‘आधार कार्ड’ को लेकर सरकार की भ्रम फैलाने की कोशिश जारी है। 24 अगस्त को निजता के अधिकार के बारे में सर्वोच्च न्यायालय की नौ सदस्यीय संविधान पीठ का सर्वसम्मत निर्णय आने के बाद सरकार के रवैये में सावधानी और लचीलापन आ जाना था, क्योंकि आधार भी अन्ततः निजता का ही एक प्रकार है। मगर उसके रवैये में कोई फर्क पड़ा हो, ऐसा नहीं लगता।
सरकार को यदि ‘आधार’ को बचाना है तो उसे न्यायालय को संतुष्ट करना पड़ेगा कि आवश्यक सेवाओं को ‘आधार’ से जोड़ कर वह निजता को बहुत मामूली सीमा तक ही स्पर्श कर रही है और इससे निजता का उल्लंघन कतई नहीं हो रहा है। यह साबित करना बहुत आसान नहीं होने जा रहा है।
अभी भी देश के हर नागरिक के ऊपर दबाव बना हुआ है कि वह अपने बैंक खाते से लेकर मोबाइल कनेक्शन तक हर चीज को आधार से जोड़े। पिछले दिनों एक सुनवाई में जब सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्र सरकार से पूछा कि क्या वह बैंक खातों और मोबाइल कनेक्शनों को लेकर नागरिकों पर दबाव बना रही है तो सरकार का उत्तर अदालत को संतुष्ट नहीं कर सका। अटार्नी जनरल के. के. वेणुगोपाल ने यह कह कर कन्नी काटने की कोशिश की कि ‘’सरकार किसी को भी मजबूर नहीं कर रही है।’’
जाहिर है कि यह सरासर झूठ है और अदालत ने भी इसे स्वीकार नहीं किया, क्योंकि केन्द्र सरकार ने लिखित में यह देने से इन्कार कर दिया कि 31 दिसम्बर की उसके द्वारा घोषित समय सीमा तक उपरोक्त दो आवश्यक सेवाओं को आधार से न जोड़ने वालों के खिलाफ वह दण्डात्मक कार्रवाही नहीं करेगी। सरकार के इस संदिग्ध रवैये ने सर्वोच्च न्यायालय को ‘आधार’ की वैधता जाँचने के लिये एक पाँच सदस्यीय संविधान पीठ गठित कर देने पर विवश कर दिया है।
मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की तीन सदस्यीय खंडपीठ ने कहा है कि यह सांवैधानिक खंडपीठ नवम्बर अंत में अपनी सुनवाई शुरू करेगी। इसका निर्णय आने तक सरकार को आधार से जोड़ना बन्द कर देना चाहिये।