चारु तिवारी
ततुक नी लगा उदेख, घुनन मुनई न टेक,
जैंता एक दिन तो आलो दिन य दुनि में।
उनके गीतों में एक नई सुबह की उम्मीद के साथ निराशा से बाहर निकलने की चेतना है। इतिहास के अनुभवों, वर्तमान के संघर्षों और सुखद भविष्य की परिकल्पना की यह उम्मीद वे कई पीढ़ि़यों में देखते हैं। एक व्यक्ति, समाज या समय में नहीं, बल्कि तब तक लड़़ने का आह्वान करते हैं जब तक कि एक बेहतर समाज का निर्माण न हो। वह भरोसा दिलाते हैं कि वह दिन जरूर आयेगा जिस दिन किसी की तानाशाही नहीं चलेगी, बेईमानी नहीं रहेगी। जाति-पाति और छोटे-बड़े़ का सवाल नहीं रहेगा, उस दिन की उम्मीद है। वह कहते हैं कि यह दिन आयेगा। उसे चाहे हम न ला सकें, तुम न ला सको, लेकिन हमारी नई पीढ़ी जरूर लायेगी। इस बड़ी उम्मीद को जगाने वाले गिरीश तिवाड़ी ‘गिर्दा’ ने पूरे जीवन भर आशाओं की इस ज्योति का जलाए रखा। आज उनके न रहने पर भी उनके गीत गाये जा रहे हैं। प्रासंगिक बने हैं। उम्मीद जगा रहे हैं। संघर्ष के लिए प्रेरित कर रहे हैं। ‘गिर्दा’ कहते थे कि हम नहीं होंगे, फिर भी हम होंगे। अब वे और ज्यादा हमारे बीच में हैं बड़ी मशाल लिए, प्रतिकार की प्रेरणा के साथ। ऐसे समय में वह और अधिक आसपास दिखाई दे रहे हैं, जब लूट और गैरबराबरी अपने पांव पसार रही है। ‘गिर्दा’ कह रहे हैं- ‘बब्बा’ उठो लड़ाई जारी है। जारी रहेगी जीतने तक। आज ‘गिर्दा’ की पुण्यतिथि है। सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना और मानवीय संवेदनाओं के जनकवि को विनम्र श्रद्धांजलि।
गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’ को याद करने के मतलब है, उस सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना को याद करना जो आमजन की तकलीफों को अपनी आवाज देती है। ‘गिर्दा’ ने जीवन पर्यन्त एक रचनाकार, आंदोलनकारी, रंगकर्मी और संवेदनशील इंसान के रूप में लोगों के दिल में अपनी जगह बनाई। एक रचनाकार को लोग इतना प्यार भी तभी करते हैं, जब उसमें लोगों के अन्तर्मन को छूने की गहरी संवेदना हो। वह लोगों से उतना ही प्यार करता हो जितना उसकी रचनाओं में हम देखते हैं। इस लिहाज से ‘गिर्दा’ का कोई सानी नहीं। वे किसी खास भूगोल या समाज के प्रतिनिधि नहीं हैं, बल्कि अपने आसपास की चीजों को इतने गहरे तक छूते हैं कि वह सर्वव्यापी बन जाता है। सबको वह अपनी लगने लगती है। यही वजह है कि उनकी स्वीकार्यता पहाड़ से बाहर भी उतनी ही है। आंदोलनों से ही उनकी चेतना का विकास हुआ। आंदोलनों से ही उन्होंने अपनी रचनाओं के कथ्य उठाये। स्वाभाविक रूप से उनके आंदोलनों में शामिल होने का सिलसिला भी अपनी जमीन से ही शुरू हुआ। बाद में उनकी चेतना ने जो आकार लिया वह एक लंबी रचना-यात्रा का हिस्सा बना।
‘गिर्दा’ के गीतों में जनसरोकार एक तरह से प्रकृति प्रदत्त है। उनमें गीतों में बगावत और धारा से हटकर कहने और रचने का गुण बचपन से ही आने लगा था। ‘गिर्दा’ का जन्म अल्मोड़ा जनपद के ज्योली गांव में 10 सितंबर, 1945 को हुआ था। यह भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का चरम था। अल्मोड़ा जनपद की इसमें महत्पूर्ण भागीदारी थी। कोसी नदी और सूर्य मंदिर कटारमल के पास स्थित इस गांव के पास प्रकृति और सांस्कृतिक धरोहर दोनों थे। ‘गिर्दा’ में बचपन से ही प्रतिकार के बीज स्फुटित होने लगे थे। उनका औपचारिक पढ़ाई में मन नहीं रमता। उन्हें लोक में बिखरी वे सारी ध्वनियां प्रभावित कर रही थी जो ढोल-दमाऊं, हुड़़का से निकल रही थी। वे सुर उन्हें अपनी ओर खींच रहे थे जो लोक गिदारों के कंठ से निकलकर झोड़े, चांचरी, न्यौली, भगनौले और होली के रूप में लोगों के बीच आ रहे थे। स्वाभाविक रूप से इस तरह की प्रवृत्ति से फिर वे अपने व्यवस्थित जीवन के प्रति सोच भी नहीं सकते थे। अपने गांव में प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद गिर्दा अपने दीदी-जीजा के साथ पढ़़ने के लिये अल्मोड़ा चले गये। यहां तो उनकी अराजकता और बढ़़ गई। लल्मोड़ा तो ऐसे लोगों के लिये खाद-पानी का काम करता था। यहीं उनकी रुचियों ने और विस्तार लिया। गीत-संगीत के अलावा वे यहां अन्य विधाओं से भी परिचित होने लगे। यहां रहकर किसी तरह हाईस्कूल पास कर वापस गांव आ गये। यहीं उन्होंने गाय-बकरियां चराते गीते लिख और गाये।
गिर्दा 1961-62 में पूरनपुर (पीलीभीत) चले गये और वहां दैनिकभोगी कर्मचारी के रूप में पीडब्ल्यूडी में नौकरी करने लगे। यहां दिन में नौकरी और रात में नौटंकी देखने लगे। यहां से फिर गीत लिखना और गाना-बजाना और बढ़़ गया। यहीं उनकी मुलाकात ओवरसियर दुर्गेश पंत से हुई। यहां उन्होंने विभिन्न कुमाउनी कवियों की कविताओं का एक संकलन ‘शिखरों के स्वर’ नाम से प्रकाशित किया। अन्य संग्रह भी छापने की योजना थी, लेकिन जगह-जगह भटकने के कारण यह संभव नहीं हो पाया। यहां से फिर ‘गिर्दा’ 1964-65 में लखनऊ चले गये। यहां भी दिहाड़ी की मजदूरी और रिक्शा चलाने लगे। औपचारिक शिक्षा के बजाए वह लखनऊ के पार्कों में जीवन के यथार्थ को जानने-समझने लगे। जिन ग्वालो, हुड़़कियों और गिदारों को वह गांव में छोड़ आये थे, उन्हें वे यहां दलितों के रूप में मिल गये। फैज और साहिर लुधियानवी जैसों की नज्में उन्हें उद्वेलित कर रही थी। उनमें प्रतिकार की ऊर्जा पैदा कर रही थी। और यही से उनकी ‘गिर्दा’ बनने की प्रक्रिया भी शुरू हुई। ‘गिर्दा’ पर फैज और साहिर का कितना प्रभाव था उसे इस बात से समझा जा सकता है कि उन्होंने इन दोनों की नज्मों का कुमाउनी में अनुवाद कर डाला। फैज के ‘हम मेहनतकश जग वालों से जब अपाना हिस्सा मांगेंगे’ का कुमाउनी अनुवाद देखने लायक है- ‘हम ओड़ बारूड़ी-ल्वार-कुली-कबाड़ी/जब य दुनी थैं हिसाब ल्यूलों/एक हांग नि मांगू-फांग नि मांगू खाता-खतौनी को हिसाब ल्यूंलो।’ साहिर के गीत ‘वो सुबह तो आयेगी….’ को ‘जैंता एक दिन तो आलो दिन य दुनि में’ आंदोलनों के शीर्षक गीत बन गये।
उस दौर में आकाशवाणी लखनऊ केन्द्र से ‘उत्तरायण’ कार्यक्रम में कुमाउनी और गढ़़वाली रचनाकारों की गीत-कविताएं प्रसारित हो रही थी। ‘उत्तरायण’ के लिये ‘गिर्दा’ ने कई कविताएं, गीत और रूपक लिखे। अपने गांव से अल्मोड़ा, पूरनपुर और लखनऊ तक की गिर्दा की यात्रा हमेशा जीवन के यथार्थ को जानने की रही। बचपन में जगरियों और हुड़़कियों, नैनीताल में हुड़़का बजाते भीख मांगते सूरदास जगरिये की प्रतिभा को पहचानने के बाद भारत-नेपाल सीमा में रहने वाले लोक गायक झूसिया दमाई पर शोध करने तक का ‘गिर्दा’ ने विस्तृत आयाम पाया। ‘गिर्दा’ की रचना-यात्रा का एक नया पड़ाव तब आया जब 1967 में ब्रजेन्द्र लाल साह उन्हें गीत एंव नाटक प्रभाग, नैनीताल ले आये। यह उनके जीवन का न केवल महत्वपूर्ण मोड़ था, बल्कि उनके पहाड़़ आने की हरसत भी पूरी हो गयी। और यहीं से फिर एक नये ‘गिर्दा’ का गढ़़़ना भी शुरू हो गया। यह दौर लगभग देश में और पहाड़़ में भी नई राजनीति-सांस्कृतिक चेतना की पूर्व पीठिका बना रहा था। सत्तर का पूरा दशक जनांदोलनों का रहा जिसमें ‘गिर्दा’ ने एक रचनाधर्मी और आंदोलनकारी के रूप में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। नैनीताल में आकर ‘गिर्दा’ के व्यक्तित्व ने अपना फलक और व्यापक किया। यहां के रंगमंचीय माहौल ने उनकी अभिव्यक्ति के और रास्ते खोले। इस दौर में गिर्दा ने ‘अंधेर नगरी’, ‘मिस्टर ग्लाड’, ‘धनुष यज्ञ’, ‘नगाड़े़ खामोश हैं’, ‘हमारी कविता के आंखर’ के अलावा ‘उत्तराखंड काव्य’ और ‘जागर’ की पुस्तिकाओं के माध्यम से अपने रचनाकर्म को आगे बढ़ाया।
सत्तर के दशक में जब पूरे पहाड़़ में वन आंदोलन चल रहा था, तब एक युवा पीढ़ी नई चेतना के साथ इसमें शामिल हो गई थी। छात्र-युवा इसमें बढ़-चढ़़कर हिस्सेदारी कर रहे थे। 27 नवंबर, 1977 को नैनीताल में भारी पुलिस बल के बीच वन विभाग जंगलों की नीलामी कर रहा था। लोगों ने भारी विरोध किया। तब ‘गिर्दा’ ने हुड़़के की थाप पर ‘गौर्दा’ के 1926 में लिखे गीत ‘वृक्षन को विलाप’ को नये संदर्भों में गाया। बाद में यह गीत सभी आंदोलनों में गाया जाने लगा- ‘आज हिमाला तुमन क ध्यतौंछ, जागो-जागों ओ मेरा लाल…।’ ‘गिर्दा’ ने नैनीताल की सड़़क पर हुड़़़का बजाकर जब यह गीत गाया तो लोग गीत के साथ चल पड़े़ और जंगलों की नीलामी रुकवा दी। ‘गिर्दा’ सहित कई लोगों को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। ‘गिर्दा’ का आंदोलकारी का यह रूप उत्तराखंड राज्य आंदोलन, नदी बचाओ और जल-जंगल-जमीन को लेकर हुये सभी आंदोलनों में शामिल रहा। उत्तराखंड आंदोलन के दौरान उनका यह गीत बहुत गया गया- ‘अर्जुन थैं कृष्ण कौंछ, सारी भूमि छू रणभूमि य, रण बै कै बचूंलों/हम लड़़तै रया ददा, हम लड़़तै रोंला।’ उत्तराखंड में नदियों को बचाने के लिये चल आंदोलन में उन्होंने आगाह किया- ‘बोल व्यापारी तब क्या होगा/नदी समंदर लूट रहे हो/कंकर पत्थर कूट रहे हो…।’ उन्होंने ‘नगाड़े़ खामोश हैं’ और ‘धनुष यज्ञ’ नाटक लिखे और ‘अंधेर नगरी’, ‘अंधायुग’, थैंक्यूं मिस्टर ग्लाड’ आदि नाटकों का निर्देशन भी किया। उन्होंने कई लोक कथाओं-गाथाओं और कविताओं को नुक्कड़़़ नाटकों के रूप में पेश किया। जिनमें ‘राजा के सींग’, ‘रामसिंह’, ‘आए चुनाव-गये चुनाव’ आदि महत्वपूर्ण हैं।
‘गिर्दा’ को ने अपनी रचनाओं के माध्यम से जीवन के कई संदर्भों को छुआ। उन्होंने एक बड़े़ वर्ग को प्रभावित किया। उनकी रचनाओं ने जहां समसामयिक सवाल उठाये वहीं चेतना का बड़ा आकाश भी बनाया। गिर्दा का 22 अगस्त, 2010 को निधन हो गया, लेकिन उनके गीत हमेशा हमारे बीच में रहेंगे। हमारा मार्गदर्शन करेंगे। उन्हें हमारी विनम्र श्रद्धांजलि। उनका एक गीत आज देश के विभिन्न हिस्सों में बच्चियों पर हो रहे यौन अपराध और उनके खिलाफ खड़ी जनता के सरकारी दमन पर प्रासंगिक है-
हालाते सरकार ऐसी हो पड़ी तो क्या करें?
हो गई लाजिम जलानी झोपड़ी तो क्या करें?
हादसा बस यों कि बच्चों ने उछाली कंकरी,
वो पलटकर गोलाबारी हो गई तो क्या करें?
गोलियां कोई निशाना साधकर दागी थी क्या?
खुद निशाने पर पड़ी आ खोपड़ी तो क्या करें?
खाम-खां ही ताड़ तिल का बना देते हैं लोग
वो पुलिस है उससे हत्या हो पड़ी तो क्या करें?
कांड पर संसद तलक ने शोक प्रकट कर दिया
जनता अपनी लाश बाबत रो पड़ी तो क्या करें?
आप इतनी बात पर बेवजह नाशाद हैं
रेजगारी जेब की थी, खो पड़ी तो क्या करें?
आप जैसी दूर-दृष्टि, आप जैसे हौंसले
देश की आत्मा गर सो पड़ी तो क्या करें?
चारु तिवारी