कप्तान सिंह
बुखार शरीर में बढ़ रही रोग प्रतिरोधक क्षमता के कमजोर होने का संकेत भर है और संकेत है किसी बड़ी बीमारी के आगमन का। ऐसे ही संकेत समाज और राजनीति से समय-समय पर मिलते रहते हैं। एक समझदार शासन इन संकेतों को समझकर सामाजिक बुराइयों से निपटने के उपाय करता है लेकिन धर्मनिरपेक्षता के सवाल पर राजनीतिक कारणों से हो अथवा अज्ञानता से, हम लगातार समाज में बढ़ रही धार्मिक नफरत और उसके संकेतों की उपेक्षा करते रहे।
धर्म और धार्मिक नफरत को आधार बनाकर चौराहों की बहस जब विद्यालयों में पहुंची तब भी उस बहस में शिक्षक शामिल हुए जिन्हें नफरत के उस अंधकार को उजाले में बदलने की जिम्मेदारी थी और नफरत जब अपने विकृत रूप में समाज में पहुंची तो समाज को इस नफरत की आग से उपजी हिंसा और अपराधिक कृत्य से बचाने के लिए राज व्यवस्था का जो पुलिस तंत्र है यदि वह तंत्र खुद जंग लगा हो, वह पुलिस अगर खुद धार्मिक संकीर्णता में फंसी हुई हो तो फिर वह भला धर्मनिरपेक्षता और उसके लोकतांत्रिक स्वरूप की रक्षा कैसे कर सकेगी। यह आज के दौर में भारत और उसके सामाजिक घटना चक्र और सरोकारों के समक्ष एक बड़ा सवाल है जिसे समझने का आज भी प्रयास नहीं हो रहा।
यूं तो आजादी के समय से ही इस देश को सांप्रदायिक दंगों की आग में झुलसना पड़ा।शुरुआती दौर में सेना और पुलिस ने इन अपराधों का मजबूती से दमन किया और शांति व्यवस्था बहाल की लेकिन जब देश में सांप्रदायिकता की राजनीति ने जोर पकड़ा तो उससे पहले यह समाज में बहुत गहरे व्याप्त हो गई। इसकी भी जिम्मेदारी तत्कालीन कांग्रेस सरकार को जाती है कि उसने शिक्षा के प्रसार की अपनी जिम्मेदारी को नहीं निभाया। दूरदराज के छोटे कस्बों और ग्रामीण क्षेत्र में सांप्रदायिकता के लिए बदनाम एक संगठन और उसकी विचारधारा को शिक्षा में भागीदार बना दिया और वहीं से धार्मिकता और धार्मिक संकीर्णता के इस नासूर ने अपने पांव पसारने शुरू किये हैं। आज 50 साल बाद हम देखते हैं तमाम सरकारी तंत्र में, सेना में, पुलिस में धार्मिक आधार पर या यूं कहें धार्मिक नफरत से भरे हुए लोग शामिल हैं। मुरादाबाद दंगे और उसके बाद मेरठ मलियाना सांप्रदायिक दंगों में पीएससी कि एक धर्म संप्रदाय से ताल्लुक रखने वाले लोगों के प्रति बर्बर हिंसा से शुरू हो गई थी जिसकी पराकाष्ठा 2002 में गुजरात दंगों में देखी गई लेकिन तब भी राजव्यवस्था इस संकेत को समझने में चूक गई और यह बीमारी बढ़ती गई।
राज्य पुलिस की इस बीमारी का विकृत रूप राम मंदिर आंदोलन के समय दिखाई दिया जब 1991 में बाबरी मस्जिद विध्वंस की पहली कार सेवा की कॉल हुई और तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह ने परिंदा भी पर नहीं मार पाएगा वाले साहसिक राजनीतिक वक्तव्य दिया। तब अयोध्या के आसपास 100 किलोमीटर के दायरे में पुलिस लाइन और पीएससी की बटालियन में रिजर्व के रूप में पुलिस बल रखे जब उन्हें यह समाचार प्राप्त हुआ कि उस रात जब एक गुंबद को क्षति ग्रस्त किए जाने और जय श्री राम के नारों के साथ दिवाली मनाये जा रही है। यह वह आधिकारिक संकेत था जो आने वाले दिनों में धर्मनिरपेक्षता के आधार पर पुलिस की विश्वसनीयता को खत्म कर रहा था लेकिन इस संकेत की ओर न तत्कालीन मीडिया का ध्यान गया और ना ही राज्य के खुफिया तंत्र का। प्रदेश में कथित धर्मनिरपेक्षता के लंबरदार मुलायम सिंह की सरकार थी। कालांतर में जब 6 दिसम्बर 1992 को बाबरी मंदिर का विध्वंश हुआ तब वर्दी पहनकर दर्जनों पुलिस कर्मचारी जय श्रीराम के नारे लगाते हुए देखे गए। उन पुलिस कर्मचारियों के विरुद्ध क्या कार्यवाही हुई यह आज तक ज्ञात नहीं है। यानी राजव्यवस्था ने पुलिस के धर्मांध स्वरूप को मौन सहमति दे दी।
तब से पुलिस का लगातार सांप्रदायिकरण होता रहा और उसकी पराकाष्ठा पुलिस के सार्वजनिक आयोजनों में देखी जाती है। हद तो तब हो गई जब इस वर्ष केंद्रीय पुलिस बल की वाद—विवाद प्रतियोगिता में एक केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल की महिला आरक्षी द्वारा कन्हैया कुमार की छाती में भाला घोपने की बात कह दी। यह वक्तव्य उस महिला आरक्षी का नहीं है बल्कि यह वक्तव्य धार्मिक रूप से ढल चुके हमारे पुलिस संगठनों का है। राष्ट्रीय स्तर की वाद—विवाद प्रतियोगिता पर बटालियन से राष्ट्रीय प्रतियोगिता में पहुंचने तक उस महिला क्रेडिट को कम से कम चार चरणों से गुजरना हुआ होगा और उस प्रत्येक चरण में आईपीएस अथवा सेनानायक स्तर के अधिकारी रहें होंगे। इससे साफ जाहिर है कि हमारे अर्धसैनिक संगठन और पुलिस आज धर्म निरपेक्षता के सवाल पर कहां खड़ी है। अगर गोपनीय तरीके से वार्ताओं को रिकॉर्ड करने के डिवाइस पुलिस लाइन, बटालियन और पुलिस की ड्यूटी पॉइंट पर लगाए जाएं तो आप देखेंगे कि इस देश की पुलिस पूरी तरीके से धार्मिक हो चुकी है। वह एक धर्म विशेष के लिए नफरत का भाव रखती है और एक धार्मिक विचारधारा के राजनीतिक संगठन का खुलकर समर्थन भी करती है।
इसी का परिणाम है कि जब कश्मीर में प्रदर्शन रोकने का सवाल हो या जामिया मिलिया विश्वविद्यालय के छात्रों के प्रदर्शन को तितर—बितर करने का सवाल हो तब पुलिस अपने संवैधानिक कर्तव्यों से आगे बढ़ धार्मिक आधार पर बदला लेते हुए दिखाई देती है। धार्मिक टिप्पणियां भी करती है। इसलिए आज भारत के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को बचाने के लिए जरूरी है कि पुलिस संगठनों में लोकतांत्रिक व्यवहार और धर्मनिरपेक्ष आचरण तथा कार्यशैली की निगरानी कि न्यायालय द्वारा व्यवस्था हो और उस व्यवहार को कानून के दायरे में रखा जाए। तभी इस देश का धर्मनिरपेक्ष चरित्र बचाया जा सकता है। नहीं तो वर्तमान में जिस रूप से पुलिस संगठन सांप्रदायिक आधार पर विचारधारा के स्तर पर बंटे हैं उस पुलिस से देश के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को बचाए रखने की उम्मीद नहीं की जा सकती ।