चन्द्रशेखर तिवारी
सन 1915 से लेकर 1946 तक गांधी जी का पांच बार उत्तराखण्ड में आगमन हुआ और वे काफी समय तक यहां रहे भी। ‘सच्चा हिमालय तो हमारे हृदय में है, इस हृदय रुपी गुफा में छिपकर उसमें शिव दर्शन करना ही सच्ची यात्रा है, यही पुरुषार्थ है।’ महात्मा गांधी के इसी विचार ने सम्भवतः उन्हें बार-बार हिमालय की पहाड़ियों में आने को प्रेरित किया। सबसे पहले वे 1915 के कुम्भ मेले पर हरिद्वार आये। दूसरी बार 1916 में उनका पुनः हरिद्वार में पुनः आगमन हुआ इस समय उनकी स्वामी श्रद्धानंद से मुलाकात भी हुई। इसके बाद गांधी जी 1929 व 1931 में कुमाऊं व 1946 में देहरादून व मंसूरी की भी यात्रा पर आये।
सन 1929 के जून माह में जब गांधी जी का स्वास्थ्य कुछ शिथिल हो रहा था तो वे पंडित नेहरू के आग्रह पर स्वास्थ्य लाभ के लिए अहमदाबाद से कुमांऊ की पहाड़ियों में यात्रा को निकल पड़े। हांलाकि गांधी जी की इस यात्रा का प्रमुख उद्देश्य हिमालय क्षेत्र की शान्त प्रकृति और वहां की शीतल आबोहवा में कुछ दिन विश्राम कर स्वास्थ्य लाभ प्राप्त करना था परन्तु साथ ही साथ इस यात्रा का एक अन्य मकसद स्थानीय कार्यकर्ताओं से मिलना, चन्दा एकत्र करना तथा पहाड़ की जनता में स्वावलंबन व खादी का प्रचार करना भी रहा।
गांधी जी बरेली से हल्द्वानी, नैनीताल, ताकुला, भवाली, ताड़ीखेत होते हुए जब 18 जून 1929 को अल्मोड़ा पहंुचे तो उन्हें यहां आकर असीम शान्ति का अनुभव हुआ। अल्मोड़ा में तीन दिन बिताने पर उन्हें हिमालय और उसके महत्व को बहुत करीब से समझने का अवसर मिला। अल्मोड़ा के बारे में वे लिखते हैं – ‘शिमला और दार्जिलिंग भी हिमालय के प्रदेश हैं, किन्तु वहां मुझे हिमालय की महिमा का भान न हो सका । वहां मैं रहा भी थोड़े समय तक,फिर भी मुझे तो वह प्रदेश एक अंग्रेजी बस्ती जैसा लगा। अल्मोड़ा आकर अलबत्ता मैं इस बात की कल्पना कर सका कि हिमालय क्या है।’
हिमालय की पारिस्थितिकी पर दिये गये उनके वक्तव्यों से साफ जाहिर होता है कि आज से आठ-दशक पूर्व गांधी जी हिमालय की संवेदनशीलता और उसकी उपादेयता से भली-भांति परिचित हो चुके थे। हिमालय के बारे में उनका यह कथन पर्यावरणीय दृष्टि से जरुर समझा जाना चाहिए ‘यदि हिमालय न हो तो गंगा, यमुना,ब्रह्मपुत्र और सिन्धु भी न हो तो भारत रेगिस्तान या सहारा की मरुभूमि बन जाय। इस बात को जानने वाले और सदैव हर बात के लिए ईश्वर का उपकार मानने वाले हमारे दीर्घदर्शी पूर्वजों ने हिमालय को यात्रा धाम बना दिया था।’
अल्मोड़ा के अलावा कौसानी भी गांधी जी की प्रिय जगह रही। जहां उन्होंने 12 दिन तक प्रवास किया। कौसानी में रहकर उन्होंने गीता पर आधारित अनासक्ति योग की टीका भी लिखी। हिमालय की गोद में बसे कौसानी से गढ़वाल से लेकर नेपाल तक मीलों लम्बी पर्वत श्रृंखलाओं का मनोरम दृश्य दिखायी देता है। यहां की प्राकृतिक छटा और स्वास्थ्यवर्धक आबोहवा से गांधी जी अत्यंत अभिभूत रहे। कौसानी को ‘भारत का स्वीजरलैंड’ की संज्ञा देते हुए उन्होंने ‘यंग-इंडिया’ के लिए एक लेख भी लिखा जो 11 जुलाई 1929 के अंक में प्रकाशित भी हुआ इस लेख में उनका विचार था कि कुमाऊं के पर्वतों में तकरीबन तीन सप्ताह तक रहते हुए उन्हें यह अनुभव हुआ है कि भारत में इतनी सुन्दर जगहों के होते हुए भी भारत के लोग स्वास्थ्य लाभ के लिए योरोप व अन्य देशों की यात्रा क्यों करते होंगे इस बात पर उन्हें वाकई बहुत अचरज हुआ वे लिखते है- ‘हिमालय की स्वास्थ्यवर्धक जलवायु, उसका मनोहर दृश्य, चारों तरफ फैली हुई सुहावनी हरियाली यहां आपकी किसी भी अभिलाषा को अपूर्ण नहीं रखती। मैं सोचता हूं कि इन पर्वतों के दृश्यों तथा जलवायु से बढ़कर होना तो दूर रहा इनकी बराबरी भी संसार का कोई भी अन्य स्थान नहीं कर सकता।’
कौसानी प्रवास के दौरान चांदी के समान चमकते हिम शिखरों से गांधी जी का सम्मोहन बराबर बना रहा। बर्फ के पहाड़ गांधी जी के मन में तरह-तरह के दार्शनिक बिम्ब भी पैदा करते रहे। हिम शिखरों में जमी इस बर्फ को जब गांधी जी अबोध बालकों के नजर से देखते हैं तो वह उनके लिए वह फेनी मिठाई बन जाती है। वहीं जब वे भावुक हिन्दू मन के नजरिये से देखने का यत्न करते हैं तो यह बर्फ उन्हें शिव की जटा समान लगने लगती है वही जटा जिसने धरती को प्रलय से बचाने के निमित्त गंगा की विशाल धारा को रोका हुआ है। इन सबसे परे जब वह खुद के नजरिये से हिमालय को देखते हैं तो यह बर्फ उन्हें चरखे की रुई का ढेर लगने लगता है जिसे अभी-अभी कपास से साफ करके निकाला गया हो- ‘बालक उस दृश्य को देखें तो कह उठे, यह तो फेनों का पहाड़ है…..मुझ जैसा चरखे का दीवाना कहेगा कपास बिनकर, लोढ़कर और रुई पींजकर किसी ने रेशम जैसी रुई का अखूट पहाड़ खड़ा कर रखा हो। इस देश के लोग कैसे पागल हैं कि इतनी रुई के रहते हुए भी नंगे-भूखे और मारे-मारे फिरते हैं।’
सही मायनों में देखा जाय तो अराजकता व हिंसा के दौर में जी रही दुनिया को भाईचारा व प्रेम का मार्ग दिखाने वाले गांधी तमाम जगहों पर एक सामयिक पर्यावरण के कुशल जानकार व चिंतक की भूमिका में भी नजर आते हैं। गांधी जी के तमाम विचारों में प्रकृति व मानव के सह सम्बन्धों, उसके सीमित उपयोग और उसके बेलगाम दोहन के प्रति चिन्ताएं साफ तौर पर दिखायी देती है। प्रकृति में मौजूद संसाधनों के दोहन के संबंध में उनका विचार था कि हमें प्रकृति से उतना ही ग्रहण करना चाहिए जितना कि हमें जरुरत है। आवश्यकता से अधिक लेकर प्रकृति को बरबाद करना वे उचित नहीं मानते थे। गांधी जी स्वयं में प्रकृति को एक प्रेरक व अनमोल साधन के रुप में पाते हैं, इस संदर्भ में उनका यह दार्शनिक चिंतन अत्यंत महत्वपूर्ण है – ‘मुझे इस प्रकृति के अतिरिक्त किसी प्रेरणा की आवश्यकता नहीं है। उसने कभी भी मुझे विफल नहीं किया है। वह मुझे चकित करती है, भरमाती है, मुझे आनंद की ओर ले जाती है।’