प्रमोद साह
कोयले के संकट का बहुत पुराना इतिहास रहा है। दुनिया में 1850 के बाद जब औद्योगिक क्रांति हुई तब से ही कोयला, उद्योग और अर्थव्यवस्था को संचालित करने वाला एक मुख्य कारक बना रहा है। भारत में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने सबसे पहले 1774 में दामोदर नदी के किनारे रानीगंज में कोयला खदान व्यावसायिक रूप से प्रारंभ किया लेकिन 100 सालों तक इसकी राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय मांग लगभग स्थिर रही। सन् 1850 के बाद रेल के विस्तार ने और भाप वाले रेल इंजन ने कोयले की खपत को अचानक बढ़ा दिया। औद्योगिकरण के प्रारंभ ने कोयले की खदानों में कब्जा की प्रतिस्पर्धा को बढ़ाया इस व्यवसाय में सामंतो का प्रवेश हुआ, खदानो में मजदूरों की अमानवीय जीवन दशा आदि ने 20वीं सदी में मजदूरों के संघर्ष और वर्ग संघर्ष की स्थिति को बहुत तेजी से बढ़ाया।
भारत की कोयला खदानों में अमानवीय प्रतिस्पर्धा और नियंत्रण ने भारत की समाज और राजनीतिक व्यवस्था को व्यापक रूप से प्रभावित किया। 20 वीं सदी का प्रारंभ भारत में एक मिलियन मीट्रिक टन कोयले के उत्पादन के साथ हुआ। प्रथम विश्व युद्ध के प्रारंभ में यह 19 मिलीयन मैट्रिक टन था। भारत की आजादी के समय कोएले का उत्पादन कुल 30 मिलीयन मेट्रिक टन ही था।
एक ओर जहां देश में विद्युतीकरण का विस्तार और तेज औद्योगिकरण के लिए कोयले के उत्पादन में व्यापक बढ़ोतरी आवश्यक थी तो वहीं दूसरी ओर कोयले के खदानों में व्यापारिक प्रतिस्पर्धा इतनी तंग थी कि यहां खदान मालिकों और मजदूरों का शोषण तो बढ़ रहा था ,लेकिन कोयले का उत्पादन आवश्यकता के अनुरूप नहीं बढ पा रहा था। ऊर्जा जरूरतों की आपूर्ति के लिए कोयला नवोदित राष्ट्र की एक प्रमुख चुनौती थी।
कोयला खदान जो कि मुख्य रूप से गोंडवाना लैंड जिसमें आज का झारखंड, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा का क्षेत्र शामिल है जो अधिकांश आदिवासी क्षेत्र है में ही फैला था। कोयला खदानों में राजनीतिक और व्यापारिक रुप से प्रभावशाली घरानों का कब्जा था, जबकि कोयला खनन और उत्पादन पर ही देश का औद्योगिक विकास और ऊर्जा जरूरतें निर्भर थी। इन दो विरोधाभासी लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए आजादी से ठीक पहले 1 जनवरी 1947 को देश में राष्ट्रीय कोयला बोर्ड का गठन किया गया, जिसके द्वारा देश की सभी कोयला खदानों के खान मालिकों को 1 अरब 64 करोड़ पौंड की राशि का भुगतान कर सरकार ने नियंत्रण प्राप्त कर लिया। कोयला खदानो के इस प्रारंभिक राष्ट्रीयकरण में कोयला खदान सरकार की हो गई मगर खनन का अधिकार निजी कंपनी और ठेकेदारों के पास ही बना रहा जिससे खदान समस्याओ का समाधान न के बराबर हुआ। देश की ऊर्जा जरूरतों की पूर्ति में भी कोई उल्लेखनीय वृद्धि नहीं देखी गई।
कोयला खदान में अमानवीय जीवन स्थिति ने भारत के मजदूर संघर्ष और मजबूत संगठनों की ताकत में भी वृद्धि की। अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की बढ़ती कीमतों, कोयला खदानों में मजदूरो की अमानवीय स्थिति, उत्पादन की आवश्यकता एकरूपता और नियंत्रण के लिए कोई राष्ट्रीय नियामक ना होने के कारण कोयला खदानों का राष्ट्रीयकरण किए जाने की मांग लगातार बढ़ रही थी। 1970 के आसपास जब तेल की बढ़ती कीमतों ने भारतीय अर्थव्यवस्था पर दबाव बनाया उस वक्त कम्युनिस्ट दलों के प्रभाव के कारण इंदिरा गांधी की कांग्रेस ने बैंकों के राष्ट्रीयकरण सहित तमाम समाजवादी कदमो को उठाना प्रारंभ किया था।
तब कोयले की खदानों के राष्ट्रीयकरण की परिस्थितियां भी बनना प्रारम्भ हो गई। 16 अक्टूबर 1971 को पहले 226 खदान जो कि कुकिंग क्षेत्र का कोयला उत्पादन करती थी, का राष्ट्रीयकरण किया गया। उसके बाद 1 जनवरी 1973 को 711 नॉन कुकिंग कोयला खदानों का भी राष्ट्रीयकरण कर दिया गया।
यह एक बड़ा कदम था। अब कोयला उत्पादन, नियंत्रण और ऊर्जा उत्पादन पर सरकार का पूरा दखल था। साथ ही इस क्षेत्र के सुधार की जिम्मेदारी भी सरकार के ऊपर आ गई थी। कोयला खदान, भंडारण और विपणन में एकरूपता लाने, अंतरराष्ट्रीय बाजारों के साथ कोयले की कीमतों के साथ समन्वय बैठाने तथा कोयला मजदूरों के कल्याण के उद्देश्य से नवंबर 1975 में कोल इंडिया लिमिटेड का गठन किया गया, जो आज तक भारत की ऊर्जा जरूरत का 90% से अधिक कोयले का उत्पादन, भंडारण और नियंत्रण करता है।
देश में अचानक चर्चित हो उठे कोयला संकट और ब्लैकआउट के खतरे के निम्न महत्वपूर्ण कारण हैं।
* भारत का विद्युत उत्पादन का 70 प्रतिशत आज भी कोयले अर्थात थर्मल पावर पर निर्भर है।
* यद्यपि भारत विश्व में चीन के बाद नंबर दो कोयला उत्पादक देश है उसके बाद भी हम अपने कोयला जरूरत का 28% विदेश से आयात करते हैं।
* अंतरराष्ट्रीय बाजार में पूरे विश्व में विद्युत खपत बढ़ने के कारण कोयले की कीमत में दो गुनी वृद्धि हो गई है जिस कारण अभी तक विश्व के खुले बाजार से कोयला मंगाने वाली राज्य सरकारें भी अब कोल इंडिया की तरफ देखने लगी हैं।
* 2020-21 में भारत में कोयले का उत्पादन 716 मिलियन मीट्रिक टन है लेकिन इस उत्पादन में गत वर्ष की तुलना में 2% की कमी दर्ज की गई है।
* अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमत बढ़ने से 25 हजार मेगावाट विद्युत उत्पादन जो पैट्रोलियम गैस से उत्पादित होते थे वह संयंत्र अब बंद हो गए हैं।
* इस वर्ष भारत में विद्युत की मांग 17 प्रतिवत बढ़ गई है जबकि कोयले का उत्पादन 2 प्रतिशत घटा है । थर्मल पावर पर वृद्धि के लिए अब आठ प्रतिशत का अतिरिक्त दबाव है।
* भारत के 135 थर्मल पावर प्लांट से 108 थर्मल पावर प्लांट क्रिटिकल स्टेज में है जहां 7 दिन तक का भी कोयला शेष नहीं है। इनमें से 70 प्लांट सुपर क्रिटिकल स्टैज यानी 4 दिन भंडारण की समय सीमा में पहुंच गए हैं।
* इस विद्युत संकट से प्राइवेट प्लेयर के दिन उबरने के संकेत हैं जिस कारण इन के शेयर में 180% की वृद्धि दर्ज की गई है।
उम्मीद है कोयले की कमी से ताजा ऊर्जा संकट गंभीर नहीं होगा। सरकार समय रहते इससे निपट लेगी और ब्लैकआउट जैसी तमाम आशंकाएं निर्मूल साबित होंगी..