जया पांडे
‘आइ गयो फाग सुनाओ रे मुरलिया’ से होली का आगाज हो जाता है। वैसे तो पौष मास से भी बैठी होली की शुरुआत होती है लेकिन कुमाऊं में महिलाओं की होली फाल्गुन शुक्ल पक्ष की एकादशी से शुरू होकर दंपति टीका तक चलती है। होलियों में मुख्यतः अधिकतर गीत कृष्ण और उसकी लीला से संबंधित है परंतु वन को चले दोनों भाई जैसे लंबे गीत राम कथा पर आधारित है उड़ी को अमीर गुलाल हिमालय डंडा लाल भयो केसर रंग की बहार हिमालय डंडा लाल भैया तथा शिव जी को ऊंचो कैलाश मेरा मन में बसों है जैसी कुमाऊनी होली भी है। ‘पुष्प काली सब फूलन लगे कोयल कूक सुनाए’।
महिलाओं को बेसब्री से इंतजार होता है होली का, हो भी क्यों न। ऐसा त्यौहार जो महिलाओं को बांधता नहीं है। वरना हर त्यौहार में वह घर की साफ सफाई और पकवान बनाने में जुटी रहती हैं। यह उन्हें घर से बाहर समूह में निकालता है। वह घर बार भूल नृत्य गायन में झूम जाती हैं। यह त्यौहार उनकी बंदिश है तोड़ता है उनको स्वतंत्रता से जोड़ता है। उनकी सारी कुंठा हंसी ठिठौली वह स्वांग से खत्म हो जाती हैं। हॉल बुक करने की भी आवश्यकता नहीं बैठक का सोफा बाहर कर दो और कालीन बढ़ा दो 50-60 महिलाएं आसानी से बैठ जाती हैं और झूम कर मस्ती के साथ समूह में गाती हैं। इतनी सहजता के कारण यह परंपरा बनी हुई है और तकनीकी युग में भी बनी हुई है। किसी के घर शुभ काम हुआ हो, विवाह हो, बच्चे का आगमन हो उस साल वह होली देता है और ज्यादा धूमधाम से होली का त्यौहार मनाता है। कैटरिंग का झंझट नहीं आलू के गुटके और गुजिया। अब थोड़ा बदलाव आ गया है और कहीं-कहीं पकौड़े और छोले आ गए हैं। कई घर पूरे खाने का बंदोबस्त करते हैं पर यह दिखावा ही लगता है वास्तव में होली का यह रंग मानव की मौलिक व जैविक संवेदनाओं से जुड़ा है समूह में नाचो गाओ और अपने को भूल जाओ इससे पूर्वाग्रह टूटते हैं।