बृजमोहन जोशी
प्रकृति के प्रति आत्मीय भाव और उसका मानवीकरण, मनुष्य जीवन में आदि काल से ही चला आ रहा है। इसी भाव ने पर्वतीय लोक जीवन में भी अनेक परम्पराओं और ऋतु त्योहारों को जन्म दिया है। हिमालय में जब बर्फ़ पिघलने लगती है तब फूल खिलने प्रारम्भ हो जाते हैं, अर्थात् ऋतुराज बसन्त का आगमन हो जाता है। बसंत के आगमन के स्वागत में माघ शुक्ल पंचमी को बसंत पंचमी का त्योहार मनाया जाता है। इस दिन विद्या की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती की उपासना/आराधना करके जौं पूजे जाते हैं। जौं के पौधों को गोबर के साथ घर के दरवाजे के शीर्ष पर चिपका दिया जाता है और जौं के तृणों में घी लगाकर घर के अनुपस्थित सदस्यों के लिये रख लिया जाता है। इसे जौं संगरात (संक्रान्ति) भी कहा जाता है। घर के बच्चों को इस दिन से अक्षर बोध कराया जाता है। अन्नप्राशन, मुण्डन, यज्ञोपवीत संस्कार तथा बालिकाओं के नाक कान छेदने के लिए यह दिन अत्यन्त शुभ माना जाता है। वर्तमान में तो विवाह संस्कार के लिये भी यह दिन शुभ माना जाने लगा है।
लोकगीत लोक अभिव्यक्ति का सबसे सरलतम रूप है। लोक में मनुष्य समाज का वह वर्ग है जिसका जुड़ाव शास्त्रीय पाण्डित्य से नहीं है। लोक का आधार है परम्परा का प्रवाह। इसीलिए लोकगीत अपनी परम्पराओं में कालजयी होते हैं-
ऋतु में ऋतु को बड़ी,
ऋतु में ऋतु बसन्त बड़ी।
लोक गायक गाता है –
ऋतु औनि रौली, भंवर उडाला बलि।
हमरा मुलुका भंवर उड़ाला बलि
बसन्त छू आज
ऋतु बसन्ती है जौं हम
कण्ठ हमार ताल द्वि छौं
मन नाचू छम-छम
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आयो नवल वसन्त
सखी ऋतुराज कहावे।
पुष्पकली सब फूलण लागी
फूल ही फूल सुहावे
बसन्ती गीत फूलदेई की परम्परा को व्यक्त करते हैं –
फूल देई छम्मा देई,
दैणी द्वार भर- भकार ।
यौ देलि सौ नमस्कार,
पूजै द्वार बारंबार
फूल देई का यह त्यौहार इस अंचल में कहीं कहीं एक दिन, कहीं सात दिन, कहीं पन्द्रह दिन तो कहीं तो कहीं- कहीं माह भर तक मनाया जाता है। कहीं यह शक सम्वत्सर भारतीय हिन्दू नव-वर्ष के स्वागत के पर्व के रूप में मनाया जाता है तो कहीं चैत माह की विदाई के प्रतीक के रूप में।
देली पूजन व “बुड़़ कौतिक“ एक गते बैशाख को मनाया जाता है। गढ़वाल अंचल में बसन्त के गीतों को बसन्ती झुमैलो, खुदेड़ गीत और चैती गीत के रूप में मनाया जाता है-
क्वीराल फूल फूलिगे म्यर भिना ।
बसंती रंग ल्यादे म्यर भिना
खुदेड़ गीत बसन्त ऋतु में मुख्य रूप से गाए जाने वाले गीत हैं। ‘खुद’ शब्द का आशय क्षुधा शब्द से लगाया जाता है। क्षुधा मतलब अपनों से मिलने की प्यास/उत्कंठा खुद कहलाती है। खुदेड़ गीतों में भी बसन्त का वर्णन निहित रहता है-
भली बसन आन्द क्या फूल छ ।
ए बाऊ फुलार क्या फूल छा
बिनसरी ब टिन क्या फूल छ ।
भयैर ऐगी देखा क्या फूल छ
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रैमासी को फूल कविलास – हरिकुंज
कै मैना मोललो फूल कविलास
बैशाख……………..फूललो कविलास
गढ़वाल के चैती गीत, गढ़वाल में अन्यत्र गाए जाने चैती गीतों से भिन्न हैं। यहाँ चैत के महिने भर ’झुमैलो’ लोक गीत गाए जाते हैं। इन लोक गीतों लोकगीतों को संदेशात्मक गीत भी कह सकते हैं।
आई गैन ऋतु-बौड़ी
दांई जसि फेरो झुमैलो
मेरा मैत्यु की पुगड़यो को मेड़ा झुमैलो
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झुमैलो – झुमैलो , लगौला झुमैलो
रांड की रडिवाली म्वारी रुडाली
झपनाली हिलास बांसली झुमैलो
यह माह लोक गायक, वादक तथा बादी लोग जिनमें बेडा, बाजगी, ढोली, बद्दी, औजी तथा दास लोग हैं। यह इनका प्रिय महीना माना जाता है। यह लोग घर-घर जाकर बसन्ती चैती गीतों को गाते हैं और नव-वर्ष की बधाई देते हैं तथा ’चैती पसारा’ नामक भेंट प्राप्त करते हैं।
इन लोकगीतों में बसन्त, ऋृतुरैण, चैती गीतों के अलावा आख्यान अधिक होते थे। इन लोकगीतों में राजा हरिश्चन्द्र, चन्दावली, जसी, ज्यूली, सरु, गोरिधना, सदैई आदि की लोकगाथाएँ गाई जातीं थीं। अब यह लोकविधा भी लगभग समाप्ति की ओर है। यह लोकगायक फाल्गुन मास में जब होली की आशीष देते तो कहते-
बरस दिवाली बरसे फाग, जो नर जीवें खेलें फाग ।
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और चैत मास में नव वर्ष की बधाई देते हुए भी सचेत करते हुए भी करते थे –
जो भागी जियलवें,
नौ ऋतु सुणलौ
यौ दिना-यौ मासा
भागा जुग-जुग भोटिया
फोटो – यशोधर मठपाल