योगेश भट्ट
दुनिया भर में वैश्विक महामारी कोरोना का कोहराम है। जिस भारत में साल भर में तकरीबन 90 लाख मौतें होती है , जिनमें अधिकांश का कारण टीबी,मलेरिया और स्वशन तंत्र की बीमारी है । वह भी सहमा हुआ है।आसन्न चुनौतियों से इतर भारत में भी कोरोना का ‘खौफ’ सर चढ़कर बोल रहा है। कोविड-19 कोरोना वैश्विक महामारी है खौफ होना भी चाहिए । मगर सवाल यह है कि भारत में अमीरों से गरीबों में आने वाली इस बीमारी के खौफ और दुष्परिणाम का भागी सिर्फ गरीब क्यों ? इस खौफ की आड़ में जो दूसरी महामारी फैली है उसका क्या ?
देश के एक बड़े तबके में भविष्य को लेकर असमंजस बना हुआ है। चिंता हर चेहरे पर साफ पढ़ी जा सकती है। विशेषज्ञों की राय भी जुदा-जुदा है। कोई बड़ी तबाही का अंदेशा जताते हुए इटली और अमेरिका से भी बुरे हालात होने की बात करता है तो किसी का कहना यह है कि भारत में इसका असर बहुत कम होगा। घर-घर में कोई महामारी विशेषज्ञ बना है तो कोई विषाणु विज्ञानी। सोशल मीडिया पर कोरोना के लक्षण, प्रकोप, इलाज और नुकसान के लेकर तरह तरह के सच-झूठ वायरल हो रहे हैं। भय के माहौल में कई थ्योरियां ईजाद कर दी गयी हैं, कोई योग से कोरोना ठीक करने की बात कर रहा है तो कोई गोमूत्र और गाय के गोबर से संक्रमण न होने का दावा करता है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा संकटकाल में एकता, एकजुटता का परिचय देने और कोरोना के खिलाफ मोर्चे पर डटे स्वास्थ्य एवं पुलिसकर्मियों के सम्मान में अपने घरों की बालकनी या आंगन में आकर थालियां, घंटी और शंख बजाने या दीये जलाने की अपील पर भी बिना सिर पैर की कहानियां गढ़ दी गयीं। सोशल डिस्टेंसिंग और लॉकडाउन को धता बताते हुए मास्क, सेनेटाइजर और राशन बांटते फोटो खिंचाने और वीडियो बनाने की समाजसेवियों और राजनेताओं में होड़ मची है। आसन्न खतरे से हर कोई जानबूझकर बेेखबर बना है। जबकि हकीकत यह है कि देश कोरोना के साथ-साथ एक नयी ‘महामारी’ के मुहाने पर पहुंच चुका है। एक ऐसी महामारी जिससे देश का शायद ही कोई राज्य, कोई जिला बचे। यह महामारी है कोरोना के नाम पर होने वाली लूट , मुनाफाखोरी, भ्रष्टाचार, शोषण और अत्याचार से फैलने वाली भुखमरी ,गरीबी और बेगारी ।
बीमारियों या महामारी से संघर्ष भारत के लिए कोई नया नहीं है। महामारियों से जूझने और उनसे पार पाने का भारत का लंबा इतिहास है। आजादी के पहले से भारत तमाम महामारियों से जूझता रहा है। भारत ने हैजा, चेचक, हेपेटाइटिस, मलेरिया, सार्स, स्पेनिश प्लू, इंसेफेलाइटिस, प्लेग, एचआईवी एड्स और स्वाइन प्लू का सामना तो किया ही इसके अलावा डेंगू, चिकनगुनिया, टाइफस जैसे रोगों के अलावा चमगादड़ों से होने वाले संक्रमण निपाह वायरस से भी मोर्चा लिया। दुनिया भर में चेचक के तो अकेले 60 फीसदी मामले भारत में रिपोर्ट किए गए थे।
पूरी दुनिया में कोरोना वायरस मानव संकट है , लेकिन भारत में यह उससे भी आगे मानवाधिकार संकट बनने जा रहा है। दरअसल सवा सौ करोड़ से अधिक आबादी वाले जिस देश में हर साल तकरीबन 90 लाख लोग मरते हों वहां असल सवाल कोराना से होने वाली मौतों का नहीं बल्कि बेराजगारी और भुखमरी का हो जाता है। अभी बहुत दिनों पुरानी बात नहीं है जब कोरोना महामारी के खौफ से हमने महानगरों से हजारों की भीड़ को पैदल अपने घरों की ओर लौटते देखा। कोई सैकड़ों किलोमीटर ठेले को ठेलते हुए घर लौटा तो कोई 1700 किलोमीटर साइकिल चलाकर। इस भीड़ में कई लोग ऐसे थे जिन्होंने भूख के कारण रास्ते में दम तोड़ दिया तो किसी के प्राण घर पहुंचकर निकल गए।
आज देश के लिए सबसे बड़ी चुनौती अपने घरों को लौटती यही भीड़ है। इस देश की चिंता 49 करोड़ की वो आबादी है जिसकी दैनिक औसत आय बीस से तीस रुपए मात्र है। ‘अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन’ की एक हालिया रिपोर्ट के मुताबिक भारत में कोरोना काल के दौरान असंगठित क्षेत्र के लगभग 40 करोड़ श्रमिक तबाही की जद में हैं। इसमें से अस्सी फीसदी से अधिक लोग तो जिंदा रहने के लिए जरूरी राशन के लिए भी सरकारी मदद के भरोसे हैं। आज तो सच्च यह है कि असंगठित ही नहीं संगठित क्षेत्र की बड़ी-बड़ी कंपनियां भी अपने भविष्य को लेकर आशंकित हैं।
एक और तथ्य पर गौर कीजिए , वैश्विक संस्था ‘विश्व खाद्य कार्यक्रम’ की मानें तो दुनिया भुखमरी की महामारी के कगार पर है। हाल ही में इसके निदेशक डेविड विस्ले ने आगाह किया है कि कुछ ही महीनों में दुनिया में भुखमरी के शिकार लोगों की संख्या में भारी इजाफा हो सकता है। डब्लूएफपी के ही मुताबिक अभी दुनिया में हर रात 82 करोड़ 10 लाख लोग भूखे पेट सोते हैं। तकरीबन 13 करोड़ 50 लाख लोग भुखमरी या उससे बुरी स्थिति का सामना कर रहे हैं। मोटा आंकलन यह है कि वर्ष 2020 के अंत तक दुनिया भर में भुखमरी का सामना करने वालों की संख्या दोगुनी हो जाएगी। डब्लूएफपी का ही ऐसा मानना है कि वर्ष 2020 तक भुखमरी का का सामना करने वालों की संख्या 26 करोड़ 50 लाख से ज्यादा होगी।
भारत जैसे उभरती हुई अर्थव्यवस्था वाले देश के लिए तो यह बड़ा झटका है। सांख्यिकी मॉडल के जरिये वैश्विक गरीबी को मॉनिटर करने वाले ‘वर्ल्ड डाटा लैब’ के मुताबिक बीते एक दशक से गरीबी सूचकांक में भारत का प्रदर्शन उल्लेखनीय तौर पर बेहतर चल रहा था। वर्ल्ड डाटा लैब के अनुसार साल 2005-06 में देश की 64 करोड़ यानी 55 फीसदी आबादी अत्यंत गरीब की श्रेणी में थी, जबकि वर्ष 2015-16 में यह आंकड़ा गिरकर 28 फीसदी पहुंच गया था। वर्ल्ड डाटा लैब के मुताबिक कोराना से पहले तक हर मिनट 44 भारतीय अत्यंत गरीब की श्रेणी से बाहर आ रहे थे। अनुमान है कि कोराना महामारी से ठीक पहले भारत तकरीबन 25 फीसदी आबादी अत्यंत गरीब की श्रेणी में रही होगी। इसी आधार पर माना जा रहा था कि वर्ष 2030 तक भारत में मात्र 30 लाख लोग ही ऐसे होंगे जिन्हें अत्यंत गरीब कहा जाएगा।
सच यह है कि आसन्न महामारी अमीरी और गरीबी के फासले को और गहरा करने जा रही है। अनुमान सही निकले तो हालात गंभीर होंगे क्योंकि भारत महामारी के इस दौर में ‘प्राथमिकता’ तय नहीं कर पाया है। सच यह है कि जिस तरह के विषाणु संकट से अमेरिका और यूरोप जूझ रहे हैं, हमारे देश का हैल्थ सिस्टम उस तरह के संकट से निपटना तो दूर, सामना करने की स्थिति में भी नहीं है। हमारे तो देश का ही हेल्थ सिंस्टम ‘वेंटिलेटर’ पर है। सरकार को तो मानो पता ही नहीं कि करना क्या है, क्या करे, मेडिकल इमरजेंसी पर काम करे या भुखमरी पर, अफवाहों पर नियंत्रण करे या सांप्रदायिकता पर।
दुनिया की आधी आबादी कोरोना वायरस के डर से लॉकडाउन और सोशल डिस्टेंसिंग पर है। वैश्विक अर्थव्यवस्था रसातल में पहुंच चुकी है, कई देश बर्बादी के मुहाने पर हैं। चीन की भूमिका संदिग्ध बनी हुई है। बीच डबलूएचओ, जी-20 और संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी वैश्विक संस्थाओं पर सवाल उठ रहे हैं। दुनिया के तमाम देशों के बीच सहयोग समन्वय स्थापित करने में संयुक्त राष्ट्र की भूमिका भी बेहद कमजोर आंकी जा रही है। ऐसे में भारत के पास इस वक्त विश्व में अपनी ‘धाक’ जमाने का मौका था , मगर देश के अपने हालात नियंत्रण में नहीं हैं ।
महासंकट के वक्त हालात किस करवट बैठेंगे, नहीं कहा जा सकता लेकिन भारत के लिए स्थितियां तब तक मुफीद नहीं होंगी जब तक 49 करोड़ आबादी को केंद्र में रखकर नयी इबारत नहीं लिखी जाएगी। यही इस वक्त की बड़ी चुनौती भी है मगर स्थितियां पहले जैसी नहीं हैं। अमीरी और गरीबी में फासला तो पहले भी रहा है लेकिन बीते सालों में यह फासला और गहरा गया है।
देश की आधी से ज्यादा संपत्ति मात्र एक फीसदी लोगों के कब्जे में है, नब्बे फीसदी आबादी के हिस्से 25 फीसदी संपत्ति भी नहीं है। आजादी के वक्त जिस खेती पर हमारी निर्भरता पचास फीसदी थी वो अब मात्र 15 फीसदी भी नहीं रह गयी है। ऐसे में अगर ईमानादारी ,समझदारी और राजनैतिक पूर्वाग्रहों से हटकर काम नहीं लिया गया तो भारत कोरानो के पीछ आ रही बड़ी महामारी का मुकाबला कैसे करेगा ?