुरू से ही हावी रही है।
वर्ष 1897 से ही उत्तर प्रदेश से अलग एक पहाड़ी राज्य बनाने की मांग शुरू हो गई थी। 1940 में हल्द्वानी सम्मेलन में बद्री दत्त पांडे ने पहाड़ी क्षेत्र की विशेष स्थिति के लिए आवाज उठाई। वर्ष 1994 में उत्तराखंड की मांग ने एक जनांदोलन का रूप ले लिया। 1994 के सितम्बर और अक्टूबर माह में खटीमा, मसूरी, श्रीनगर, नैनीताल, कोटद्वार, देहरादून और मुज्जफरनगर में उत्तराखंड आंदोलनकारियों का खून बहा। 15 अगस्त 1996 को तत्कालीन प्रधानमंत्री एच .डी. देवगौड़ा ने दिल्ली के लाल किले से नए राज्य उत्तरांचल की घोषणा की।
9 नवम्बर वर्ष 2000 को एक नया राज्य ‘उत्तरांचल’ भारत के 27वें राज्य के रूप में अस्तित्व में आया, जिसे अब उत्तराखंड के नाम से जाना जाता है। भौगोलिक स्थिति की बात करें तो पहाड़, ग्लेशियर, मैदान और झीलों वाला उत्तराखंड विविध स्थलाकृति वाला प्रदेश है। यहां की जलवायु सम शीतोष्ण है। जनवरी का महीना सबसे ठंडा रहता है। यहां की मिट्टी चावल और गन्ने की खेती के लिए अनुकूल है। पशुपालन, कृषि मुख्य व्यवसाय हैं। पवित्र गंगा नदी, केदारनाथ, बद्रीनाथ धाम आस्था के मुख्य केंद्र हैं। शिक्षा के क्षेत्र में देहरादून का वर्षों से पूरे देश में एक अलग स्थान है तो विश्व प्रसिद्ध पंतनगर कृषि विश्विद्यालय भी यहीं स्थित है। हिंदी राज्य की आधिकारिक भाषा है। गढ़वाली, कुमाउनी, पंजाबी, नेपाली और उर्दू के साथ थारू, जौनसार जनजातियों की भाषा भी प्रमुखता से बोली जाती हैं। देहरादून, हरिद्वार, रुड़की, श्रीनगर, काशीपुर, रुद्रपुर, हल्द्वानी, अल्मोड़ा, नैनीताल और पिथौरागढ़ मुख्य शहर हैं। देहरादून, पंतनगर हवाई सेवा से जुड़े हैं तो देहरादून, हरिद्वार और काठगोदाम मुख्य रेलवे स्टेशन हैं।
प्रदेश की राजनीति की बात करें तो उत्तराखंड में प्रदेश गठन के बाद से ही देश की मुख्य राष्ट्रीय पार्टियों, भाजपा और कांग्रेस, का ही शासन रहा है। छोटे से प्रदेश में राजनीतिक अखाड़ा ऐसा है कि वर्ष 2016 में यहां राष्ट्रपति शासन भी लग चुका है। राजधानी को लेकर प्रदेश गठन के पहले से ही बवाल था वह अब भी चुनावी मुद्दा बना हुआ है। देहरादून और गैरसैंण को शीतकालीन व ग्रीष्मकालीन राजधानियों में बंटा देख विकास भैया भी इन दोनों के बीच अपनी फाइलें ढोते-ढोते थक गए हैं। नए जिले बनाने के लिए आंदोलन उत्तर प्रदेश के जमाने से ही चले आ रहे हैं। उत्तर प्रदेश काल में बागेश्वर और चम्पावत जिला बनाने के लिए किए गए आंदोलन इसके उदाहरण हैं। अलग राज्य बनने के बाद काशीपुर, खटीमा, डीडीहाट, रानीखेत को अलग बनाने की मांग चल रही है।
उत्तराखंडवासी अपनी भाषा, संस्कृति को भूलते जा रहे हैं। अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, नैनीताल जैसे पहाड़ी क्षेत्रों, जो पहाड़ियों के गढ़ हैं, के युवाओं के मुँह से पहाड़ी भाषा नदारद है। भाद्रपद में शुक्ल पक्ष या कृष्ण पक्ष में मनाया जाने वाला सातूं, हिलजात्रा अब बहुत कम देखने को मिलता है। पहाड़ी होली की जगह अब कपड़ाफाड़ होली ने ले ली है।
टिहरी बचाने के लिए आंदोलन किए गए पर डैम बनने से कोई नही रोक पाया, आने वाले समय में पंचेश्वर डैम का निर्माण भी होना ही है। टिहरी विस्थापित देहरादून से लेकर पथरी तक में फैले हुए हैं। अब उनमें मैदान की सुख सुविधा लेने की खुशी है। पंचेश्वर वाले भी शिक्षा, स्वास्थ्य और सड़क से वर्षों से महरूम हैं। कुछ वर्षों बाद वे भी अपनी नई जगह में दिवाली पर दीये जलाएंगे। यह व्यवस्था ठीक है कि एक दिन विकास से कोसों दूर पूरा पहाड़ ही खाली कर मैदान में बसा दिया जाए। चाँद पर जमीन लेने का रास्ता भी खुल ही गया है।
पिछली पूरी शताब्दी जनांदोलनों की जननी रही थी, फिर चाहे वह आजादी को लेकर किए गए आंदोलन रहे हों या उसके बाद सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के लिए किए गए आंदोलन। इस शताब्दी जनता में क्रांति की आग बुझी नजर आती है। ‘चलता है’ की मनोस्थिति आम हो चुकी है। जब तक खुद पर कोई बात नही आती, तब तक हर कोई शांत रहना ही उचित समझता है। ‘शराब नही रोजगार दो’ जैसे आन्दोलनों के बाद और निर्मल पंडित के बलिदान के बाद भी उत्तराखंड आज शराब की गिरफ्त में है। कोरोना काल में लॉकडाउन खुलते ही नैनीताल में भारी बारिश के बीच भी शराब के ठेके के बाहर लगी भीड़ का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ थी। इसी शहर में बरसों से बन्द पड़ी लाइब्रेरी के खुलने के प्रति जनता की निरपेक्षता और शराब के प्रति यह उद्दाम उत्साह राज्य का भविष्य दिखाता है।
पिछले कुछ वर्षों से रुद्रपुर, काशीपुर, हल्द्वानी, हरिद्वार, रुड़की और देहरादून में बन रही नई सोसाइटीज ही उत्तराखंड में विकास का एकमात्र परिचायक रही हैं। पहाड़ों में खंडहर में तब्दील हो चुके मकान कोरोना के बाद कुछ दिन के लिए तो गुलजार हुए हैं पर यह खुशी कुछ समय की ही है।
उत्तराखंड के बहुत से गांवों के लिए पानी की पाईप लाइन, बिजली अब भी एक सपना ही है। पहाड़ी अब भी बाघ के आतंक से अंधेरा होने से पहले घरों में छुप जाते हैं। पहाड़ से लोग अच्छी सुख सुविधाओं की तलाश में बड़े शहरों की ओर पलायन कर जाते हैं। शहरों में अच्छे विद्यालय, अस्पताल, मनोरंजन के लिए मॉल, पार्क उपलब्ध हैं। देर रात तक यातायात व अन्य सुविधाएं उपलब्ध हैं। पहाड़ी लोग रहना तो मैदानी क्षेत्रों में पसन्द करते हैं पर उन्हें घी, दूध, फल पहाड़ के ही चाहिए होते हैं। पहाड़ों से आने वाली टैक्सी मालगाड़ी का काम करती हैं।
उत्तराखंड के पिछड़ेपन का यह अर्थ बिल्कुल भी नही है कि यहां की जनता संसाधनों के अभाव में गरीब है, बल्कि राज्य के कर्ता-धर्ताओं द्वारा यहां के संसाधनों का उपयोग सही तरीके से और सबके लिए नही किया गया है। खड़िया के लिए पहाड़ों का खनन हो या रेता बजरी के लिए नदियों का खनन, राजनेताओं, नौकरशाहों व माफियाओं का गठजोड़ राज्य की अर्थव्यवस्था को दीमक की तरह खा रहा है। सिडकुल की स्थापना स्थानीय लोगों को रोजगार देने के लिए की गई थी पर रोजगार मिला बाहरी लोगों को। स्थानीय लोग रोजगार की तलाश में दिल्ली, बंगलौर और गुजरात चले गए।
पहाड़ों की स्वास्थ्य सेवा बदहाल है, क्योंकि अधिकतर डॉक्टर पहाड़ में पोस्टिंग नही चाहते। पहाड़ों में इलाज के अभाव में मरीजों की मौत की खबरें आम हैं। जनता इसका विरोध तो करती है, पर वह ज्यादा दिन तक नही रहता।
पर्यटन आधारित उद्योगों को कभी बढ़ावा नही मिला। नैनीताल और मसूरी ही मुख्य पर्यटन स्थलों के रूप में विकसित हो पाए, जबकि उत्तराखंड में अन्य ऐसे रमणीक स्थल भी हैं जिन्हें देख हर कोई बार-बार उत्तराखंड की ओर आकर्षित हो सकता है।
कृषि विज्ञान के अंतरराष्ट्रीय जर्नल की एक रिपोर्ट ‘ग्रीन फार्मिंग’ के अनुसार वर्ष 1824 में बिशप हेबर ने उत्तराखंड में चाय बागानों पर चर्चा शुरू की थी, जिसके बाद लॉर्ड बैंटिंग ने इस पर विचार करने के लिए वर्ष 1834 में एक कमेटी बनाई। परिणामस्वरूप वर्ष 1835 में कोलकाता से लगभग 2,000 चाय के पौधे उत्तराखंड पहुंचे थे। वर्ष 1880 तक उत्तराखण्ड में 63 चाय बागान थ,े जो 10,937 एकड़ भूमि पर फैले हुए थे। मजदूरों की कमी, परिवहन के उचित साधन न होने, लोकल बाजारों की अरुचि व चाय की लोकप्रियता न होने के कारण इसकी लोकप्रियता कम होती गई और वर्ष 1949 तक यह काम लुप्त होते गया। वर्तमान में उत्तराखंड में गिने-चुने चाय बागान हैं, पर तब भी यहां की चाय को विदेशों में भी पसंद किया जाता है। अब अंग्रेजी शासन की तरह मजदूरों और परिवहन के साधनों की कमी नहीं है और चाय की लोकप्रियता के कारण इसका बाजार भी बहुत बड़ा है।
उत्तराखण्ड सरकार को नवीकरणीय ऊर्जा के विकास पर भी कार्य करना होगा, यानी वह ऊर्जा जिसे प्रकृति में बहुतायत में उपलब्ध है और जिसे बार-बार इस्तेमाल किया जा सकता है। पवन ऊर्जा से चलने वाली हवा टरबाइन अपने खेतों में लगवाकर किसान उससे अच्छा किराया कमा सकते हैं और इससे फसलों में भी कोई व्यवधान नही आता है। हवा टरबाइन के टेक्नीशियनों की भी बहुत आवश्यकता है। इस क्षेत्र में युवाओं के लिये रोजगार के बहुत से अवसर हैं। सौर ऊर्जा का उपयोग चीन ने बहुतायत में किया है। भारत का चीन से पिछड़ने का एक बड़ा कारण यह भी है कि चीन ने नवीकरणीय ऊर्जा का उपयोग सुनियोजित तरीके से किया है।
उत्तराखंड के किसानों के लिए सिंचाई की समस्या आम है, जिसे वर्षा जल सरंक्षण कर हल किया जा सकता है। बग्वालीपोखर स्थित ‘नौला फाउंडेशन’ पिछले तीन साल से इस पर कार्य कर रहा है। थामण गांव से इसकी शुरुआत हुई। वहाँ नौलों के चारों ओर गड्ढे बनाए गए और पौधरोपण किया गया। अब वहां सूखे नौलों में पानी आ गया है।
विपणन की सही सुविधा उपलब्ध न होने पर पहाड़ों में बहुत से फल सड़ जाते हैं। शहद, लीसा, च्यूरा, नासपाती, माल्टा, सेब, काफल, बेर, बिरोजा, बुरांस, दालचीनी, बिच्छू घास, हरड़, जंबू, गन्दरैण, शिलाजीत उत्तराखंड से बाहर नही बिक पाते। महाराष्ट्र में ट्रेन दिन भर मछलियों को ढोती है। यदि वहां ट्रेनों का यह जाल नही होता तो क्या मछलियों का व्यापार इतना सफल होता ? नदियों, गाड़-गधेरों से सम्पन्न उत्तराखंड में मत्स्य पालन पर अब तक ज्यादा ध्यान ही नही दिया गया है।
वर्ष 1920-21 में टनकपुर-बागेश्वर रेल लाईन का सर्वेक्षण किया गया था। 155 किमी. लंबी यह रेल लाईन शायद उत्तराखंड वासियों के लिए वरदान हो पर अब तक की सभी सरकारों के लिए यह मात्र घोषणापत्र में शामिल किए जाने वाला आश्वासन है। ब्रिटिश सरकार तो इस रेलवे लाईन का महत्व समझती थी पर भारत सरकार दशकों बाद भी इससे अंजान है।
अपनी जन्मभूमि, अपने राज्य से हमें प्यार तो है पर वर्षों के आंदोलन और संघर्षों के बाद बने इस उत्तराखंड में सुविधाओं, रोजगार की सीमितता होने के कारण इससे दूर रहना हमारी मजबूरी बन गई है। सिर्फ तंत्र के भरोसे रह कर ही उत्तराखंड का विकास सम्भव नहीं है। इसमें समुदाय की भागीदारी की आवश्यकता है। एकजुट होकर ही तंत्र से हम अपनी मांगों को मनवाने में सफल हो सकते हैं।
चुनावी मौसम है। अच्छे बुरे को समझ कर ही हमें अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करना होगा। अभी उत्तराखंड युवा है, ऊटपटाँग विकास के नशे से बच कर यह सही राह में चला गया तो एक अच्छी शुरूआत के लिये अभी देर नहीं हुई है।