कमला पंत
प्रेम चंद्र अग्रवाल जी की बदजबानी से पर्वतीय उत्तराखंडी काफी आहत और नाराज है, जो स्वाभाविक ही है। ये महाशय अपने को उत्तराखंड आंदोलनकारी होने का दावा भी करते हैं क्योंकि इनके पास भी कई अन्य फर्जी चिन्हित आंदोलनकारियों की तरह ही इसका सरकारी प्रमाण पत्र है। इनके लिए क्या मुश्किल ?
यह सब तो सही है परंतु यहां खास विचारणीय बात तो यह है कि ये महानुभाव अग्रवाल जी, क्या इस राज्य को एक पर्वतीय (पहाड़ी) राज्य मानते भी हैं या नहीं ?
ये महाशय तो मात्र संसदीय आचार व्यवहार को दिशा देने वाले केबिनेट मंत्री ही नहीं, बल्कि पहाड़ वासियों के प्रति घृणा भाव रखते हुए इस पर्वतीय राज्य के मैदानी मूल के एक वरिष्ठ भाजपा नेता और राज्य के वित्त मंत्री भी हैं।
इस सबके बाबजूद भी मेरा मानना है कि मात्र इसीलिए इन्हीं पर गुस्सा प्रदर्शित करने से कहीं ज्यादा जरूरी यह बात विचार करने की है कि यहां इस राज्य में कुकुरमुत्तों की तरह से इतने पुलकित, उमेश नुमा और ऐसे ही कितने चैम्पियन, यहां की राज्य व्यवस्था के चैम्पियन कैसे बने और कैसे ये बढ़ते ही जा रहे हैं ?
हमें इन जैसे नेताओं के निजी या राजनैतिक चरित्र की ही नहीं बल्कि राज्य गठन की सरकारी प्रकिया के शुरुआत से जो राजनैतिक खेल यहां पनपाया गया उसका व खुद हम,जो कि मुजफ्फर नगर कांड के अपमान को भूल गए हैं, इस का भी आत्म विश्लेषण करना चाहिए।
यह एक कड़वी सच्चाई है, हमारे वित्तमंत्री जी ही नहीं, यहां के शासक दलों और कई सत्तासीन नेताओं को तो इस राज्य का एक हिमालयी (पहाड़ी) राज्य होना भी मात्र इसलिए मानना पड़ता है ताकि केंद्रीय बजट से ज़्यादा पैसा झटका जा सके। इनके कई नेताओं को तो इसे पहाड़ी हिमालयी राज्य मानने से भी पेट दर्द होता है।
देवभूमि कहे जाने वाले इस पर्वतीय राज्य में, आज पार्टियों के हों या आंदोलनकारियों के बीच हों या समाज में,अपने निजी स्वार्थ में बिके हुए नेताओं की कहाँ कमी है ? इसीलिए विचारणीय यह भी है कि आख़िर क्यों वर्ष 1996 में राज्य गठन की घोषणा हो जाने के बाद भी इसके गठन करने में 5 साल लगा दिए गए ?
क्यों एक बार विधान सभा से पारित प्रस्ताव पर तब तत्काल कार्यवाही न करके, भाजपा की तब केंद्र सरकार के द्वारा उत्तर प्रदेश विधान सभा से दोबारा फिर से प्रस्ताव क्यों मांगा गया?
क्यों उत्तर प्रदेश की तत्कालीन विधान सभा में उत्तराखंड से चुने गए विधायकों ने भी उत्तराखंडियों की और राज्य आंदोलनकारियों की भावनाओं की जरा भी परवाह नहीं की ? दुबारा जो राज्य निर्माण का प्रस्ताव भेजा गया उसे क्यों 26 संशोधनों के साथ केंद्र सरकार को भेजा और क्यों तब ही जाकर कहीं उन उत्तराखंडी जन विरोधी प्रस्तावों के आधार पर हरिद्वार कुंभ क्षेत्र की जगह पूरे हरिद्वार जिले को ही (वहाँ की जनभावना की भी अनदेखी करते हुए) उत्तराखंड में क्यों मिलाया गया ?
आखिर क्यों स्थायी राजधानी विहीन एक ऐसे पहाड़ी राज्य का गठन किया गया जहाँ पहाड़ से पलायन और ज़्यादा बढ़े। जहाँ के जल, जंगल, ज़मीन की लूट और तेज हो। जहाँ के पानी से उत्पादित बिजली पर उसका अपना कोई अधिकार न हो। जहाँ के विकास का माप दंड केवल होटलों – रिजोर्टों, शराब, ड्रग्स और जमीन खरीद फरोख्त के व्यापार और मात्र शहरों का विकास ही हो। जहाँ विकास के नाम पर पाश्चात्य प्रभावित नगरीय संस्कृति व जमीनों की लूट के लिए नगरों की संख्या बढ़ाना और गांवों को विशेषकर पर्वतीय गांवों को बंजर करना ही सरकार का काम हो गया।
इसी सब के चलते ही तो अब पर्वतीय लोगों का अपने को पहाड़ी कहना और पहाड़ के हितों की बात करना भी कई नेताओं विशेषकर सत्तासीन नेताओं को नागवार लगता है और विभाजनकारी नजर आता है।
मुख्यत: भाजपा तो इसके लिए दोषी है ही, क्योंकि ऐसे राज्य की आधारशिला तो उन्होंने ही रखी, परंतु कांग्रेस हो या उक्रांद के वे नेता जिन्होंने भी सत्ता का स्वाद चखा और अपने ही निजी हितों को ही केंद्र में रखा, वे सब और बाक़ी सिर्फ़ सत्ता सुख या निजी हितों पर केंद्रित राजनीति करने वाले नेता गण भी इसके लिए बराबर के ही नही बल्कि ज्यादा दोषी हैं।
किसी प्रेमचंद्र को या ऋतु भूषण को दोष देने से ही नहीं बल्कि हम सभी को राज्य गठन से लेकर अब तक जारी राजनीति और राजनेताओं के व्यक्तिगत व राजनैतिक चरित्र के विश्लेषण के साथ-साथ ख़ुद अपना आत्म विश्लेषण करने की भी जरूरत है।