देवेश जोशी
भारतीय धर्म-अध्यात्म को सर्वाधिक प्रभावित करने वाले पाँच प्रकाशस्तम्भों के नाम पूछे जाएं तो मैं कालक्रम से कृष्ण, बुद्ध, पतंजलि, शंकर और गोरख का नाम लूंगा। इनमें से शंकर और गोरख नवीनतम हैं। शंकर अर्थात आदिगुरु शंकराचार्य जिनका नाम आगे चलकर श्रेष्ठ धार्मिक पद भी बन गया। सर्वविदित है कि उनका जन्म केरल के कालड़ी गाँव में नंबूदरी ब्राह्मण परिवार में हुआ था और 32 वर्ष की अल्पायु में उन्होंने उत्तराखण्ड स्थित केदारनाथ धाम में देह त्यागी थी। शंकराचार्य द्वारा भारत के चार छोरों पर चार मठ-पीठ स्थापित करने का तथ्य भी सर्वविदित है। पर आदिगुरू शंकराचार्य का जीवन और दर्शन इतना भर ही नहीं है। इस दौर में जन्मे किसी भी संवेदनशील व्यक्ति की सहज जिज्ञासा होती है कि हम तो एक छोटे से प्रदेश के चार छोरों को भी कभी छू नहीं सके तो फिर आठवीं सदी (कुछ विद्वान ईशा पूर्व भी मानते हैं) में आवागमन के साधनों के अभाव के बावजूद शंकर नाम का एक सन्यासी कैसे इतने बड़े भूभाग में पदयात्रा कर गया? कैसे आठ साल की छोटी सी अवस्था में वो बालक गंभीर धर्मशास्त्र का अध्ययन कर गया? कैसे 16 साल की अवस्था में वो महत्वपूर्ण धर्मग्रंथों पर विद्वतापूर्ण भाष्य लिख गया? कैसे वो वयोवृद्ध और ज्ञानवृद्धों को अपने विलक्षण तर्कों से शास्त्रार्थ में पराजित करता चला गया? कैसे वो राज्याश्रय प्राप्त धर्म और उसके लाखों अनुयायियों से बौद्धिक स्तर पर लड़कर प्राचीन सनातन धर्म की पुनर्स्थापना की सशक्त नींव रख सका?
इन सब सवालों ने कथाकार मुकेश नौटियाल को भी उद्वेलित किया। चार धाम यात्रा पथ पर स्थित उनका गांव भी है जहाँ बचपन में तीर्थयात्रियों को देखने ने भी उत्प्रेरक का काम किया। इस सम्मिलित प्रभाव ने मुकेश नौटियाल को केरल और अन्य दक्षिण भारतीय राज्यों की यात्रा करने के लिए भी प्रेरित किया। इस सबके फलस्वरूप लेखक की एक कथेतर कृति सामने आयी, कालड़ी से केदार नाम से। 22 सितम्बर 2019 को इस कृति का विमोचन दून यूनिवर्सिटी के ऑडिटोरियम में सम्पन्न हुआ। अक्सर ऐसा होता है कि किसी पुस्तक को पढ़ते हुए मैं तत्काल प्रतिक्रिया देने के लिए व्यग्र हो जाता हूँ पर इस किताब ने और अधिक अध्ययन-चिंतन के लिए प्रेरित किया। और यही इसकी सफलता का पहला लक्षण भी है। कालड़ी से केदार 22 अध्यायों में बुनी गयी है और इनमें चिंतन, यात्रा, कहानी, संस्मरण का ताना-बाना है। प्रवाह निरंतर है और अनुभवों को विचार-बिंदुओं के साथ कुशलता से पिरोया गया है।
लेखक ने इस सच्चाई को उद्घाटित किया है कि शंकर अगर यहाँ न आए होते तो उत्तराखण्ड का यह पहाड़ी क्षेत्र विश्व-मानचित्र पर उस रूप में शायद दर्ज़ न होता जिस रूप में आज यह दर्ज़ है। अपनी बात को उन्होंने प्रसिद्ध वामपंथी कथाकार विद्यासागर नौटियाल के कथन से भी पुष्ट किया है। लेखक की यह टिप्पणी भी महत्वपूर्ण है कि उत्तराखंड का पहाड़ी समाज भले अपने पर्वत-प्रान्त में आबाद रहा हो लेकिन उसके हित बारह सौ सालों से देश और दुनिया से आने वाले तीर्थयात्रियों से भी सीधे जुड़े रहे हैं। इस पर मुझे केदारघाटी में सुनी हुई एक लोकोक्ति याद आ रही है – गोतरू मरो पर जातरू न मरो अर्थात गोत्र का कोई भले मर जाए पर हे ईश्वर जिस तीर्थयात्री से मैं सम्बद्ध हूँ वो कभी न मरे।
तथ्य,अवधारणा, विन्यास, वर्तनी की कुछ त्रुटियाँ भी हैं जिनकी ये समझकर उपेक्षा की जा सकती है कि ये किताब तो आध्यात्मिक भोजन से पूर्व एक स्टार्टर है जो धर्म-संस्कृति के प्रति आपकी भूख को बढाती है। एक तथ्य का तो जिक़्र भी करना चाहूंगा और वो है गोरख का शंकर से पहले आगमन। लगभग इस सर्वसम्मति के बावजूद कि गोरख, कबीर के समकालीन थे।
मुझे ये भी लगता है कि किताब में दो किताबों की गुंजाइश थी एक शंकर-केन्द्रित और दूसरी दक्षिण भारत यात्रा केंद्रित। शंकर-केन्द्रित किताब में ही शंकर की भौगोलिक यात्रा (जो उत्तर में कश्मीर तक थी और आज भी श्रीनगर में शंकराचार्य मंदिर जिसकी पताका फहरा रहा है) के साथ दर्शन विकास यात्रा (अद्वैत का प्रतिपादन), बौद्धिक यात्रा (अवैदिक शैवों को वैदिक धारा की ओर मोड़ना), तंत्र से ज्ञान की ओर की यात्रा, सांस्कृतिक यात्रा (दक्षिण से उत्तर को जोड़ना जो कि पूर्व में मात्र अगस्त्य ऋषि कर पाए) और धर्म को राज्याश्रय से ज्ञानाश्रय की ओर दिगदर्शित करने की यात्रा को भी शामिल होना था। दूसरी किताब में शंकराचार्य स्थापित चारों पीठों की यात्राएँ सम्मिलित होनी थी। पर जैसा पहले कह चुका हूँ इस किताब को स्टार्टर के रूप में लिया जाना चाहिए। और अपने मन में दबी-छिपी आध्यात्मिक जिझासाओं का शमन कर विस्तृत समझ विकसित करने के लिए प्रेरित होना चाहिए।
कालड़ी से केदार सर्वथा पठनीय है। पैसा-वसूल। उनके लिए भी जो धर्म-अध्यात्म को साधु-सन्यासियों का विषय मानकर छोड़ देते हैं या जो अंधभक्तों का विषय मानकर परिहास करते हैं। ऐसे सभी लोगों को समझना चाहिए कि शंकराचार्य एक प्रगतिशील संत थे जिन्होंने न सिर्फ़ रूढ़ियों को तोड़ा बल्कि उस दौर में एक चांडाल को सार्वजनिक रूप से अपना गुरू भी घोषित किया।
कालड़ी से केदार का समय साक्ष्य देहरादून से प्रकाशित संस्करण मात्र 150 रुपए में प्रकाशक के पास और ऑनलाइन (अमेजाॅन पर) उपलब्ध है।