राजीव लोचन साह
अठारहवीं लोकसभा के चुनाव के लिये मतदान के दो चरण पूरे हो गये हैं। 190 संसदीय क्षेत्रों के लिये प्रत्याशियों का भाग्य इलैक्ट्रिक वोटिंग मशीनों में कैद हो गया है, जो अब चार जून को ही खुलेगा। दो चरणों का चुनाव सम्पन्न हो जाने के बाद भी स्थितियाँ कुछ स्पष्ट नहीं हैं, क्योंकि मतदान कर चुकने के बाद भी मतदाता इस बार अपनी पसन्द-नापसन्द खुल कर नहीं बता रहे हैं। मतदान का प्रतिशत इस बार वर्ष 2019 की तुलना में कम होने से परस्पर विरोधी अनुमान लगाये जा रहे हैं। सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी कह रही है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की जीत को सुनिश्चित मान कर कांग्रेस का मतदाता इस बार वोट देने घर से बाहर ही नहीं निकला। दूसरी ओर कांग्रेस और इंडिया गठबंधन के लोग कह रहे हैं कि पिछली बार जिन मतदाताओं ने भाजपा पर विश्वास कर उसे भारी बहुमत दिया था, अब उनका मोहभंग हो गया है। इसलिये कम मतदान का नुकसान भाजपा को है। वे नरेन्द्र मोदी के हिन्दू-मुस्लिम, महिलाओं के मंगलसूत्र छीनने जैसे आपत्तिजनक बयानों का उदाहरण देते हुए दावा कर रहे हैं कि चुनावों में अपनी हार को प्रत्यक्ष देखते हुए मोदी अपने चुनावी भाषणों में इतने घटियापन पर उतर आये हैं। चुनावों के दौरान ऐसे कयास लगाना स्वाभाविक है। मगर इस बार चिन्ताजनक बात यह हुई है कि चुनाव आयोग इतना हतप्रभ है कि अपनी शक्तियों का उपयोग कर समाज को बाँटने वाले ऐसे साम्प्रदायिक बयानों को रोकने की कोशिश ही नहीं कर रहा है। जबकि पिछली बार ऐसे ही एक मौके पर उसने उ.प्र. के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के चुनाव प्रचार करने पर तीन दिन का प्रतिबंध लगा दिया था। इस बार आयोग सत्ताधारी भाजपा से बहुत अधिक आतंकित लग रहा है। एक और तथ्य ध्यान देने योग्य है कि जहाँ इंडिया गठबंधन की पार्टियाँ गरीबी, महंगाई, बेरोजगारी, सामाजिक न्याय आदि मुद्दों पर मतदाताओं का ध्यान आकर्षित कर रही हैं, सत्ताधारी भाजपा का चुनाव प्रचार धार्मिक ध्रुवीकरण पर ही केन्द्रित है।