गजेन्द्र रौतेला
फ़िल्म निर्माण -एक भरपूर संभावनाओं से भरा हुआ उदासीन क्षेत्र । (भाग-1)
लम्बे समय तक लॉकडाउन में घर में कैद रहने के बाद जब उत्तराखण्ड में राज्य के भीतर कहीं भी आवाजाही की छूट मिली तो अपने भीतर के घुम्मकड़ को भी मौका मिल गया एक लंबी सोलो राइड पर निकल पड़ने का नीति घाटी की तरफ। पहुंचते ही गमशाली में अप्रत्याशित रूप से मुलाक़ात हो गई अपने सुप्रसिद्ध लोकगायक किशन महिपाल भाई और उनकी टीम से जो अपने म्यूजिक वीडियो ‘सोबनी बाना’ की शूटिंग के लिए पहुंचे हुए थे और स्टूडियो UK 13 के संतोष सिंह से भी जो अपनी एक शार्ट फ़िल्म की शूटिंग के लिए अपने क्रू के साथ पिछले दो हफ्ते से नीति घाटी में थे। बातों-बातों में पता चला कि प्रियंका महर भी अपने गढ़वाली म्यूजिक वीडियो ‘ ऐसू का बरस मेरु दिल भौरी ऐगे’ और हिंदी म्यूजिक वीडियो ‘शंभू’ की शूटिंग और UK Rapi Boy महेंद्र सिंह खत्री भी अपने हिंदी म्यूजिक वीडियो ‘मुझको चाहिए महंगी गाड़ी’ की शूटिंग भी कर रहे हैं। किशन महिपाल भाई से लंबी बातचीत में इस क्षेत्र और उत्तराखंड की फिल्मों और म्यूजिक वीडियो की संस्कृति के भी कई पहलुओं पर लंबी बातचीत हुई । जिस पर उनकी साफ राय थी कि इस पर व्यक्तिगत रूप से सभी कलाकार तो काम कर रहे लेकिन सरकार की उदासीनता और अदूरदर्शिता इस पर हावी है।
कोविड काल के पूरे लॉकडाउन में हजारों प्रवासी पहाड़ों के अपने अपने गांवों की तरफ अपनी अपनी नौकरी या काम धन्धे गंवा कर लौट आये। विभिन्न क्षेत्रों में काम करने वालों के साथ-साथ फ़िल्म निर्माण या बॉलीवुड में काम करने वाले कई तरह की क्षमताओं से युक्त प्रवासी भी इस उम्मीद के साथ कि नैसर्गिक सौंदर्य और लोक संस्कृति से भरपूर इस हिमालयी राज्य में अब एक नई बुनियाद रखेंगे।वर्षों से हमारी राज्य सरकारें भी बॉलीवुड और फ़िल्म निर्माण के क्षेत्र में लगे लोगों को भी यही आश्वासन देती रही है। लेकिन धरातलीय स्तर पर देखें तो उनके मुताबिक कोई मूलभूत सुविधाएं तक उपलब्ध नहीं हैं।
बॉलीवुड तो छोड़िए अलग पहाड़ी संस्कृति के नाम पर बने इस राज्य में हमारे उत्तराखंड की कोई फ़िल्म इंडस्ट्री तक इन दो दशकों में स्थापित नहीं हो सकी है। जो उत्तराखंड की फिल्मों का प्रतिनिधित्व कर सकें या उत्तराखंडी फ़िल्म होने का गौरव प्राप्त कर सके। वापस लौटे प्रवासियों को सरकार ने भी रोजगार के नाम पर कई तरह के हसीन सब्जबाग दिखाए लेकिन उसमें से भी फ़िल्म निर्माण या उससे जुडे अन्य रोजगार नदारद ही रहे। आज तक भी इस क्षेत्र में जो भी प्रयास किए गए व्यक्तिगत रुचि,प्रयास और जुनून के आधार पर ही किए गए हैं।
जबकि दूसरी तरफ देखें तो बॉलीवुड में हर क्षेत्र में पहाड़ के बहुत ही मंझे हुए कलाकार मौजूद हैं । तो फिर ऐसा क्या है कि इस सबके बावजूद भी हमारी अपनी फ़िल्म इंडस्ट्री कहीं नज़र नहीं आती। जबकि अन्य सभी छोटे बड़े राज्यों की क्षेत्रीय फ़िल्म इंडस्ट्रीज अपनी मजबूत जड़ें जमा चुकी हैं। चाहे वो भोजपुरी हो या उत्तर पूर्व जैसे छोटे राज्यों की फ़िल्म इंडस्ट्री। अपनी अच्छी खासी पहचान बना चुकी हैं। दरअसल यह सब सिर्फ फ़िल्म बनाने भर के काम जैसा नहीं। यह सिर्फ कला भर भी नहीं बल्कि यह एक भाषा है जिसके माध्यम से अपने समाज के मुद्दे और उसकी बात को बहुत सशक्त ढंग से कह सकते हैं।
म्यूजिक वीडियो के क्षेत्र में तो फिर भी कुछ हद तक नए प्रयोग हो रहे हैं लेकिन फिल्मों के क्षेत्र में एक बड़ा खालीपन साफ दिखाई देता है। यह अलग बात है कि म्यूजिक वीडियोज के कंटेंट पर अलग से जरूर बहस हो सकती है। इस विषम परिस्थिति में फ़िल्म निर्माण के क्षेत्र में संघर्ष कर रहे कलाकारों के लिए भी अगर एक खास कार्ययोजना बनाई जाए तो कोविड के इस संकट भरे दौर में कुछ उम्मीद जताई जा सकती है और इन फिल्मों के माध्यम से हम अपने प्राकृतिक सौंदर्य के साथ- साथ अपने जनहित के मुद्दों और कला संस्कृति व लोक में बिखरी कथाओं को भी एक नए फलक पर हम देख सकते हैं।फिल्में यदि अपनी जड़ों से जुड़ी हुई हों तो उसकी बोली-भाषा खुद अपने अस्तित्व और पहचान को बखूबी स्थापित करने में सक्षम होती है।