राजीव लोचन साह
तीन चरणों के बाद लोकसभा के चुनाव में आधी से अधिक सीटों पर मतदान का काम निपट गया है। कयासबाजी का खेल जारी है। एक ओर तथाकथित चुनाव विशेषज्ञ और सेफोलॉजिस्ट हैं तो दूसरी ओर सट्टा बाजार, जो अपनी-अपनी ओर से फतवे जारी कर रहे हैं। अपने को बुद्धिजीवी मानने वाले, मगर वोट देने के लिये कड़ी गर्मी में लाईन में लगने को अपनी हतक समझने वाले पढ़े-लिखे लोगों के लिये चुनाव परिणामों को लेकर बेमतलब की कयासबाजी इस वक्त बड़ा शगल है। और सामान्य व्यक्ति तो इस ख्याल में डूबा है कि अपनी तर्जनी पर स्याही लगवा कर वह जिस उम्मीदवार को वोट देकर आया है, क्या वह जीतेगा और जीतने के बाद क्या उसकी रोजमर्रा की जिन्दगी को कुछ आसान करेगा। परिणामों पर कोई भविष्यवाणी करना सम्भव नहीं है, मगर कुछ घटनाओं और प्रवृत्तियों पर चर्चा की जा सकती है। भाजपा द्वारा चुनाव से पहले दिया गया ‘अब की बार, चार सौ पार’ का नारा नदारद हो चुका है। पूरी पार्टी को निर्ममता से दरकिनार कर सारा चुनाव अपने सिर पर उठा लेने वाले नरेन्द्र मोदी, गोदी मीडिया से लगातार ऑक्सीजन मिलने के बावजूद अब थक कर इतना हाँफने लगे हैं कि उनके विचित्र और विरोधाभासी बयानों ने उनके कट्टर समर्थकों तक को हतप्रभ कर दिया है। कर्नाटका का सेक्स आरोपी प्रज्वल रेवन्ना, जिसका चुनाव प्रचार मोदी ने किया था, जर्मनी भाग गया है। बंगाल की राजनीति को झकझोर देने वाला संदेशखाली प्रकरण अब एक सुनियोजित षडयंत्र साबित हो गया है। अरविन्द केजरीवल ने तीन हफ्ते के लिये जमानत पर वापस आने के बाद जिस तरह उ.प्र. के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की पद से विदाई और अमित शाह के प्रधानमंत्री बनने की संभावनाओं पर बात करना शुरू किया है, उससे भाजपा को पहली बार बचाव में आने को मजबूर होना पड़ा है। तय है कि अब की एन.डी.ए. की सरकार बनी तो खींचखाँच कर ही बनेगी और नरेन्द्र मोदी के सामने प्रधानमंत्री बने रहने की चुनौती तो बहुत ही कठिन होगी।