दिनेश जुयाल
चारधाम रोड विवाद पर सुप्रीमकोर्ट का फैसला कभी भी आ सकता है। सारे तर्क सुनने के बाद अदालत ने अपना फैसला सुरक्षित रखा है। ये लड़ाई हिमालय के लोगों और यहां के पर्यावरण की अनदेखी, गैर जरूरी कटान के आरोप के साथ शुरू हुई थी आगे जाकर मुख्य मसला सड़क की चौड़ाई का बना दिया गया। यह फैसला हिमालय के अस्तित्व से जुड़े कई सवालों के लिहाज से भी अहम होने वाला है। पहले स्थानीय लोगों और सरकार के बीच विवाद हुआ, फिर ये अफसरो- नेताओं और पर्यावरण की चिंता करने वाले वैज्ञानिकों के विवाद के रूप में दिखा। सरकार की तरफ से भी शुरुआत में यह एक आस्था के साथ विकास का मुद्दा था लेकिन कालांतर में इसे राष्ट्रीय सुरक्षा बनाम पर्यावरण का रूप दे दिया गया। सुप्रीमकोर्ट ने कहा तो है कि इसमें सुरक्षा बनाम पर्यावरण जैसा कोई विवाद नहीं आपको इसे सुलझाना होगा। कोर्ट का ये आव्जर्बेशन भी उम्मीद जगाने वाला है। लेकिन जिस तरह से चौड़ी सड़क की पैरोकारी में तर्क रखे गए और सवाल पूछे गए उससे एक पक्ष चिंता में है। वैसे न्याय के मंदिर में शंका की गुंजाइश नहीं होनी चाहिए लेकिन क्या करें दौर ही ऐसा है
असल में यह मुद्दा राजनीति के विकास माडल और वैज्ञानिक माडल के बीच की लड़ाई का है। वैज्ञानिक तर्क दे रहे हैं कि यह एक ऐसा राजनीतिक विकास माडल है जिसमें खुद सरकार सस्टेनेबिलिटी और वैज्ञानिक सोच की उपेक्षा कर रही है। अब तक कहानी जिस तरह सामने आयी है उससे लगता है कि बस एक बड़ा सपना है जिसे जल्द से जल्द पूरा किया जाना था। इस विकास में नेता हैं, अफसर हैं और ठेकेदार हैं। जो जनहित और राष्ट्रहित में होने का दावा करते हैं। दूसरे पाले में खड़े लोग हिमालय पर तमाम शोध रिपोर्ट का पुलिंदा लेकर इस विकास को संतुलित रखने की बात कर रहे हैं।
उत्तराखंड के चारधामों तक अच्छी सड़क हो इस पर भला किसी को भी ऐतराज कैसे हो सकता है। यहां से सीमा करीब है इसलिए सेना का आवागमन सुगम हो इस पर भी कोई विवाद नहीं। विवाद इस पर है कि इस विकास के लिए हिमालय को कितना काटा छांटा जाए। सड़क की चौड़ाई कितनी होनी चाहिए। पहले से बने कानूनों का कितना उल्लंघन करना इस विकास के हित में है। सड़क बनाने वाले पर्यावरण का कितना ध्यान रख रहे हैं इसकी निगरानी के लिए सुप्रीमकोर्ट ने एक उच्चाधिकार प्राप्त कमेटी बनाई। इस कमेटी में शामिल किए गए वैज्ञीनिकों और अफसरों में मोर्चाबंदी सी हो गई। प्रदेश के आठ डीएम, पांच और बड़े आधिकारी, केंद्र के दो अफसर और सरकारी संस्थाओं के पांच प्रतिनिधि हमेशा एक तरफ रहे। कोर्ट की गाइड लाइन में था कि जहां विवाद हो वहां बहुमत से फैसला करें। इसीलिए बिना चेयर की अनुमति के रिपोर्ट भी बना दी गई जाहिर है रिपोर्ट सरकार की मंशा के अनुरूप थी लेकिन कोर्ट को ये समझ में नहीं आयी और चार वैज्ञानिकों की अल्पमत रिपोर्ट को तरजीह दी गई। इसके बाद भी तमाम कायदे ताक पर रख कर काम होता रहा। कमेटी के वैज्ञानिक भी मौन से हो गए। दरअसल इस सड़क की निर्माण प्रक्रिया की बुनियाद ही बेअंदाजी से हुई। 900 किलोमीटर सड़क से लिए केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय से एनवायरनमेंटल क्लीयरेंस लेने की जरूरत ही नहीं समझी गई। मंत्रालय ने 12 मार्च 2018 के अपने शपथ पत्र में ये बात कही तो फिर बताया गया कि ये 53 सड़कें बन रही हैं। गुपचुप अनुमति, रोड के मानकों को ढीले करते जाना और कट एंड फिल की जगह कट एंड डंप की निर्माण नीति को वरदहस्त, धमाकों से मुंहफेर लेना, गंगा की धाराओं को डंपिंग जोन बनाते जाना… एक लंबी कहानी है। अब चूंकि फैसला प्रतीक्षित है तो इस कहानी गुण दोषों पर विवेचन उचित नहीं।
सरकार की जिद है कि सड़क तो 12 मीटर चौड़ी ही बनेगी। डबल लेन होगी तो उस पर टोल बैरियर से कमाई होगी। इसके विरोध में तर्क हैं कि पर्यटन से कमाई होगी, ठीक है लेकिन गरीब उत्तराखंडियों को पहाड़ से मैदान में उतरने के बारे में भी सोचना पड़ेगा। उनके पानी के धारे और खेत तक सड़क बनाने वालों ने मलबे में दबा दिए हैं। 161 जगहों पर नए भूस्खलन जोन बना दिए हैं, जहां हादसे हो रहे हैं। तमाम भूवैज्ञानिक और प्रभावित लोग जिस विकास पर सवाल उठा रहे हैं वह अनवरत जारी है। कभी सेना प्रमुख ने कहा था कि भारी साजो सामान के लिए हम ट्रकों का इस्तेमाल नहीं करते और न ही हमें इतनी चौड़ी सड़क चाहिए। इस आधार पर सवाल पूछे गए कि ढाई मीटर चौड़े वाहन के लिए 7 मीटर की सड़क कम क्यों लग रही है? डबल लेन क्यों जरूरी है? क्या सिर्फ टोल के लिए ? यह भी सवाल उठाया जा रहा है कि कि चारों धामों पर ब्रह्मोस तैनात होंगी क्या? चौड़ी सड़क के पैरोकारों की तरफ से तर्क दिया गया कि हिमालय के दरकने की वजहें सिर्फ निर्माण नहीं और भी हैं। वैज्ञानिक भी यही कह रहे हैं कि इस अति संवेदनशीन और नाजुक हिमालय पर इतने प्रहार न करिए कि जो नुकसान100 साल में होना है वह 10 साल में ही हो जाए। यहां पहले से ही भूगर्भीय गतिविधियां जारी हैं और ग्लोबल वार्मिंग का इम्पैक्ट भी लगातार बढ़ रहा है। अदालत के पास इससे जुड़ी कई रिपोर्ट हैं जिनमें न सिर्फ इस सड़क से संबंधित बल्कि पूरे हिमालय की संवेदनशीलता का जिक्र है। इस निर्माण के इम्पैक्ट का ब्योरा है, पक्ष विपक्ष के तर्क हैं। अदालत चूंकि अपनी उच्चधिकार प्राप्त कमेटी के जरिए इस सारी कवायद पर नजर रखे हुए थी तो उसे ये भी पता है कि इस खेल में किसने कितने फाउल किए। यह भी ठीक से पता है कि किन कायदों कानूनों की अवहेलना हुई और किसने की। अदालत तथ्यों पर फैसला देती है। फैसले से जाहिर होगा है कि जिरह के दौरान कितनी संजीदगी से सच्चाई का उद्घाटन किया गया। यकीनन यह सिर्फ सड़क की चौड़ाई का मसला मात्र नहीं है, इसके और भी पहलू हैं। बहरहाल इस लंबी लड़ाई के बाद हिमालय के हित में एक ऐतिहासिक फैसले की उम्मीद तो की ही जा सकती है।