केशव भट्ट
कोरोना वायरस क्या आया, समाज में सबके आपसी संबंध ही नीम-करेले के स्वाद से भी ज्यादा कडुवे हो गए. प्रसिद्व उत्तराखंडी गायक नरेन्द्र सिंह नेगी ने तो गीतों के माध्यम से बहुत पहले कहा भी था कि, ‘पहाड़ी पहाड़ी मत बोलो मैं देहरादून वाला हूँ..’ हांलाकि उनके गीतों के बोलों में मिठास वाला प्रेमभरा व्यंग था.
इस बीच कोरोना वायरस से हर किसी की जिंदगी ठहर सी गई है. सबसे ज्यादा मार मजदूर वर्ग पर पड़ी है. ये वो मजदूर हैं जो पेट-परिवार के खातिर खानाबदोश हो अपनी माटी से दर-ब-दर होने के बाद इस उम्मीद की आश में संघर्ष करते चले जाते हैं, कि कभी तो उनकी भी जिंदगी में ठहराव आएगा.. वो भी खुश हो अपने तराने गाएंगे, ताउम्र भटकते हुए कभी खुद के भी मालिक बनने के सपने देखते हुए वो अपनी जिंदगी यूं ही जीते हुए मर-खप जाते हैं. वक्त की रफतार में वो जहां होते हैं ताउम्र वहीं संघर्ष कर दुनियां छोड़ चले जाते हैं. उनके लिए रोने के लिए बस उन्हीं का भूखा-नंगा परिवार ही होता है. सल्तनत को उनसे कोई फर्क नहीं पड़ता. सल्तनत के लिए वो बस टीशू पेपर के समान ही होते हैं और अभी भी हैं..
लॉकडाउन में सबसे ज्यादा मार इन्हीं तबके को पड़ी है. काम-धंधा बंद होने पर मालिक की परेशानी पर उन्हें अपने घर लौटना पड़ रहा है. पहले जब साल में त्यौहारों में दो-एक बार जब ये घर आते थे तो, एक तरह से ये पहाड़ की आर्थिकी का बहुत बड़ा साधन होते थे. घर पहुंचने के वक्त में पहाड़ की बाजारों से घर के लिए जरूरत का सामान खरीदने के लिए इनमें होड़ मची रहने वाली हुवी. एक तरह से ये लोग पहाड़ में दुकानदारों की आर्थिकी की रीढ़ भी होने वाले हुए. इनके आने पर घर-गांव से पहले बाजार के दुकानदार खुश हो जाने वाले हुए.
‘अरे… नमस्कार.. नमस्कार हो.. मैं सोच ही रहा था कि आप अभी तक आए नहीं.. और सुनाओ.. सब ठीक ही होगा.. बैठो-बैठो.. लो.. पानी पीओ.. और कैसा रहा सफर.. हल्द्वानी के बाद तो रिंगाई लग जाने वाली ठैरी हो.. पहाड़ की सड़क के मोड़ ही ऐसे हुए.. चाय लेंगे या नींबू पानी..’
पहाड़ में दुकानदारों के लिए महानगरों से आने वाला हर कोई सख्श उनका अन्नदाता ही होने वाला हुवा. या कहें कि प्रवासियों ने भी अपने घर-बार छोड़, खुद के सांथ ही पहाड़ को भी जिंदा करने में अपने प्राण दिए ही ठैरे.
कोरोना आपातकाल में सब कुछ गंवाकर इस बीच अब बाहर महानगरों से अपने घरों को बमुश्किल नौकरशाही की चक्की में पीसकर पास बनाकर ये लोग लौट रहे हैं. जगह-जगह इनकी जांच होने पर जब ये अपने माटी की वादियों में पहुंच रहे हैं तो इन्हें तब बड़ा झटका लगता है जब इन्हें हर कोई, ‘कोरोना बम’ मान इनके सांथ एक युद्व अपराधियों की तरह व्यवहार करने में जुट जा रहा है. बसों से पहुंच रहे भूखे-प्यासों को कई घंटों तक बाहर ही नही उतरने दिया जाता है. यहां तक कि आने वालों के बच्चे तो बस की सीटों में ही डर-मजबूरी से पैखाना तक कर दे रहे हैं. लेकिन कोई कुछ बोल नहीं पाता है. बाहर कानून के रखवालों पर प्रशासन का डंडा है तो वो भी मजबूर हो शर्मिंदगी से अपनी ड्यूटी निभाते चले जा रहे हैं. इन सभी को उनके ही घर में ‘प्रवासी’ का नाम दे दिया गया है. और ये ‘प्रवासी’ उत्तराखंडी न होकर एक तरह से आत्मघाती तालीबानी आतंकवादी जैसे हर किसी को दिख रहे हैं. हर कोई उनसे ऐसे व्यवहार कर रहा है जैसे वो कोरोना बम को अपने सांथ लेकर पहाड़ को मिटाने के लिए ही आएं हों.
उत्तराखंड के हर जिलों में क्वारंटाइन सेंटरों में हजारों को क्वारंटाइन किया गया है. अब जो आ रहे हैं उन्हें होम क्वारंटाइन किया जा रहा है. क्वारंटाइन सेंटरों को जेल बताते हुए जो बातें अब सामने आ रही हैं वो भी इंसानियत को शर्मसार करने वाली हैं. यहां क्वारंटाइन सेंटरों में क्वारंटाइन किए गए लोगों को पहले दिन, पांच रूपये के बिस्कुट-नमकीन और छोटी सी पानी बोतल को ही उन्हें भोजन समझना पड़ा. बमुश्किल दूसरे दिन दाल-चावल के दर्शन हुए. वो सवाल उठाते हैं कि, इस कोविड-राशन घोटाले पर कोई क्यों ध्यान नहीं दे रहा होगा..
अब उन्हें कैसे समझाएं कि, सात पुश्तों को जिंदा रखने की चाहत के बाद इस तरह की मानसिकता के लोग सायद अपनी ‘चिता’ के लिए भी कुछ बटोरने का मोह छोड़ नही पा रहे हैं.
वो हैरान-परेशान हैं कि उन्होंने अपनी माटी से रोजगार की खातिर बाहर जाकर ऐसा क्या अपराध कर दिया कि आज उन्हें इस तरह से उन्हीं की माटी में हिकारत की नजरों से देखा जा रहा है.. जबकि वो तो अपने पहाड़ को कुछ न कुछ देते ही आ रहे हैं..
अब उन्हें ये कौन समझाए कि, तुम सबका ये बड़ा अनसुलझा सवाल है, जिसका उत्तर उन्हीं के जैसे एक भूखे, गरीब मजदूर के पास ही मिलेगा.. न कि भरे पेट के राजनेता और ब्यूरोक्रेट्स के पास..
सलाम.. कोरोना..! तुने कई भूखे-प्यासे अमीर रूपी गरीबों की तिजोरियां भरनी शुरू कर दी हैं…☹️