‘मानव जीवन थमता नहीं, हां कभी-कभी थक जरूर जाता है। बिडम्बना यह है कि इस जीवनीय थकान को ‘परे हट’ कहने का साहस कुछ ही लोग कर पाते हैं। ये ही लोग पग-पग पर मिली असफलताओं की थकान से उपजी सीख के बदौलत बाद में पहले से भी बेहतर जीवन जीने में कामयाब हो जाते हैं।’ श्रीनगर में आधुनिक सुविधाओं और साज-सज्जा से चमचमाते शानदार ‘जुगरान रेस्टोरेंट’ के मालिक राकेश चन्द्र जुगरान की सफल उद्यमशीलता की कहानी समाज को यही संदेश देती है।
श्रीनगर निवासियों में सर्वाधिक लोकप्रिय और चर्चित कराने में ‘जुगरान रेस्टोरेंट’ की उत्कृष्ट सेवाओं ने आज उसे यह पहचान दी है। परन्तु आज की इस लोकप्रिय पहचान की तह में उद्यमी राकेश जुगरान के जीवन संघर्ष की एक लम्बी श्रृंखला है। यह भी काबिले-तारीफ है कि विकट जीवनीय संघर्षों को पछाड़ने से हासिल आर्थिक सम्पन्नता ने उनके सौम्य और नम्र व्यवहार को और भी सादगी प्रदान की है।
राकेश चन्द्र जुगरान (50 वर्ष) मूलतः वरगड्डी गांव, लंगूर पट्टी, द्वारीखाल ब्लाक, पौड़ी (गढवाल) जनपद के निवासी हैं। माता-पिता की 9 संतानों में 4 भाई और 5 बहिनों का बड़ा परिवार था। गूजर-बसर के लिए खेती-बाड़ी और पशुपालन परिवार का मुख्य आधार था। तब के समय में ग्रामीण आर्थिकी के मजबूत होने के बाजजूद भी आम पहाड़ी जन-जीवन अभावग्रस्त ही था। गांव से 7 किमी. दूर सिलोगी से वर्ष 1989 में हाईस्कूल करने के बाद वे अपने बड़े भाई के पास बरेली आ गए। बरेली से वर्ष 1991 में इंटरमीडिएट करने के पश्चात देहरादून आकर नौकरी और आगे की पढ़ाई में जुट गए।
देहरादून से जीवनयापन और जीवनीय सपनों को पूरा करने के लिए जुगरान जी के संघर्षों की असली शुरुवात हुई। देहरादून में दवा कम्पनी और उसके बाद होटल में नौकरी उनके हिस्से आई। मामूली नौकरी से जरूरी खर्चे ही पूरे होने मुश्किल होते थे। इसके बावजूद भी पढ़ने की लगन उनमें बरकरार थी। नतीजन, डीएवी कालेज, देहरादून में बीएससी की सांयकालीन कक्षाओं में वे नियमित पढ़ने जाते थे। घनघोर आर्थिक दिक्कतों को सहते हुए वर्ष 1994 में बीएससी करके उन्होने दिल्ली की ओर प्रस्थान किया। अच्छी बात यह रही कि दिल्ली में नौकरी दर नौकरी बदलते हुए भी वे अपने बेहतर भविष्य के लिए प्रयत्नशील थे। शादी वर्ष 1994 में हो चुकी थी, पारिवार की बढ़ती जिम्मेदारियों से वे जूझ रहे थे। केवल एक नौकरी करके गुजारा होना मुश्किल होता था। इसलिए उनको कई तरह के पार्ट-टाइम कामों को करने की विवशता थी। इस सबके बावजूद बचपन के सुखद सपनों को साकार करने की दृड-इच्छाशक्ति उनका हौसला बनाए हुए था। इसी प्रेरणा से दिल्ली में रहकर वे पूसा संस्थान से पत्राचार माध्यम से होटल मैनेजमेंट में डिप्लोमा प्राप्त करके होटल व्यवसाय के कुशल और मान्यताप्राप्त कारीगर बन चुके थे।
दिल्ली में 3 साल नौकरी और पढ़ाई के उपरान्त वर्ष 1997 में जुगरान जी ने विदेश की ओर उडान भरी। यह उडान उनके जीवनीय सपनों को साकार करने की दिशा की ओर थी। जापान के चीवा शहर के एक मशहूर होटल में वे किचन सुपरवाइजर के रूप में काम करने लगे। जमकर और पूरी निपुणता से उन्होने लगातार 5 साल जापान के चीवा शहर में काम किया और नाम एवं दौलत हासिल की। क्योंकि अनुबंध मात्र 5 साल का था इसलिए निर्धारित समयावधि के बाद वे वापस अपने देश आ गए।
जापान से वापस आने पर जुगरान जी का गांव प्रेम हिलोरें लेने लगा। सबसे पहले अपने गांव वरगड्डी के पैतृक घर को नए स्वरूप में ठीक किया। गांव में रहकर व्यावसायिक स्तर पर खेती, सब्जी उत्पादन और पशुपालन करने का उन्होने बीड़ा उठा दिया। उस समय विदेश से वापस आये अन्य व्यक्तियों की तरह उनके पास उत्साह, हुनर और पूंजी भरपूर थी। परन्तु पहाड़ों में प्रचलित अन्य उदाहरणों की तरह प्रबंधकीय कौशल के गड़बड़ाने के कारण इन उद्यमीय प्रयासों को उनको रोकना पड़ा। परन्तु विदेश में कमाई पूंजी तो तब तक लगभग खत्म हो चुकी थी।
गांव से रोजगार की तलाश में वर्ष 2003 में जुगरान जी का पुनः दिल्ली आना हुआ। दिल्ली में कुछ महीने रहकर दुबई में किसी होटल में काम करने गए, परन्तु पारवारिक जिम्मेदारियों के बेहतर निर्वहन के दृष्टिगत 9 महीने बाद ही वापस अपने गांव और ससुराल रहने आ गए। अपने लिए रोजगार और बच्चों की पढ़ाई के लिए अनुकूल मानते हुए वर्ष 2004 में वे सपरिवार श्रीनगर में आये। जमा पूंजी कुछ थी नहीं और परिवार के भरण-पोषण की चुनौती सामने थी। लिहाजा श्रीनगर के एक होटल में नौकरी स्वीकार करके सामान्य जीवनयापन प्रारंभ कर दिया। लगभग 7 साल लगातार होटल में काम करने के बाद एक रेस्टोरेंट को साझे में चलाने प्रयास किया। परन्तु जैसा कि सामान्य अनुभव हैं कि पहाडी़ व्यक्ति साझेदारी में काम करते हुए कुछ ही समय बाद असहज हो जाते हैं।
साझेदारी के रेस्टोरेंट से विदा लेकर राकेश जुगरान जी ने श्रीनगर के पौड़ी बस अड़डे के पास वर्ष 2012 में ‘जुगरान विरयानी कार्नर’ शुरू किया। कुछ ही महीनों में ग्राहकों विशेषकर युवाओं में ‘जुगरान विरयानी’ लोकप्रिय होने लगी। धीरे-धीरे जुगरान जी के व्यवसाय का जम-जमाव होने लगा था कि प्रशासन ने नगरपालिका की ऐसी कई दुकानों को तकनीकी आधार पर खाली करवा दिया। जुगरान जी को लगा कि जीवन की समस्याओं और उनका गहरा नाता है। परेशानियां उनका साथ छोड़ने को तैयार नहीं थी। दूसरी तरफ जुगरान जी का जीवटपना था कि वे परेशानियों को ही परेशान करके उन्हें अपने पर हावी नहीं होने देते। श्रीनगर के बांसवाडा जगह पर ‘जुगरान विरयानी कार्नर’ फिर धमाकेदार रूप में संचालित होने लगा। यहां पर यह काम अपना आकार ही ले रहा था कि जुगरान जी को फिर चलायमान होना पड़ा। ‘जुगरान विरयानी कार्नर’ अब श्रीकोट पोस्ट आफिस के पास अपनी सेवायें देने लगा। ये बात काबिले-तारीफ है कि ‘जुगरान विरयानी कार्नर’ श्रीनगर में जगह-जगह बदलता रहा तो भी ग्राहकों में उसकी लोकप्रियता दिनों-दिन बड़ती ही रही।
लगभग 4 साल ‘जुगरान विरयानी कार्नर’ को संचालित करने के बाद उद्यमी राकेश जुगरान ने श्रीनगर के मेवाड़ काम्प्लेक्स में वर्ष 2016 से आलीशान ‘जुगरान रेस्टोरेंट’ का संचालन आरंभ किया है। वर्तमान में उच्च शिक्षा प्राप्त उनके दोनों सुपुत्र इसको संचालित करने में सहयोग प्रदान करते हैं। जुगरान परिवार की कड़ी मेहनत का परिणाम ही है कि विरयानी, चिकन, मटन, फिश, दाल मखानी, पनीर कोरमा, लच्छा पंराठा और पारिवारिक पार्टी एवं व्यावसायिक मीटिंग आदि के लिए ‘जुगरान रेस्टोरेंट’ की ख्याति श्रीनगर के अलावा अन्य नगरों और क्षेत्रों में बखूबी है।
हर समय और स्थिति में अपने चित्त को शांत और चेहरे पर स्वाभाविक मुस्कान के साथ सादा जीवन जीने वाले राकेश चन्द्र जुगरान आज कामयाब उद्यमी हैं। परन्तु उनकी कामयाबी के पीछे की उथल-पुथल किसी दूसरे व्यक्ति को दिखाई नहीं देती होगी। उसे तो उनके पास बैठकर ही समझा जा सकता है। सार यह है कि सकारात्मक सोच के साथ जीवन जिया जाय तो उद्यमी राकेश जुगरान जी तरह जीवन की तमाम जटिलतायें पास आकर भी निष्क्रिय हो जाती हैं।
अरुण कुकसाल