उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौरान हुए खटीमा गोली कांड के बाद छपी यह रिपोर्ट ‘नैनीताल समाचार’ के 15-30 सितम्बर के अंक में प्रकाशित हुई थी। इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना की 25वीं बरसी पर आज इसे एक बार पुनः प्रकाशित किया जा रहा है।
अगस्त माह के जबर्दस्त जन-उभार के बाद उ. प्र. शासन ने आंदोलन को तोड़ने के लिये नई चाल चली-आंतक फैलाने की। इस योजना के तहत 1 सितम्बर को खटीमा में तथा 2 सितम्बर को मसूरी में निहत्थे प्रदर्शनकारियों पर अकारण गोली चलाकर भाीषण नरसंहार किया गया। यदि प्रशासन के आँकडे दें तो खटीमा में 3 लोग मरे तथा 29 घायल हुए। मसूरी में 4 लोगों के मरने की तथा 36 के घायल होने की बात प्रशासन ने स्वीकारी है। सरकारी आँकडे़ कोई मानने को तैयार नहीं हैं। खटीमा में तो बिल्कुल ही नहीं।
उत्तराखण्ड आन्दोलन के सिलसिले में खटीमा के नागरिकों में भी काफी आक्रोश था। छात्र तो अनेक बार प्रदर्शन कर चुके थे। किन्तु अगस्त अन्त में एक दैनिक समाचार पत्र में छपे सपा-बसपा के हथियारबन्द गिरोह की तस्वीर ने लोगों को खास तौर से उत्तेजित किया। यह सोचा गया कि इस गुंडा-गर्दी तथा आरक्षण नीति पर विरोध करते हुए जलूस निकाला जाये। खटीमा के आसपास भारी संख्या में सेवानिवृत्त सैनिक रहते हैं। उन्होंने आन्दोलन का नेतृत्व सम्भाला और प्रशासनिक अधिकारियों से बात कर जलूस निकालने की अनुमति ली। छात्रों से इन पूर्व सैनिकों ने वचन लिया कि वे किसी तरह का उच्छृखल व्यवहार नहीं करेंगे।
1 सितम्बर को दस हजार से अधिक लोग, जिनमें समीपवर्ती गाँवों के लोग काफी संख्या में थे, दिन में 11 बजे से थोड़ा पहले खटीमा सितारगंज रोड के बस स्टेशन से पूर्व सैनिकों के नेतृत्व में लोग जलूस के रुप में तहसील की ओर चले! जलूस में पूर्व सैनिकों, छात्रों के साथ महिलायें थी। जलूस उग्र नारों के अतिरिक्त एकदम निहत्था था। महिलाओं के जलूस में होने से ही यह साबित होता है कि जलूस में किसी की नीयत हिंसा करने की नहीं थी।
अपने प्रदर्शन के रास्ते में जुलूस दो बार थाने के बगल से गुजरा। पहली बार सब कुछ ठीक ठाक रहा। जहाँ कहीं भीड़ अनियंत्रित होती दिखाई दी, पूर्व सैनिक कोशिश करके उसे रास्ते पर लाये।
दूसरी बार आधा जुलूस थाने से आगे निकल चुका था और उसका एक सिरा तहसील तक पहुंच चुका था, कि तभी थाने के अन्दर से पहले भीड़ पर पथराव किया गया तथा फिर बिना पूर्व चेतावनी के गोली चला दी गई। भीड़ में भगदड़ मच गई। लोग एक-दूसरे पर गिरते-पड़ते भागते रहे और पीछे से पुलिस गोली चलाती रही। डेढ़ घंटे तक पुलिस का तांडव चला।
पुलिस प्रशासन का कहना है कि पहले भीड़ सके पुलिस पर गोली चलाने से यह कांड हुआ। नैनीताल बार ऐसोसिएशन के एक तथ्यान्वेषी दल ने खटीमा क्षेत्र का एक व्यापक दौरा करने के बाद पाया के यह कार्यवाही इकतरफा थी। नागरिकों की ओर से किसी तरह की कोई हिंसा नहीं हुई। दिन में 11 बजकर 20 मिनट से 12 बजकर 48 मिनट तक पुलिस द्वारा भीड़ पर अकारण धुआँधार गोली चलायी गयी। छिटपुट गोलीबारी तीसरे पहर 2.30 तक होती रही। तहसील में वकीलों के झाले और सामने के तीन फड़ पुलिस वालों ने जला दिये। घटना के पाँच दिन बाद तक पुलिस रात को घरों में घुस कर लोगों को थाने में ले जाती रही तथा मारपीट कर छोड़ती रही। जनता को आतंकित कर उनका मनोबल तोड़ने की कोई कोशिश प्रशासन ने नहीं छोड़ी। मगर अब अपने कुकर्मों से स्वयं पुलिस इतनी आतंकित है कि अनेक गाँवों में जाने की हिम्मत उसमें नहीं है। प्रशासन रेवेन्यू पुलिस के माध्यम से काम कर रहा है।
तथ्यान्वेषी दल का मानना है कि कम से कम 6 लोग और ऐसे हैं, जो मारे गये हैं। 15 केसों के बारे में विस्तार से जाँच करने के बाद ही कुछ कहा जा सकेगा। कई लोग गोली लगने के बाद भी घरों में इलाज करा रहे हैं। ये घायल अपना नाम भी नहीं बताना चाहते, क्योंकि उन्हें पुलिस रिकार्ड में आ जाने का भय है।
पूर्व सैनिक इतने गुस्से में हैं कि कहते हैं, यदि पुलिस को बंदूकों से लड़ना था तो हमें पहले से बतलाती। बहरहाल लगभग दो सप्ताह के क्फ्र्यू खौफ से अब नेपाल की सीमा से लगा नैनीताल जनपद का यह अज्ञात सा नगर उबर रहा है। सबसे बड़ी बात मुलायम सरकार से जूझने के लोगों के हौंसले में कोई कमी नहीं आई है।
मगर न खटीमा के और न मसूरी के मृतकों के परिवारों तथा घायलों को कोई मुआवजा देने तथा न इन कांड़ों की कोई जाँच कराने से मुलायम सिंह सरकार ने यह दिखा दिया है कि उत्तराखण्ड को लेकर उसका सोच क्या है ?