मैं जानता था कि गोपनीयता संदेह और वैमनस्य को जन्म देती है, अतः पहली ही बैठक में मैंने विद्यालय के विविध छात्र.कोषों और राजकीय अनुदानों की राशि का पूरा विवरण अध्यापकों के सामने रख दिया। उनकी सुविधाओं, असुविधाओं, वरिष्ठतागत विसंगतियों को दूर करने का आश्वासन दिया और निवेदन किया कि यदि आप मुझे गाली भी देंगे तो मुझे कोई आपत्ति नहीं होगी, बशर्ते आप अपने अन्नदाताओं या छात्रों को स्नेह और परिश्रम से पढ़ायें और उनके व्यक्तित्व के विकास में सहयोग दें। मैं जानता था कि मेरी तरह ही वे भी इन गणेशपूजा के मंत्रों को अधिक महत्व नहीं देंगे।
रामनगर। चारों ओर से अट्टालिकाओं से आवृत नगर, तीन संकीर्ण प्रवेश द्वार, दो या तीन संकीर्ण गलियाँ पर भीतर चार प्रशस्त मार्ग। प्रशस्त मार्गों के दोनों ओर समृद्ध बाजार। बाजार के उत्तर और पूर्व में कोशी का अभिराम तटबंध । थोड़ी दूर पर आम, लीची, कटहल के बाग ही बाग। पता नही भूमाफियाओं की कुदृष्टि से अब तक कैसे बचे रहे हैं? इन सबसे विरक्त उदास और मलिन खत्याड़ी, गरीब मुसलमान बंजारों की दुनियाँ। बजबजाती नालियों वाली धूल भरी बस्ती। आगे उजाड़ मैदान में स्थित विद्यालय कहे जाने वाले दो भवन। नार्मल स्कूल उर्फ राजकीय इंटर कालेज, रामनगर.
विद्यालय के दो भवनों में से एक भवन पता नहीं क्यों आसपास की भूमि की सतह से निचले स्थान पर बनाया गया था और बरसात में छात्रों को बिना उपानहों को धोये अन्दर नहीं जाने देता था। वर्षाऋतु में छत से अनवरत ’ मेरे नैना सावन भादो’ की अनुगूँज होती रहती। प्रायः कक्षा में भी छात्रों को छाते का सहारा लेना पड़ता। जैसे.तैसे अपने आप को बचाते हुए छात्र भौतिकी और रसायन के सिद्धान्तों को समझने का प्रयास करते थे। टूटा फर्श, उखड़ा पलस्तर। खेल के मैदान को अपनी विरासत समझती और क्यारियों में लगे लतापत्रादि को प्यार से अंगीकार करतीं खत्याड़ी की बकरियों के समूह। चौकीदार के किसी बकरी को पकड़ते ही बस्ती में ’इस्लाम खतरे में’ का निनाद होने लगता।
’विद्यालय की साज.सज्जा बड़ी अद्भुत थी। टपकती छतें। अँधेरे बन्द कमरे। फटी चटाइयों पर बैठने को विवश छात्र। कुर्सियों के अभाव में स्टूलों पर आसीन अध्यापक। दरिद्र प्रयोगशालाएँ। किसी प्रकार की प्रतिक्रिया देने से बचने वाले रसायन। वैष्णवधर्म को अपना चुकी जीव.विज्ञान प्रयोगशाला। जूनियर कक्षाओं के छात्रों में विज्ञान के प्रयोगों के प्रति अभिरुचि जगाने के लिए विभाग द्वारा एक दशक पूर्व भेजे गये किन्तु अद्यतन समाधिस्थ और अनछुए, विज्ञान किट। कुर्सियों के अभाव में, खुली हवा में बच्चों के साथ खेलने के लिए आतुर इन उपकरणों के संदूकों पर पद्मासन लगाये अध्यापक। छात्रों के स्पर्श से भयभीत, बड़े बाबूू की पीठ पीछे अलमारियों मंे दुबका हुआ पुस्तकालय और एक बडे़ कक्ष में एक के ऊपर एक बेतरतीब पड़े सैकड़ों घायल काष्ठोपकरण।
स्थिति जो भी थी, सिर पड़ गयी तो निभानी ही थी।
मंगल की दशा के कारण हाईस्कूल में गणित और विज्ञान पढ़ाने वाले दोनों अध्यापक पाणिनि के शब्दांे में घोर अध्यापक थे। एक की आत्मा किसी विधायक से होती हुई मुख्यमंत्री मुलायम सिंह के हृदय में विराजमान थी, तो दूसरे को देख कर ऐसा लगता था कि वह पहले किसी कसाईखाने मंे काम कर चुके हंै। पहले को बनाने में भगवान मस्तिष्क के किसी स्नायु को जोड़ना भूल गया था तो दूसरे में ’हृदय’। कक्षा में पढ़ाना कम छात्रों की खबर लेना अधिक। परीक्षाफल सुधरता तो कैसे। मेरे बार.बार अनुरोध करने पर उप निदेशक महोदय ने उनमंे से एक का स्थानान्तरण कर दिया। लगा एक तो अच्छा अध्यापक मिलेगा, मिला भी। पर एक सप्ताह भी नही बीता था कि मुख्यमंत्री मुलायम सिंह के, उक्त अध्यापक की विद्यालय में पुनस्र्थापना के, कठोर आदेश से विभाग सन्न रह गया। फिर केहि गिनती मह जस बन घास ’’पिंसपुल’? लाभ तो कुछ नहीं हुआ, घोड़ा कुछ और अड़ गया।
प्रधानाचार्य के व्यवहार के प्रति अध्यापकों और अभिभावकों में असंतोष था। यह, मेरे स्थानान्तरण के बाद ही कुछ अध्यापकांे के मुझ से संपर्क करने और यथाशीघ्र कार्यभार ग्रहण करने के अनुरोध से स्पष्ट था। उन्हें डर था कि कहीं प्रधानाचार्य महोदय अपना स्थानान्तरण निरस्त न करवा लें, पर विद्यालय का माहौल इतना दूषित और तनावपूर्ण हो चुका था कि वे अब इस विद्यालय में रहने के लिए तैयार नहीं थे।
खैर! जैसे ही मेरा स्थानान्तरण उक्त विद्यालय को हुआ, अनेक अध्यापकों ने मुझसे अनुरोध किया कि मैं तुरन्त कार्यभार ग्रहण कर लूँ। जब मैं वहाँ पहुँचा तो मुझे लगा कि उतावली की कोई आवश्यकता नहीं थी। पूर्व प्रधानाचार्य स्वयं विद्यालय में जमे रहने का साहस खो चुके थे। स्थिति तो यह थी कि उन्होंने अपने आवास से निकलना ही बन्द कर दिया था। सारा सरकारी काम अपने आवास से ही सम्पन्न कर रहे थे। मुझे भी कार्यभार ग्रहण करने के लिए उनके आवास पर ही जाना पड़ा था।
मैंने कार्यभार ग्रहण किया। विद्यालय के सहयोगियों से परिचर्चा की। कुछ अध्यापक पूर्व प्राचार्य का निन्दास्तोत्र पढ़ने लगे। मैंने मित्रों से कहा कि मैं भी एक अध्यापक हूँ अन्तर केवल इतना है कि बुढ़ापे में विभाग ने प्रधान शब्द लगा दिया है। अतीत की निन्दा और वर्तमान को गौरवान्वित करने की परंपरा शाश्वत है। कल मेरे जाने के बाद आप अगले प्राचार्य के सामने भी इसी स्तोत्र का पाठ करेंगे। अतः काम की बातें करें।
मैं जानता था कि गोपनीयता संदेह और वैमनस्य को जन्म देती है, अतः पहली ही बैठक में मैंने विद्यालय के विविध छात्र.कोषों और राजकीय अनुदानों की राशि का पूरा विवरण अध्यापकों के सामने रख दिया। उनकी सुविधाओं, असुविधाओं, वरिष्ठतागत विसंगतियों को दूर करने का आश्वासन दिया और निवेदन किया कि यदि आप मुझे गाली भी देंगे तो मुझे कोई आपत्ति नहीं होगी, बशर्ते आप अपने अन्नदाताओं या छात्रों को स्नेह और परिश्रम से पढ़ायें और उनके व्यक्तित्व के विकास में सहयोग दें। मैं जानता था कि मेरी तरह ही वे भी इन गणेशपूजा के मंत्रों को अधिक महत्व नहीं देंगे। केवल विद्यालय के कोषों की पोल खोलना उनको अजीब लग रहा था।
मेरी सहज बडे़ मास्टर साहब वाली शैली काम आयी और तनाव कुछ कम हुआ। पराये धन को हाथ न लगाने की प्रवृत्ति ने भी सहयोग दिया। शिशुपाल वध प्रकरण भी काम आया, और अपने देशकाल तक ही अपने आप को सीमित रखने का संकल्प भी। कल क्या हुआ इससे मतलब नहीं, मेरे जाने के बाद विद्यालय का क्या होगा इसकी चिन्ता नहीं। अपने काल में अपने देश या विद्यालय को यथाशक्ति सँवारने तक सीमित। चापलूसी के आदान.प्रदान से परहेज। ये कुछ ऐसे सूत्र हैं जो मुझे अपने पिता से, गुरुजनों से, सेवारंभ में मिले प्रधानाचार्यों से और उन महान् शिक्षकों से प्राप्त हुए थे जिनसे मेरा परिचय पुस्तकों के माध्यम से हुआ था। मेरे प्रयासों में अधिकतर अध्यापकों ने, भले ही वे अनायास मिल जाने वाले आर्थिक लाभ और लालबत्ती के न रहने से असंतुष्ट हों, साथ दिया। जो ’मिलत एक दारुण दुख देहीं’ थे उन्होंने मौके के इन्तजार में अपने बाण तूणीर में रख लिये। यह भी एक संयोग था कि इस अवधि में जिला और मंडल स्तर पर ’राम को खाऊँ, लखन को खाऊँ, सीता को लूँ कच्ची खा’ वाले अधिकारी नहीं थे, अपितु श्री महेशचन्द्र पन्त जैसे धर्मभीरु और सुरेशचन्द्र जोशी जैसे सज्जन पदासीन थे।
मैंने देखा था कि अधिकतर विद्यालयों में प्रवेश परीक्षा तो होती है, पर उसमें अध्यापकों के परिचित या प्रभावशाली व्यक्तियांे के बच्चे तो विद्यालय में प्रवेश पा जाते हैं किन्तु बहुत से मेधावी बच्चे प्रवेश से वंचित रह जाते हैं।
इसका एक ही उपाय था कि विद्यालय में कक्षा 6, 9, और 11 में प्रवेश का दायित्व मंडलीय मनोविज्ञान शाला को सांैप दिया जाय। यही मैंने किया। मंडलीय मनोवैज्ञानिक सुशीलकुमार यादव मेरे पूर्व परिचित थे। उनके सहयोग से परीक्षा का आयोजन हुआ और दो घंटे के अन्दर छात्रों की उपलब्धि के क्रम में सामान्य और आरक्षित वर्ग की सूची विद्यालय के सूचना पट्ट पर टँग गयी। बाहरी दबावों का पत्ता ही साफ।
मुझे अनेक बार अपने संबंधियों तथा अन्य प्रभावशाली व्यक्तियों को भी निराश करना पड़ा, लेकिन इस कवच के कारण मुझे कोई परेशानी नहीं हुई। मैंने अपने साथियों से कह दिया था कि वे मेरी निन्दा करें। कहें कि सिरफिरा है, किसी की मानेगा नहीं। फलतः वे भी दबावों से बचे रहे।
छात्रों के कक्षा से पलायन को रोकने के लिए प्रातः काल प्रार्थना स्थल पर तो उपस्थिति ली ही जाती थी। विद्यालय की अवधि के बाद घर जाने से पहले भी छात्रों का मंच के समीप पंक्तिबद्ध होकर खड़ा होना और उपस्थिति अंकित होने के बाद अनुशासित ढंग से परिसर से बाहर जाने का नियम लागू कर दिया गया। यही नहीं दुबारा नाम निरस्त होने पर वर्तमान वर्ष में और अगले वर्ष भी प्रवेश का निषेध होने के चेतावनी सूचना पट्ट पर लगा दी गयी।
पलायन रुका तो परीक्षा को नियंत्रित करने का प्रयास किया गया। उत्तरपुस्तिका में नाम लिखने का निषेध तो था ही विद्यालय की विभिन्न कक्षाओं के अनुभागों के आधार पर छात्रों को अनुक्रमांक आबंटित करने के स्थान पर एक कक्षा मानते हुए अनुक्रमांक निर्धारित कर दिये गये। कक्षा के हर अनुभाग के अनुक्रमांक उस कक्षा के अकारादिक्रम में ही रहे। अध्यापकांे ने सजगता से मूल्यांकन किया और अध्यापकों की एक समिति द्वारा आकस्मिक जाँच का भी प्राविधान किया गया। बिना किसी भेदभाव के विभागीय नियमों को लागू करते हुए अंतिम परीक्षाफल घोषित कर दिया गया।
बच्चों को लगा। बिना पढ़े दाल गलने वाली नहीं है, तो वे पढ़ने लगे। एक साल तो गृह परीक्षाओं का परीक्षाफल गिरना ही था। परीक्षाफल गिरने का दायित्व मैंने अपने ऊपर लिया। अध्यापकों की गोपनीय आख्या को उसकी आँच नहीं दी। अगले साल से परीक्षाफल लगातार उठता ही नहीं गया अपितु बच्चे अन्य प्रतियोगिताओं में भी सफल होने लगे।
’
मैं जहाँ भी रहा मेरा सर्वोपरि ध्यान छात्रों की बैठक व्यवस्था, कमरों की प्रकाश व्यवस्था, श्यामपटों की स्थिति को सुधारने की ओर रहा। इनमें भी गुरुजनों के लिए समुचित आसनों की व्यवस्था सर्वोपरि थी। छात्र भूमि में पडे़ कंकड़़ों की चुभन को सहते हुए चीथड़ों पर बैठें, अध्यापक, कक्षा में तीन टाँग की कुर्सी को संतुलित करने का करतब दिखाने को विवश हों, श्यामपट केवल उल्लुओं को ही साफ दृष्टिगोचर होता हो और उसकी देह पर राणासांगा की देह की तरह अस्सी घावों के निशान हों, साफ हवा भी भीतर आने कतराती हो तो छात्रों के अधिगम को चैपट करने का इससे अच्छा उपाय क्या हो सकता है?
मेरा यह भी मानना है कि यदि छात्रों को एक साफ.सुथरे सुव्यस्थित कक्षा.कक्ष में बैठने का अवसर दिया जाय तो उनमें से अधिकतर उस कक्ष की व्यवस्था को बनाये रखने का प्रयास करते हैं। यदि विद्यालय में कुछ ही ऐसे कक्ष हों, और उन्हें केवल उस कक्षा को सांैपने का नियम बनाया जाय, जो अपनेे पुराने कक्ष को और भी खराब करने से बचती रही हो, तो अन्य छात्र भी उनका अनुकरण करते हैं। हम लोगों प्रयास किया। अभिभावक समिति का सहयोग लेकर जितने भी काष्ठोपकरण मरम्मत योग्य थे, उनकी मरम्मत की गयी। उनके वितरण में यह ध्यान रखा गया कि जिस भी कक्षा को ये आबंटित किये जाँये, उसके लिए पर्याप्त हों। साथ ही उन्हें यह भी बता दिया गया कि जो भी उपकरण क्षतिग्रस्त होगा, उसके बदले सारी कक्षा को मिल कर नया उपकरण लाना होगा। फलतः काष्ठोपकरणों की तोड़.फोड़ का औसत बहुत कम हो गया।
अभिभावक.समिति के सहयोग और कुछ विभागीय अनुदान से धीरे.धीरे छात्रों के लिए काष्ठोपकरणों की व्यवस्था हुई, श्यामपटों का उपचार हुआ। कक्षाओं में बिजली की व्यवस्था हुई। वर्षों से चेतना शून्य हो गये पंखों को होश आया और घुटन भरे कमरों से हवा को भी परहेज नहीं रहा। मैं तो निमित्त मात्र था, इसमें उन साथियों का योगदान अधिक था जो विद्यालय के दरिद्र और अराजक माहौल से ऊब चुके थे और विद्यालय के स्वास्थ्य लाभ की कामना करते थे। जो विद्यालय के उसी माहौल को बनाये रखना चाहते थे और अनवरत छिद्रान्वेषण में लगे रहते थे, उन्हें छिद्र नहीं मिले तो वे तटस्थ हो गये। उनको भी एक संतोष था कि नये ’पिंसपुल’ के कमरे में उन्हें खडे़.खडे़ अपनी बात नहीं करनी पड़ती।
1988.89 में विभाग से विभिन्न विद्यालयों को प्रयोगशाला निर्माण के लिए एक लाख पचीस हजार रुपये का अनुदान मिला था। इस सूची में हमारे विद्यालय का नाम नहीं था। संयोगवश किसी विद्यालय ने प्रयोगशाला के निर्माण में अपनी असमर्थता व्यक्त की और मेरा व्यक्तिगत संपर्क काम आया। यह धनराशि रसायन प्रयोगशाला के निर्माण हेतु हमारे विद्यालय को मिल गयी।
इतनी कम धनराशि में 30 फीट ग 50 फीट की प्रयोगशाला का निर्माण और उसकी आधारभूत सज्जा की व्यवस्था करना कठिन काम था। मेरी अनुभवहीनता का लाभ उठाकर ठेकेदार निर्माण में सामग्री की गुणवत्ता और तकनीकी में गिरावट ला सकता था। अतः मैंने सार्वजनिक निर्माण विभाग, रामनगर खंड के अधिशासी अभियन्ता श्री सरोहा से संपर्क कर इस प्रकरण में अपनी अनुभवहीनता स्पष्ट करते हुए सहायता करने का अनुरोध किया। सरोहा जी ने निर्माण सामग्री और तकनीक के मामले में सलाह देने और जाँच करते रहने के लिए अपने सहायक अभियन्ता श्री बी.सी. बिनवाल को निर्देशित कर दिया। श्री बी.सी. बिनवाल के अनवरत निर्देेशन और सहयोग से यह भवन मात्र एक लाख उन्नीस हजार रुपये में बन कर तैयार हो गया। शिक्षा उपनिदेशक श्री सुरेशचन्द्र जोशी से अनुमति लेकर बाकी बचे छः हजार रुपये में प्रयोगशाला में नलों की फिटिंग और विद्युत.व्यवस्था सम्पन्न हो गयी।
प्रयोगशाला के निर्माण में मुझे अपने समस्त साथियों का सहयोग मिला। प्रयोगशाला की छत पड़ने के दिन, रात तीन बजे तक सारे साथी विद्यालय में ही जमे रहे और लगातार सामग्री और मिश्रण की गुणवत्ता पर निगरानी रखते रहे। उस दिन मुझे लगा जैसे इनमें कोई समस्या अध्यापक है ही नहीं। यह एक प्रयोग था। इससे मेरा यह विश्वास और भी पुष्ट हुआ कि यदि प्रधानाचार्य अपरिग्रही हो तो अन्य सहयोगियों मंे भी सकारात्मक परिवर्तन होते हैं और वे विद्यालय की प्रगति में निःस्वार्थ साथ देते हैं।
विद्यालय की प्रयोगशालाओं को समृद्ध करने में विभाग और अभिभावक समिति का सहयोग तो था ही, प्रयोगशाला.प्रभारियांे ने भी विभिन्न निर्माता और आपूर्तिकर्ता प्रतिष्ठानों से गुणवत्ता और मूल्य सूचियाँ मँगवाईं। कुमाऊँ विश्वविद्यालय के नैनीताल परिसर के विज्ञान संकाय के अनेक मित्रों से मैंने विचार विमर्श कर सामग्री की गुणवत्ता के बारे में जानकारी प्राप्त की और इस प्रकार एक सूची तैयार हुई।
मैंने देखा है कि मूल्य सूची और गुणवत्ता क्रेता के आचरण के सापेक्ष्य होती है। यदि आप मेज के नीचे से हाथ पसारेंगे तो दस रुपये की वस्तु आपको पचास रूपये में मिलेगी । इसमें विक्रेता बीस रुपया आपको देगा तो अतिरिक्त बीस रुपया खुद भी खायेगा। इससे सामग्री की मात्रा और गुणवत्ता ही नहीं गिरेगी अपितु वह मन ही मन आपको अपनी पत्नी के भाई के समकक्ष बताने में भी देर नहीं करेगा।
मेज के नीचे तो मेरा हाथ कभी गया ही नहीं। इसलिए जो भी सामग्री विद्यालय में आयी वह गुणवत्ता में मानकों अनुरूप तो थी ही अन्य विद्यालयांे को उन्हीं विक्रेताओं द्वारा प्र्रस्तावित मूल्य से कम से कम 20 प्रतिशत कम थी। अतः धनराशि कम होने पर भी अधिक और गुणात्मक दृष्टि से अच्छी सामग्री संकलित होने लगी। जिस प्रयोगशाला में छात्रों के लाख प्रयास करने पर भी रसायन, अब तक प्रायः निर्विकार रहते थेे, तत्काल प्रतिक्रिया देने के आदी होने लगे।
अहल्योद्धार के इस प्रसंग में सबसे मेरे सबसे महत्वपूर्ण सहयोगी प्रधान लिपिक श्री उर्वादत्त बिष्टानियाँ थे। वे गंभीर और प्रशान्त व्यक्ति थे। यह हो सकता है कि मुझसे पूर्व उनको भी प्रधानाचार्य के साथ अन्य उपलब्धियाँ हुई हों, पर उक्त विद्यालय में पाँच साल के कार्यकाल में उन्हांेने न केवल मेरे मूल्यों का अनुकरण किया, अपितु मेरा मार्गदर्शन भी करते रहे। मैंने उनसे सभी अभिलेखों खास तौर पर वित्तीय अभिलेखों को पारदर्शी रखने का अनुरोध किया था। उसका उन्होंने सदा पालन किया। अतः विद्यालय मंे पिछले दिनों होने वाले ’तेरा हिस्सा अधिक मेरा हिस्सा कम क्यों?’ वाले सारे विवाद समाप्त हो गये और एक स्वस्थ परंपरा का विकास हुआ। वित्तीय पारदर्शिता से एक लाभ यह भी हुआ कि विद्यालय मंे प्रत्येक वस्तु पहले से कम मूल्य पर और अधिक गुणवत्ता वाली आयी। धीरे.धीरे विद्यालय आर्थिक दरिद्रता से मुक्त होने लगा।
विद्यालय में समाज विज्ञान के अध्यापक हेमन्त जोशी मेरे छात्र रह चुके थे, राजकीय इण्टर काॅलेज, फूलचैड़ में मेरे साथी भी। वे अत्यन्त परिश्रमी और बिना किसी स्वार्थ के साथ देने वाले अध्यापक थे। समस्याओं को निपटाने में शायद ही कोई दूसरा उनकी समता कर सके।
वयोवृद्ध सहयोगी श्री प्रकाशचन्द्र थपलियाल ने दो बीघे से भी अधिक भूमि में एक उपवन का विकास किया। मुहल्ले की बकरियों के डर से उसमें वे पौधे लगाये गये जिन्हें बकरियाँ नहीं खाती हैं। उनकी देखा.देखी परिचारकों ने भी अपने घरों के आगे फुलवारी विकसित की। यदि वे अपनी.अपनी सीमा में अलग से काँटेदार झाडि़यों की बाड़ नहीं लगाते तो पुष्पवाटिकाएँ न केवल उनके आवासों की, अपितु विद्यालय की भी शोभा बढ़ातीं।
रसायन प्रयोगशाला बन जानेे बाद मुझे यह लगा कि इसकी बाहरी दीवाल का सहारा लेकर अपेक्षाकृत कम लागत पर एक और कक्ष का निर्माण किया जा सकता है। विद्यालय को टिनशेड बनाने के लिए बीस हजार रुपये का अनुदान मिला था। शिक्षा उपनिदेशक श्री सुरेशचन्द्र जोशी को अपनी योजना बतायी और इस आश्वासन के साथ कि विद्यालय को अगले वर्ष भी भवन निर्माण के लिए इतनी ही राशि दे दी जायेगी, पुस्तकालय और वाचनालय के लिए एक बड़े कक्ष के निर्माण का श्रीगणेश हो गया। पहले वर्ष भवन की नींव और दीवालें बनी और अगले वर्ष के अनुदान से छत, पलस्तर, फर्श, विद्युतीकरण सब सम्पन्न हो गया। 23 ग 30 फीट का यह कक्ष दो लघु कक्षों के निर्माण हेतु प्राप्त अनुदानों से हुआ था अतः बीच में एक पिलर और बीम देकर देखने के लिए इसमें दो कक्षों की झलक दिखा दी गयी। विद्यालय का अच्छा सा हवादार वाचनालय और पुस्तकालय भवन तैयार हो गया। अभिभावक समिति के कोष से पुस्तके रखने के लिए दोनों ओर खुलने वाली अलमारियाँ, वाचनालय मेजें और कुर्सियाँ, पंखे आदि सामग्री जुटायी गयी। दीवार पर प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने वाले छात्रों का सम्मानपट्ट लगा। पंखे लगवाये गये। पुस्तकालय तैयार हो गया। पुस्तकालय का उद्घाटन कक्षा 6 में पढ़ने वाले सबसे छोटी अवस्था केे छात्र विद्यासागर के हाथों हुआ। वय में सबसे कम और नाम से विद्यासागर।
पुस्तकालय का समय रखा गया – प्रातः छः से साढे़ नौ बजे तक और सायं साढे़ चार बजे से साढ़े सात बजे तक। पुस्तकालय के संचालन का दायित्व परिचारक गोविन्दवल्लभ जोशी ने संभाला। मेरे कार्यकाल में पुस्तकालय के सफल संचालन का श्रेय भी उन्हीं को है।
विद्यालय में उनकी कार्यावधि सुबह और शाम थी दिन में वे मुक्त थे। अपने विहित अवकाशों के अलावा वे कभी भी अनुपस्थित नहीं हुए और बड़ी कुशलता के साथ पुस्तकालय का संचालन करते रहे।
प्रायः लोग कहते हैं कि आज के छात्रों मंे पढ़ने की रुचि ही नहीं रही। पर उक्त विद्यालय में अपने पाँच साल के कार्यकाल में मुझे ऐसा नहीं लगा। जैसे ही पुस्तकालय के दरवाजे खुलते परिसर में रहने वाले बच्चे पुस्तकालय की ओर दौड़ लगा देते थे। विद्यालय से दूर रहने वाले बहुत से बच्चे विद्यालय खुलने से एक घंटे पहले आ कर वाचनालय में जम जाते थे। इसका कारण वाचनालय के लिए चयनित बालोपयोगी पुस्तिकाएँ थीं तो गोविन्द का छात्रों के प्रति लगाव भी था।
वाचनालय खुला तो मुझे बडे़ बाबू की सीट के पीछे अल्मारी के ऊपर रखे धूरि भरे श्वेत.श्याम जू ( टेलीविजन) की उपेक्षा का ध्यान आया। उसे वाचनालय कक्ष में स्थान दिया। फिर लगा केवल दूरदर्शन के उबाऊ कार्यक्रमों से क्या होगा! शैक्षिक वीडियो की व्यवस्था क्यों न की जाय? अभिभावकांे का निश्शंक सहयोग था ही। दिल्ली से विभिन्न विषयों से संबंधित चालीस वीडियो कैसेट आ गये। खत्याड़ी के एक वीडियोजीवी अभिभावक श्री शर्मा ने पचीस रुपये रोज में दो घंटे वीडियो दिखाने का वचन दिया। विद्यालय के वादनों में जूनियर कक्षाओं के लिए वीडियो शिक्षा के वादन निर्धारित कर दिये गये। कार्यक्रम चल पड़ा।
भौतिकी के प्रवक्ता श्री राजीव पांडे के निर्देशन में विद्यालय ने अभिनव प्रयोग के अन्तर्गत विद्यालय में पैन रिफिल बनाने की इकाई का शुभारंभ किया। अभिभावक समिति ने इस इकाई के लिए तीन हजार छः सौ रुपये प्रदान किये। इकाई लगी। ’जिक् ओे रामनगर’ ;ळप्ब्.व्.त्डत्द्ध नाम की रिफिल बाजार में आ गयी। विद्यालय खुलने से पहले जूनियर कक्षाओं के छात्र रिफिल मशीन को चलाने का अवसर पाने के लिए भौतिकी प्रयोगशाला के दरवाजे खुलने की प्रतीक्षा करने लगते थे। भौतिकी प्रयोगशाला के सहायक श्री कैलास उपाध्याय प्रातः नौ बजे रिफिल बनाना आरंभ कर देते थे। बच्चों को एक रिफिल मात्र पचीस पैसे में मिल जाती थी।
’
मेरा विश्वास है कि यदि हम अपरिग्रही हैं तो साथी ही नहीं, और लोग भी हमारी सहायता करते हैं। मुझे अपने कार्यकाल में लोहा व्यापारी मोतीलाल जी, मुद्रक गुप्ता जी, शर्मा जी, यहाँ तक कि कुन्दन दी हट्टी का भी सहयोग प्राप्त हुआ। यह सहयोग बाजार दर से कुछ कम पर सामग्री की आपूर्ति करने के रूप में था।
अल्पाहार कोष में कम राशि होने पर भी विद्यालय ने छात्रों की फरमाइश पूरी की। क्रीड़ा कोष से अच्छे पुरस्कार दिये गये। पुस्तकालय में विज्ञान और प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए सामग्री एकत्र हुई। जवाहर बुक डिपो, बेरी सराय नयी दिल्ली ने तीस से चालीस प्रतिशत छूट पर सर्वोत्तम पुस्तकें भेजीं। यह मेरा एक प्रयोग था, जिसकी सफलता का श्रेय मुझसे अधिक मेरे सहयोगियों को है। उनको भी जो कभी.कभी ’मिलत एक दारुण दुख देहीं’ सिद्ध होते थे।
मेरे कार्यकाल में मंडलीय मनोवैज्ञानिक श्री सुशीलकुमार यादव के सहयोग से छात्रों के अधिगम को सुधारने, उनकी अभिरुचि को पहचानने, दिशा निर्देश देने, और राष्ट्रीय प्रतिभा खोज परीक्षा के लिए तैयार करने के लिए अनेक कार्यक्रम संचालित हुए। पहली बार विद्यालय के दो छात्र- अजित त्रिपाठी और पंकज पन्त मंडलस्तर को पार कर प्रदेशिक प्रतिभा खोज परीक्षा में सफल हुए। अजित त्रिपाठी प्रतिभा खोज परीक्षा में राष्ट्रीय स्तर पर चुन लिये गये। अध्यापकों के निरंतर सहयोग से विद्यालय में और भी उपलब्धियाँ र्हुइं।
जिस दिन मैंने उक्त विद्यालय में कार्यभार ग्रहण किया था, उस दिन रामनगर में विद्यालय के एक छात्र, नितिन जोशी के नैनीताल पोलीटैक्नीक मंे चयन होने की बड़ी भारी चर्चा थी। ऐसा लग रहा था जैसे यह वहाँ के छात्रोें की बड़ी भारी उपलब्धि हो। पर पाँच साल के मेरे कार्यकाल में अध्यापकों विशेषकर राजीव पंाडे (प्रवक्ता भौतिकी), साहब सिंह बंगारी (प्रवक्ता गणित) के अथक प्रयास से विद्यालय से पहली बार दो छात्र प्रादेशिक मैथैमैटिक ओलंपियाड में सफल हुए। इनमें उपलब्धि के क्रम में अजित त्रिपाठी ग्यारहवंे स्थान पर और दिवाकर तिवारी बीसवंे स्थान पर रहे। पाँचवें साल तो कतिपय छात्रों ने अभूतपूर्व उपलब्धियों के कीर्तिमान स्थापित कर दिये। अजित त्रिपाठी भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान की प्रवेश परीक्षा में 249 वंे स्थान पर रहे। दिवाकर तिवारी रुड़की इंजीनियरिंग काॅलेज के लिए चुने गये। पंकज पन्त, लोकेश गोस्वामी, पूरनसिंह नेगी, हिमांशु सुयाल, विनोद छिमवाल एम.एन आर. की प्रवेश परीक्षा में सफल हुए । इला पांडे सी.पी.एम.टी. में सफल हुई। इनकी देखा.देखी रामनगर के अन्य छात्रों को भी जोश चढ़ा और बहुत से छात्र इंजीनियरिंग और मेडिकल काॅलेजों की प्रवेश.परीक्षा में सफल हुए।
इस उपलब्धि की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि इनमें से किसी भी छात्र ने किसी भी कोचिंग क्लास में प्रवेश नहीं लिया था। अलबत्ता पोस्टल कोचिंग अवश्य की थी। वर्तमान में अजित त्रिपाठी एक बड़ी अमरीकी कंपनी में वाइस पे्रसीडेंट है। दिवाकर तिवारी अमरीका की एक अन्य प्रतिष्ठित कंपनी में। डा. हिमांशु सुयाल स्काॅटलैंड में कार्यरत हैंै तो पंकज पन्त टाटा मोटर्स में वरिष्ठ अधिकारी। पूरनसिंह नेगी कुछ वर्ष पूर्व बंगलौर में मुझे मिला था। वह वहाँ किसी कंपनी में इंजीनियर था। लोकेश गोस्वामी से रामनगर से आने के बाद मेरी भेंट नहीं हुई।़ अलबत्ता मैं इला.दिवाकर के विवाह के अवसर पर सम्मिलित हुआ था। विद्यालय के छात्रों की इस उपलब्धि में, मैं तो केवल अध्यापकों और छात्रों के लिए पुस्तकें और संसाधन जुटा कर उत्साह बढ़ा रहा था, मनोवैज्ञानिक सुशीलकुमार यादव मार्गदर्शन कर रहे थे। छात्रों को दिशा देने से लेकर तैयारी करवाने का सारा दायित्व श्री पांडे, श्री बंगारी वहन कर रहे थे। हाईस्कूल स्तर पर विज्ञान और गणित के दोनों अध्यापक तो ऐसे महारथी थे कि यदि वे न्यूटन के भी अध्यापक रहे होते तो उनका ’टन’ ही बचता। फलतः हाईस्कूल स्तर पर इन छात्रों का सुदृढ़ आधार तैयार करने का दायित्व श्री गोविन्दवल्लभ सुयाल ने वहन किया था।
श्री गोविन्द वल्लभ सुयाल पद से सामाजिक विषयों के अध्यापक थे। गणित में उनकी अभिरुचि और दक्षता को देखते हुए मैंने उन्हें परीक्षाफल के मामले में पूरी सुरक्षा का वचन देते हुए सबसे कमजोर कक्षाओं का दायित्व दिया। यह उनका प्रयास था कि पिछले कई वर्षों से गणित मंे बीस.पचीस प्रतिशत पर अड़ी हुई कक्षाएँ भी सत्तर प्रतिशत से भी आगे निकल गयीं।
मैंने विद्यालय के एक दो अध्यापकों के कारण कई बार तनाव झेले हों, पर साथियांे के सहयोग से विद्यालय अपनी संभावनाओं से भी बहुत आगे निकल गया।