राजीव लोचन साह
कश्मीर घाटी को कैद में गये हुए दो माह होने को हैं, मगर देश की सामूहिक चेतना में वह बेचैनी बहुत कम देखने को आ रही है, जो किसी संवदेनशील समाज में होनी चाहिये। एक निरपराध व्यक्ति को हिरासत में ले लिये जाने पर लोगों की सहानुभूति जगने लगती है। मगर यहाँ देश का एक हिस्सा कैदियों जैसी बन्दिश झेल रहा है और उसके प्रति सहानुभूति नाममात्र की है। कुछ चुनिन्दा लोग ही चिन्तित दिखाई दे रहे हैं और उनको देशद्रोही घोषित करने की होड़ मची है। मुख्यधारा के राजनैतिक दल कश्मीरियों से सहानुभूति का सिर्फ नाटक कर रहे हैं। कमर कस कर कश्मीरी अवाम के साथ खड़े होने की न तो उनमें इच्छाशक्ति दिखाई दे रही है और न साहस। चिन्ताजनक बात यह है कि उत्तराखण्ड में भी ऐसी राय देने वालों की कमी नहीं है कि कश्मीर के मामले में सोच समझ कर मुँह खोलना चाहिये। बेबाक ढंग से अपनी राय रखेंगे तो लोगों को अपने से दूर कर लेंगे, क्योंकि कश्मीर में जो कुछ हो रहा है, जनसामान्य उसे सही मान रहा है। यह अजीब तर्क है। एक गैरजिम्मेदार मीडिया यदि जनता को गुमराह कर रहा है तो जो लोग सच्चाई को जानते हैं, वे भी अपने होंठ सी लें! उस उत्तराखंड के भीतर से ऐसी आवाज आना निश्चित रूप से चिन्ताजनक है, जो वर्ष 1994 के राज्य आन्दोलन के दौरान मुजफ्फरनगर कांड जैसे वीभत्स अनुभव से गुजरा था और 2 अक्टूबर 1994 के बाद अकेलेपन के संत्रास से जूझा था, जब मुलायम सिंह के अत्याचार से कराह रहे उत्तराखंडियों का साथ देने के लिये न कांग्रेस खड़ी हुई और न ही भाजपा। तब सामान्य उत्तराखंडी पूछता था कि क्या देश में उसका कोई पुरसाहाल नहीं ? क्या सारे देश ने हमें ठुकरा दिया है, अपने से अलग कर दिया है ? यदि कश्मीर से धारा 370 हटाना सही भी है, तो इसके लिये एक आम कश्मीरी को इस तरह दंडित करना कैसे जायज हो सकता है कि न वह बाजार जा सके, न अपने दोस्त-रिश्तेदारों से फोन पर बात कर सके और न अपने बच्चों को स्कूल भेज सके?
राजीव लोचन साह 15 अगस्त 1977 को हरीश पन्त और पवन राकेश के साथ ‘नैनीताल समाचार’ का प्रकाशन शुरू करने के बाद 42 साल से अनवरत् उसका सम्पादन कर रहे हैं। इतने ही लम्बे समय से उत्तराखंड के जनान्दोलनों में भी सक्रिय हैं।