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निहुणियाँ नैनीताल समाचार वाले
मिले
श्रद्धेय पाठक प्रवर को
नैनीताल समाचार के सभी पाठकों, सहयोगियों, लेखकों और शुभेच्छुओं को हरेले की बहुत-बहुत बधाई। सावन मास के इस ऋतु पर्व का हमारे उत्तराखंड के पारंपरिक समाज के लिए अत्यधिक महत्व रहा है और आधुनिकता एवं तथाकथित विकास की भागमभाग के बावजूद इस लोक पर्व की जड़ें अभी भी हमारे समाज के भीतर बहुत गहरे तक पैठी हुई हैं। हरेले का यह पर्व हमें प्रकृति के साथ अपने समाज के संबंधों को मजबूत रखने का अवसर देता है और साथ ही साथ हमें यह भी बताता है कि प्रकृति और हमारा अस्तित्व किस तरह एक-दूसरे का पूरक है, एक दूसरे से जुड़ा हुआ है। ग्रीष्म की भीषण तपन के बाद सावन की झड़ियों का आगमन हमारे जीवन के लिए एक आह्लादकारी अनुभव होता है। धरती अपनी प्यास बुझाती है, हरियाली अपना सिर उठाने लगती है और नदियां, झरने तथा सोते नवजीवन की खुशियों से कल-कल करने लगते हैं। धान के खेतों में हुड़किया बौल की धुन सुनाई देने लगती हैं और पीली मटमैली धरती हरियाली की चादर ओढ़ कर नव यौवना की तरह शर्माने लगती है। बारिश के इस मौसम में कवियों का सौंदर्य बोध भी अति जाग्रत हो उठता है।
वेदों की ऋचाओं से लेकर कालिदास जैसे विद्वानों के लेखन में वर्षा के कशीदे पढ़े गए हैं। आसमान में बारिश लाने वाले बादलों को देख आधुनिक कवि भी कह उठता है कि –
नभ के नीले आँगन में
घन घोर घटा घिर आईं।
इस मर्त्य-लोक को देने
जीवन-संदेशा लाईं।
है परहित निरत सदा ये
मेघों की माल सजीली।
इस नीरस, शुष्क जगत को
करती हैं सरस, रसीली।
इससे निर्जीव जगत जब
सुंदर, नव जीवन पाता।
हालांकि हमारे दौर के महत्वपूर्ण कवियों में शुमार आलोक धन्वा बारिश को एक अलग नजरिए से देखते हैं –
बारिश एक राह है
स्त्री तक जाने की
बरसता हुआ पानी
बहता है
जीवित और मृत मनुष्यों के बीच
बारिश
एक तरह की रात है
एक सुदूर और बाहरी चीज़
इतने लंबे समय के बाद भी
शरीर से ज़्यादा
दिमाग़ भीगता है
कई बार
घर-बाहर एक होने लगता है!
बड़े जानवर
खड़े-खड़े भीगते हैं देर तक
आषाढ़ में
आसमान के नीचे
आदिम दिनों का कंपन
जगाते हैं
बारिश की आवाज़ में
शामिल है मेरी भी आवाज़ !
बागी कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का बारिश को लेकर कुछ अलग ही अंदाज है। निराला कहते है कि –
तिरती है समीर-सागर पर
अस्थिर सुख पर दुःख की छाया
जग के दग्ध हृदय पर
निर्दय विप्लव की प्लावित माया
यह तेरी रण-तरी
भरी आकांक्षाओं से,
घन, भेरी-गर्जन से सजग सुप्त अंकुर
उर में पृथ्वी के, आशाओं से
नवजीवन की, ऊँचा कर सिर,
ताक़ रहे हैं, ऐ विप्लव के बादल !
फिर-फिर
बार-बार गर्जन
वर्षण है मूसलधार,
हृदय थाम लेता संसार,
सुन-सुन घोर वज्र-हुंकार।
अशनि-पात से शायित उन्नत शत-शत वीर,
क्षत-विक्षत हत अचल-शरीर,
गगन-स्पर्शी स्पर्धा-धीर।
हँसते हैं छोटे पौधे लघुभार
शस्य अपार,
हिल-हिल,
खिल-खिल
हाथ हिलाते,
तुझे बुलाते,
विप्लव-रव से छोटे ही हैं शोभा पाते।
अट्टालिका नहीं है रे
आतंक-भवन,
सदा पंक पर ही होता
जल-विप्लव-प्लावन,
क्षुद्र प्रफुल्ल जलज से
सदा छलकता नीर,
रोग-शोक में भी हँसता है
शैशव का सुकुमार शरीर।
रुद्ध कोष, है क्षुब्ध तोष
अंगना-अंग से लिपटे भी
आतंक-अंक पर काँप रहे हैं
धनी, वज्र-गर्जन से बादल।
त्रस्त नयन-मुख ढाँप रहे हैं।
जीर्ण बाहु, है शीर्ण शरीर,
तुझे बुलाता कृषक अधीर,
ऐ विप्लव के वीर!
चूस लिया है उसका सार,
हाड़-मात्र ही है आधार,
ऐ जीवन के पारावार !
अपने वक्त के मस्ताने रचनाकार नजीर अकबराबादी ने भी बारिश को अलग नजरिए से देखा था। बकौल नजीर –
बरसात का जहान में लश्कर फिसल पड़ा।
बादल भी हर तरफ़ से हवा पर फिसल पड़ा।
झड़ियों का मेह भी आके सरासर फिसल पड़ा।
छज्जा किसी का शोर मचा कर फ़िसल पड़ा।
कोठा झुका अटारी गिरी दर फ़िसल पड़ा।
जिनके नये-नये थे मकां और महल सरा।
उनकी छतें टपकती हैं छलनी हो जा बजा।
दीवारें बैठती हैं छल्लो एक तरफ से पक्की और
दूसरी तरफ से कच्ची दीवार का गुल मचा।
लाठी को टेक कर जो सुतूं है खड़ा किया।
छज्जा गिरा मुंडेरी का पत्थर फिसल पड़ा।
झड़ियों ने इस तरह का दिया आके झड़ लगा।
सुनिये जिधर उधर है धड़ाके ही की सदा।
कोई पुकारे है मेरा दरवाज़ा गिर चला।
कोई कहे है ”हाय“ कहूं तुमसे अब मैं क्या ?
”तुम दर को झींकते हो मेरा घर फिसल पड़ा।
बारां जब आके पुख़्ता मकां के तईं हिलाय।
कच्चा मकां फिर उसकी भला क्योंकि ताव लाय।
हर झोपड़े में शोर है हर घर में हाय हाय।
कहते हैं ”यारो, दौड़ियो, जल्दी से“ वाय वाय।
पाखे पछीत सो गए छप्पर फिसल पड़ा।
आकर गिरा है आय किसी रंडी का जो मकां।
और उसके आशना की भी छत गिरती है जहां।
कहता है ठट्ठे बाज़ हर एक उनसे आके वां।
क्या बैठे छत को रोते हो तुम ऐ मियां यहां।
वां चित यां तक हर एक मकां के
फिसलने की है ज़मीं।
निकले जो घर से उसको फिसलने का है यकीं।
मुफ़्लिस पर ही यह कुछ कुछ नहीं।
क्या फ़ील का सवार है क्या पालकी नशीं
आया जो इस जमीन के ऊपर फिसल पड़ा।
कोरोना का ग्रास बन गए हमारे प्रिय मंगलेश दा यानी मंगलेश डबराल बारिश को मानवीय संबंधों के चश्मे से देखते हुए कहते हैं –
खिड़की से अचानक बारिश आई
एक तेज बौछार ने मुझे बीच नींद से जगाया
दरवाजे खटखटाए खाली बर्तनों को बजाया
उसके फुर्तीले कदम पूरे घर में फैल गए
वह काँपते हुए घर की नींव में धँसना चाहती थी
पुरानी तस्वीरों टूटे हुए छातों और बक्सों के भीतर
पहुँचना चाहती थी तहाए हुए कपड़ों को
बिखराना चाहती थी वह मेरे बचपन में बरसना
चाहती थी मुझे तरबतर करना चाहती थी
स्कूल जाने वाले रास्ते पर
जो हमउम्र थे पता नहीं
कहाँ तितर बितर हो गए थे
उनके नाम किसी और बारिश में पुँछ गए थे
भीगती हुई एक स्त्री आई जिसका चेहरा
बारिश की तरह था जिसके केशों में बारिश
छिपी होती थी जो फिर एक नदी बनके
रचली जाती थी इसी बारिश में एक दिन
मैं दूर तक भीगता हुआ गया इसी में कहीं लापता
हुआ भूल गया जो कुछ याद रखना था
इसी बारिश में कहीं रास्ता नहीं दिखाई दिया
इसी में बूढ़ा हुआ जीवन समाप्त होता हुआ दिखा
एक रात मैं घर लौटा जब बारिश थी पिता
इंतजार करते थे माँ व्याकुल थी
बहनें दूर से एक साथ
दौड़ी चली आई थीं बारिश में हम सिमटकर
पास-पास बैठ गए हमने पुरानी तस्वीरें देखीं
जिन पर कालिख लगी थी शीशे टूटे थे
बारिश बार बार उन चेहरों को
बहाकर ले जाती थी
बारिश में हमारी जर्जरता अलग तरह की थी
पिता की बीमारी और
माँ की झुर्रियाँ भी अनोखी थीं
हमने पुराने कमरों में झाँककर देखा
दीवारें साफ कीं जहाँ छत टपकती थी
उसके नीचे बर्तन रखे हमने धीमे धीमे बात की
बारिश हमारे हँसने और रोने को दबा देती थी
इतने घने बादलों के नीचे हम बार बार
प्रसन्न्ता के किसी किनारे तक जाकर
लौट आते थे
बारिश की बूँदें आकर लालटेन का काँच
चिटकाती थीं माँ बीच बीच में उठकर देखती थी
कहीं हम भीग तो नहीं रहे बारिश में।
बारिश आती है तो अपने साथ पानी का खजाना भी लाती है। इस खजाने से करोड़ों लोगों की जिंदगियों को नए मायने मिलते हैं तो इस खजाने पर डांका डालने वाले लोग भी हमारे समाज में कम नहीं हैं। गिर्दा ने बारिश की त्रासदी पर भी लिखा है और बारिश के सौंदर्य पक्ष पर भी। लेकिन पानी के व्यापार पर गिर्दा की व्यग्रता कुछ इस प्रकार व्यक्त हुई थी-
एक तरफ बर्बाद बस्तियाँ-एक तरफ हो तुम।
एक तरफ डूबती कश्तियाँ-एक तरफ हो तुम।
एक तरफ है सूखी नदियाँ-एक तरफ हो तुम।
एक तरफ है प्यासी दुनिया- एक तरफ हो तुम।
अजी वाह! क्या बात तुम्हारी,
तुम तो पानी के व्यापारी
खेल तुम्हारा, तुम्हीं खिलाड़ी,
बिछी हुई ये बिसात तुम्हारी
सारा पानी चूस रहे हो,
नदी-समन्दर लूट रहे हो
गंगा-यमुना की छाती पर,
कंकड़-पत्थर कूट रहे हो
उफ!! तुम्हारी ये खुदगर्जी,
चलेगी कब तक ये मनमर्जी
जिस दिन डोलेगी ये धरती,
सर से निकलेगी सब मस्ती
महल-चौबारे बह जायेंगे, खाली रौखड़ रह जायेंगे
बूंद-बूंद को तरसोगे जब,
बोल व्यापारी-तब क्या होगा?
नगद-उधारी-तब क्या होगा??
आज भले ही मौज उड़ा लो,
नदियों को प्यासा तड़पा लो
गंगा को कीचड़ कर डालो
लेकिन डोलेगी जब धरती-
बोल व्यापारी-तब क्या होगा?
विश्व बैंक के टोकन धारी-तब क्या होगा?
योजनाकारी-तब क्या होगा?
नगद-उधारी तब क्या होगा?
एक तरफ हैं सूखी नदियाँ-एक तरफ हो तुम।
एक तरफ है प्यासी दुनिया-एक तरफ हो तुम।
गौर से देखें तो हरेला, सावन, बारिश और पानी का आपस में बड़ा ही करीबी रिश्ता है। प्रकृति और हरियाली तथा इन दोनों की जुगलबंदी से तरबतर होने वाला जीवन भी इसी रिश्ते का एक पहलू है। जब तक प्रकृति से हमारा रिश्ता सौजन्यपूर्ण था, एक दूसरे के सम्मान का था, तब तक तो सब कुछ ठीक चल रहा था। लेकिन हमारी अंतहीन लालसाओं और अविवेकपूर्ण बेरहम लूट खसोट ने प्रकृति को मजबूर कर दिया कि वो भी अपने तथा हमारे बीच के रिश्ते को पुनर्परिभाषित करे। इसी का परिणाम है कि आज पूरी दुनिया में प्राकृतिक आपदाएं लगातार बढ़ रही हैं और जानमाल को भारी क्षति होने लगी है। उत्तराखंड भी इसका अपवाद नहीं है। चूंकि उत्तराखंड पहले से ही प्राकृतिक और भूगर्भीय दृष्टिकोण से अत्यंत संवेदनशील इलाका है एवं यहां पर तथाकथित विकास योजनाओं के लिए जिस अवैज्ञानिक और निर्ममता पूर्वक तरीके काम हो रहा है उसने हमारे संकट को अनेक गुना बढ़ा दिया है। आज बारिश हमारे लिए खुशियों की जितनी संभावनाएं लाती है उससे कई गुना अधिक हमारे जीवन और परिवेश के लिए खतरों की आशंकाओं को लेकर आती है। करीब 30-35 वर्ष पहले गिर्दा ने हरेले के मौसम में ऐसी ही एक बरसात के दौरान एक कविता लिखी थी
अलि बेरा चौमास जैंता
कर्मी बगी गाड़ जैंता
घर जानू, भलि है रए
कर्मी गांव के उस भीषण हादसे के बाद से तो एक सिलसिला शुरू हो गया था। आज बड़े-छोटे बांधों, जल विद्युत परियोजनाओं, ऑल वैदर रोड जैसी गैरजरूरी योजनाओं, नदियों और वन संपदा के अनियंत्रित दोहन पर्यटन के नाम पर उमड़ रही असंवेदनशील भीड़ और शासन-प्रशासन द्वारा इन सब के खिलाफ होने वाले स्थानीय जनप्रतिरोध की सरासर अनसुनी करने का नतीजा यह हुआ है कि पूरा उत्तराखंड भूखे शेर के सामने पड़े मृग छौने जैसी असहाय हालत में पहुंच गया है। नेपाल सीमा में पंचेश्वर वाले इलाके से लेकर हिमाचल सीमा से सटे टौंस नदी के इलाके तक हर ओर विकास एवं बारिश आतंक का पर्याय बन गए हैं। पहली ही बारिश ने उत्तराखंड के सबसे पुराने शहरों में से एक जोशीमठ जैसे ऐतिहासिक स्थान के अस्तित्व पर छाए संकट को और गहरा दिया है।
इसलिए आज चारों ओर छाए भयावह अंधेर के बीच हमारे भेजे हरेले के ये तिनड़े हमारे पाठकों सहयोगियों और सभी नागरिकों की रक्षा का संबल बनें, ऐसी कामना करते हुए हम ये हरेला आप सब को समर्पित कर रहें हैं। शिरोधार्य कीजिएगा।