गजेंद्र रौतेला
समस्याएं या यों कहें कि आपदाएं हमारे जीवन के कुछ अनचाहे हिस्से से हो चले हैं ।जो हमारे सामाजिक आर्थिक जीवन की कई परतों को भी खोलते चले जाते हैं। 22 मार्च से कोविड-19 के चलते जो लॉक डाउन शुरू हुआ उससे हम सभी के आसपास बहुत सी कहानियाँ बिखरी पड़ी हैं । कुछ कहानियाँ उम्मीद जगाती हैं तो कुछ बेचैन और शर्मशार भी करती हैं। बहरहाल यह सब एक यथार्थ है आज का…… एक कड़वा यथार्थ।
तारीख 30 मार्च और लॉक डाउन का नवाँ दिन। शाम 6:30 बजे के आसपास मैं घर के पास सड़क पर स्ट्रीट लाइट खोलने आया तो 40-50 मीटर यूँ ही टहलते हुए निकल पड़ा। शाम के हल्के धुंधलके में एक खंडहर में दो मानव आकृतियां सी बैठी दिखाई दी। उत्सुकतावश पूछने चला गया तो पता चला कि दो नेपाली मजदूर( प्रेम बहादुर 34 वर्ष और गोरख बहादुर 64 वर्ष) जो 31 मार्च को एक दिन के लिए उत्तराखंड में यातायात चलने की उम्मीद में सीतापुर गौरीकुंड से अगस्त्यमुनि तक पैदल आ पहुंचे थे। उनकी स्थिति भांप कर मैं तुरंत उन्हें अपने साथ घर ले आया । सुबह दो-दो बासी रोटी खाकर पैदल चले दोनों मजदूरों के चेहरे पर भूख और थकान साफ झलक रही थी। शुरुआती चाय-पानी के बाद उनके लिए दाल-भात पकाते हुए मैंने बातचीत का सिलसिला शुरू कर दिया। तो पता चला कि अगस्त्यमुनि थाने में जांच-पड़ताल होने के पश्चात पुलिस द्वारा दोनों को एक स्थानीय नेपाली मजदूर के हवाले कर अपने डेरे पर आश्रय देने के लिए भेज दिया। उस वक़्त तो स्थानीय नेपाली मजदूर उन्हें अपने साथ ले आया लेकिन अपनी और अपने डेरे पर उसके खुद की रहने खाने की समस्या का हवाला देकर वो उस खंडहर में उन्हें बिठा कर चलता बना।
बातों बातों में ये भी पता चला कि ये दोनों लोग मूलतः यहां मजदूरी करने नहीं बल्कि ये लोग घर से भागे एक 24 वर्षीय लड़के की तलाश में पिछले एक महीने से भटक रहे हैं जो कि गोराखबहादुर का बेटा है। गोराखबहादुर जो कि पहले कभी इंडिया नहीं आया था अपने साथ अपने जानने वाले प्रेम बहादुर को साथ में मदद के लिए ले आया था क्योंकि प्रेमबहादुर काफी पहले एकाध बार इंडिया मजदूरी के लिए आया था। घर से भागे हुए बेटे जिसका कि कोई अता-पता या सम्पर्क नहीं था एक अंदाजे भर से ये लोग उसे गौरीकुंड और उसके आसपास ही तलाशने में जुटे हुए थे लेकिन किसी भी तरह उसका अता पता नहीं चल सका। बल्कि उल्टे इनके सारे पैसे खत्म भी हो गए।जिस कारण इन्हें मजदूरी करके अपना गुजारा भी करना पड़ा। लेकिन दुर्भाग्य यह कि न तो बेटे का कुछ पता चला न मजदूरी ही पूरी मिली बल्कि उल्टे लॉक डाउन में फंसे सो अलग। कहावत है कि समस्या कभी भी अकेले नहीं आती है बल्कि अपने पूरे कुनबे के साथ ही आती है। वही इनके साथ भी हुआ।
बहरहाल इनकी स्थिति को देखते हुए पूरे लॉक डाउन तक इनके रहने खाने की जिम्मेदारी का मैंने इन्हें पूरा भरोसा दिया तो इन्हें जरूर कुछ राहत मिली। दो दिन सब सामान्य रहा तीसरे दिन अचानक से प्रेम बहादुर (34 वर्ष) ने कहा कि मुझे बहुत जरूरी घर पहुंचना है चाहे मुझे पैदल ही क्यों न जाना पड़े। मेरे बहुत समझाने बुझाने के बाद भी जब वो नहीं माना तो वो अब अकेले पैदल चल पड़ा नेपाल के लिए। जबकि गोराखबहादुर (64 वर्ष) की उम्र और हालात को देखते हुए उसे समझाया तो वो अपनी असमर्थता जताते हुए रुक गया। लेकिन थोड़ी देर में देखता हूँ कि बुजुर्ग गोराखबहादुर एक कोने में सिर नीचे कर सुबक सुबक कर बेतहाशा रो रहा रहा। मैं कुछ हैरान सा घबराते हुए उसके पास गया और कारण पूछा लेकिन उसके गले से जैसे आवाज ही बाहर नहीं निकल पा रही थी । फिर भी किसी तरह दिलासा देते हुए मैंने कहा तो बोले कि अब तो मेरे पास कोई पैसे भी नहीं हैं भाड़े के लिए मैं अब कभी अपने घर नहीं जा पाऊंगा। सारे पैसे निकाल कर गिने तो मात्र 740 /- रुपए दोनों बहादुरों के हिसाब-किताब के बाद गोराखबहादुर के पास बचे थे। जबकि सामान्य किराया-भाड़ा ही 4-5 हजार रुपए हो जाता है गाँव पहुंचने तक।एक तो पैसा नहीं दूसरा साथी प्रेमबहादुर भी चला गया और तीसरा यह कि न तो बेटे का पता चला और न ही जब से ( लगभग डेढ़ माह हो चुके थे बेटे को ढूंढते हुए ) नेपाल से आये तब से घर भी सम्पर्क नहीं हुआ। इतना सब बहुत था किसी के लिए भी परदेस में निराश होने के लिए।
बहरहाल अब सारी स्थितियां साफ और स्पष्ट थी । हरेक व्यक्ति के मन के किसी कोने में बहुत सी वो ख्वाहिशें वो तमन्नाएं होती हैं जिसको करने की उसकी हमेशा इच्छा होती है लेकिन हालात या वक़्त की कमी के कारण वो पूरी नहीं हो पाती। मेरी भी रही हैं। जिन्हें इस लॉक डाउन के वक़्त ने फिर कुलबुलाने का मौका दिया। वक़्त भी भरपूर था और बेशक जरूरत भी हम दोनों ने मिलकर 9-10 छोटे बड़े खेत और क्यारियाँ आबाद कर दी जो लगभग 2-3 दशकों से वीरान पड़े थे । उनमें मूली ,अदरक ,हल्दी,बड़ी इलायची,भिंडी ,शिमला मिर्च,फ्रासबीन, कुछ जड़ी बूटी और फूल आदि भी लगा लिए। इसी बीच बहादुर की जेब से निकले कुछ कागज के टुकड़ों में नेपाल का कोई एक फोन न0 भी मिल गया जिसके मार्फ़त उसके घर सम्पर्क किया तो पता चला कि उसका घर से भागा हुआ बेटा अल्मोड़ा में कहीं था जो लॉक डाउन से पहले सुरक्षित घर पहुंच गया था । लगभग दो महीने के बाद घर पर बात होने और बेटे के घर पहुंचने की खुशी बहादुर के चेहरे पर साफ दिखाई दे रही थी। लम्बे समय से मुरझाए चेहरे पर यह चमक मुझे भी बहुत सुकून दे गई।
सिलसिला चलता रहा…….. लॉक डाउन समय दर समय अनिश्चित रूप से बढ़ता भी रहा।हम दोनों की जुगलबंदी बंजर पड़ चुके खेतों में अपने हाथों से कुछ इबारतें लिखते रही……… शुरुआती दौर में बोए गए बीज अंकुरित होकर आज फल फूल रहे हैं । वीरान पड़े खेत आज मुस्कुरा रहे हैं। बिल्कुल बहादुर के चेहरे की तरह। लेकिन आज पूरे दो महीने के साथ के बाद बहादुर अपने घर के लिए निकल पड़ा। इन दो महीनों में हम दोनों ने बहुत कुछ नया सृजन किया ।बहुत कुछ साथ जिया। साझा श्रम से इस धरती पर भी और अपने भीतर भी । जितना बाहर रोपा उससे कई ज्यादा अपने भीतर । बाहर कुछ बीज अंकुरित होकर फल फूल रहे हैं तो भीतर एक नया रिश्ता भी।एक अनाम सा रिश्ता।अभी कुछ दिनों से लगातार टी0वी0 चैनलों और सोशल मीडिया पर लगातार भारत और नेपाल के राजनीतिक सम्बन्धों पर कई तरह की खबरों को देख रहा था। समझने की कोशिश कर रहा था कि राजनीतिक सम्बन्ध महत्वपूर्ण हैं या मानवीय और आत्मीय सम्बन्ध ।
देशों के बीच सीमाएं जरूर हैं लेकिन इस अनाम से रिश्ते के बीच ऐसी कोई विभाजक रेखा एक पल को भी महसूस न हुई। कल सुबह से बहादुर के जाने की तैयारियों में जुटा हुआ था । सब कुछ वैसे ही जैसे हम अपने परिवार के किसी सदस्य की लंबी यात्रा की तैयारियों में जुटे रहते हैं । खर्चा-पानी रास्ते का खाना-पीना ,साग-समौण आदि सब कुछ…………..कल पैकिंग करते हुए बहादुर को मजाक में ही यूँ ही पूछ लिया……..कि अगर तुम्हें खर्चा-पानी न देते तो क्या करते तुम ??? तपाक से बोल पड़ा कि पैदल ही निकल जाता सोचता कि अपने बेटे के घर पर काम किया है …………ये शब्द अभी तक बार-बार मेरे कानों में गूंज रहे हैं इस अनाम से रिश्ते को शब्दों की तलाश में।
बहुत बहुत शुक्रिया बहादुर इस खूबसूरत से समय के लिए।
शुभ यात्रा । अपना ख्याल रखना।