भूपेन सिंह
कल शाम पिथौरागढ़ से एक पत्रकार दोस्त ने बताया कि देवलथल के अटल उत्कृष्ट स्कूल में इंटरमीडिएट की एक लड़की ने कम्पार्टमेंट आने से ख़ुदक़ुशी कर ली. लड़की हाइस्कूल में अच्छे मार्क्स के साथ पास हुई. पढ़ने-लिखने में अच्छी थी. लेकिन इंटर में अचानकर हिंदी से अंग्रेजी मीडियम में एडजस्ट नहीं कर पायी.
ये घटना हमारी राजनीति और शिक्षा के विरूपित रिश्तों पर गंभीरता से विचार करने को विवश करती है. अगर कोई शिक्षा हमारे बच्चों की जान ले रही है तो इसे किसी हालत में मंज़ूर नहीं किया जाना चाहिए.
उत्तराखंड सरकार ने कुछ स्कूलों को विशेष दर्जा देकर उन्हें उत्तराखंड बोर्ड की बजाय सीबीएसई से संबंद्ध किया है. पहली बात तो कुछ ही स्कूलों को विशेष दर्जा क्यों? क्या सभी स्कूलों की शिक्षा व्यवस्था अच्छी हो ये सरकार की ज़िम्मेदारी नहीं? दूसरा, उत्कृष्ट नाम देने के बाद क्या आपने स्कूलों में उस तरह का इंफ्रास्ट्रक्चर भी विकसित करने की कोशिश की? सिलेबस को पढ़ा सकने के लिए शिक्षकों की ट्रेनिंग और बाक़ी सुविधाएं भी मुहैया करायीं?
अटल स्कूल की सनक फेल हो चुकी है. आधे विद्यार्थी इंटरमीडिएट में फेल हो चुके हैं.
सरकारी ऑर्डर निकला है कि जिन विषयों का रिजल्ट अच्छा नहीं उन शिक्षकों पर कार्रवाई होगी. ऐसे स्कूलों की गर्मी की छुट्टियां भी कैंसल कर दी गई हैं. लेकिन अपना दोष दूसरे पर डालने से ज़्यादा कुछ नहीं होगा.
जिस लड़की ने ख़ुदक़ुशी की है अगर उसे हिंदी मीडियम में ही परीक्षा देने की सुविधा होती तो शायद उसे जान न गंवानी पड़ती. इसका मतलब ये बिल्कुल नहीं कि मैं हिंदी माध्यम से शिक्षा दिये जाने का पक्षधर हूं. हां, सबको समान शिक्षा मिलनी चाहिए इस पर मेरा ज़ोर है. किसी को मज़बूर नहीं किया जाना चाहिए.
अगर आप बच्चों को शुरू से ही अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा दे रहे होते तो उन्हें इस तरह के शॉक से नहीं गुज़रना पड़ता. आज हर क्षेत्र में अंग्रेजी हावी है. आप ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में कुछ नया करना चाहते हैं तो अंग्रेजी जाने बिना मुक्ति नहीं है. इसे आप कॉलोनियल लीगेसी कहिए ये ग्लोबलाइज़ेशन का असर हमारे समाज की हक़ीक़त यही है.
ऐसा नहीं चलेगा कि शहरी मध्यवर्ग अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में अंग्रेजी में दीक्षित करवाये और ग़रीब ग्रामीण बच्चे हिंदी मीडियम का दाग़ लेकर उनसे प्रतिस्पर्धा करें. देसी भाषा में ही शिक्षा दिलवानी है तो हर तरह के प्राइवेट स्कूलों को भी उसमें शिक्षा देने का नियम बनाइये. निजीकरण के दौर में ऐसी अपेक्षा करना थोड़ा बेवक़ूफाना लग सकता है लेकिन सार्वजनिक शिक्षा को बदनाम कर निजी स्कूलों को प्रमोट करने को स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए.
क़िताबी ज्ञानी अक्सर दुनियाभर के शोधों का हवाला देते हुए नज़र आते हैं कि सबसे बेहतर प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में ही संभव है. मान लेते हैं भाई. लेकिन क्यों शिक्षा की राजनीति की अनदेखी करते हो. सबको दिलवाओ न मातृभाषा में शिक्षा. मातृभाषा से इतना ही प्यार है तो उसमें अंतराष्ट्रीय स्तर का ज्ञान उत्पादन करने से कौन रोक रहा है (कोई तो रोकता है)?
पूरे देश की तरह उत्तराखंड में भी सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था बुरे दौर से गुज़र रही है. हाइस्कूल-इंटरमीडिएट में विद्यार्थियों को 99 प्रतिशत तक मार्क्स दिये जा रहे हैं. क्या इतने मार्क्स लेने वाले उस विषय का 99 प्रतिशत जानकार हो जाता है? परीक्षा के बेहूदा पैटर्न पर भी सवाल उठाने की ज़रूरत है. बच्चों से नितांत ऑब्जेक्टिविटी की मांग करते हुए बहुविकल्पीय प्रश्न पूछने के बजाय उनसे विषय की समझदारी से संबंधित आत्मगत (सब्जेक्टिव) सवाल भी पूछे जाने चाहिए. जिससे ये समझ आये कि छात्रा ने विषय को कितनी गहराई से आत्मसात किया है.
कई बार हैरान हो जाता हूं कि मेरे राज्य में शिक्षा व्यवस्था सुगम और दुर्गम में विभाजित है. यानी जो इलाक़े हर तरह की सुविधाओं से वंचित हैं उन्हें दुर्गम में रखा गया है जबकि जहां सुविधाएं ज्यादा हैं उन्हें सुगम में रखा गया है. ज़्यादातर पूरा पहाड़ दुर्गम में है और मैदानी इलाक़े सुगम में. शिक्षकों में सुगम में आने की होड़ है. दुर्गम की पोस्टिंग को पनिशमेंट पोस्टिंग माना जाता है. सरकारी नियम के मुताबिक़ शिक्षकों को कुछ वक़्त दुर्गम में बिताना ज़रूरी है. लेकिन पहुंच वाले लोग हमेशा सुगम मे जमे रहते हैं.
सुगम-दुर्गम के मामले को हल्के में बिल्कुल नहीं लिया जाना चाहिए. इस तरह की शब्दावली और नियमावली इस बात का प्रतीक है कि जिस सरकार की ज़िम्मेदारी पूरे राज्य में जीवन स्तर को सुधारना था उसने भी मान लिया कि अधिकर पहाड़ी इलाक़े पिछड़े हैं-दुर्गम हैं. अरे भाई एक पर्वतीय राज्य में सुगम-दुर्गम का भेद नहीं मिटा सके तो तुम सरकार में बैठकर कर क्या रहे हो? माणा को पहला गांव जरूर बनाओ लेकिन वहां देहरादून जैसी सुविधाएं भी तो दो. वरना पहला और अंतिम के जुमले में कुछ नहीं रखा.
पिथौरागढ़ ज़िला मुख्यालय से बीस-पच्चीस किलोमीटर दूर देवलथल भी दुर्गम में आता है. लेकिन वहां मध्यवर्गीय शिक्षकों के बच्चों के पढ़ने के लिए प्राइवेट स्कूल नहीं है. दो-चार को छोड़कर सारे शिक्षक उस कस्बे में नहीं रहते. शिक्षक जब इस तरह के कस्बों में रहते हैं तो पूरे समाज में एक दीर्घकालिक सांस्कृतिक असर पड़ता है. लेकिन विडंबना यही है कि तरह-तरह की स्थितियों के चलते वे स्थानीय जीवन का हिस्सा नहीं बन पाते. सभी पहाड़ी ज़िला मुख्यालयों में या फिर देहरादून-हल्द्वानी में रहना चाहते हैं. इन हालात के लिए सिर्फ़ शिक्षकों को दोष देना ठीक नहीं. अगर हमने अपने भूगोल में इतनी असमानताएं नहीं बनायी होती तो वे ज़रूर देवलथल जैसे इलाक़ों में रहना चाहते.
एक होनहार छात्रा की मौत बार-बार मुझे डिस्टर्ब कर रही है. क्या हमारा समाज इस ख़ूनी शिक्षा व्यवस्था पर विचार करेगा? क्या हम अपनी शिक्षा व्यवस्था को सही करने के लिए सचमुच में कोई गंभीर प्रयास करेंगे. हमें याद रखना पड़ेगा कि शिक्षा का सवाल हमारी राजनीतिक-आर्थिक नीतियों का ही प्रतिबिंब है. जब तक पहाड़ों को दुर्गम बनाया जाता रहेगा तब तक सत्ता के विचार पुरुष के नाम पर पहाड़ों में स्कूलों का नाम बदलना एक छल से ज्यादा कुछ नहीं. नीति-निर्माता लंगूर की तरह उछल-कूद मचाते हुए हमारी शिक्षा व्यवस्था से खिलवाड़ करते रहेंगे और हम अपने नौजवानों को मौत के मुंह मे जाता देखते रहेंगे.
अंत में एक बात और, एक बाबू ने ऑर्डर निकाला है कि शिक्षकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार नहीं है. अरे बाबू साहेब, लोकतंत्र में एक शिक्षक और बाबू के काम में फ़र्क होता है. शिक्षक के पास अगर चिंतन और अभिव्यक्ति की आज़ादी नहीं होगी तो उस समाज का बजरंगबली ही मालिक है!