देवेन्द्र मेवाड़ी
दिन भर घर-आंगन और फूलों की क्यारियों में भोजन तलाशते सतभय्यों यानी जंगल बैबलर की टोली पश्चिम दिशा से सांझ को उतरते देख, आपस में चुक-चुक-चुक-चुक की अपनी भाषा में घर लौटने की बात कह कर रैन बसेरे में लौट जाते हैं। लेकिन कहां? यह किसी को पता नहीं था, हमें भी नहीं। पता होता भी क्यों? दिन भर आसपास गिरी पत्तियों और घास-फूस में कीट-पतंगों का चुग्गा खोज कर, पास के बट वृक्ष की बेरियां खाकर वे सीधी-सादी चिड़ियां थक भी तो जाती होंगी। तब रात बिताने के लिए ऐसी जगह रैन बसेरे में चली जाती होंगी, जहां दो घड़ी चैन की नींद सो सकें और हि़फाजत से रह सके।
अच्छा, एक बात है, जिसे ये भी जानते हैं। अगर रंग-बिरंगे या कोकिल-कंठी होते तो लोग इन्हें बखूबी जानते। और पूंछ, प्रसिद्ध पक्षी विज्ञानी सालिम अली कहा करते थे- इनकी पूंछ तो देखो, लगता है किसी ने खोंस दी हो। लेकिन, ये तो चिड़ियों के आमजन हैं- भूरे, मटमैले, जिनकी ओर लोगों का विशेष ध्यान नहीं जाता।
ध्यान जाता तो इनका जीवन भी संकट में होता। मोर और दूसरे रंग-बिरंगे पंछियों की तरह लोग इन्हें चिड़ियाघरों या पिंजरों में कैद कर लेते। इसलिए मां प्रकृति ने अपने इन भूमि-पुत्रों को मटमैला रंग ही दिया है, कि जाओ बेटा जमीन पर ही रहना और जमीन पर ही गुजर-बसर करना। बस ये अपनी नई पीढ़ी के लिए घनी झाड़ियों के भीतर घास-फूल का ढीला-ढाला सा घोंसला बना कर उसमें 3-4 नीले रंग के अंडे दे देती है। माता-पिता दोनों अंडे सेते हैं और नन्हे बच्चों की देखभाल करते हैं। उनमें ममता इतनी है कि देखभाल वे पराए बच्चों की भी करते हैं। इन सीधे-सादे पंछियों के घोंसले में पपीहा और चातक भी अंडे दे देते हैं। ये उनके बच्चों को भी उतने ही प्यार से पालते हैं, जितने प्यार से कव्वे कोयल के बच्चों को पालते हैं। चातक के बच्चे तो काले रंग के कारण अलग ही नजर आते हैं लेकिन इनकी ममता ऐसी कि उन्हें भी गले लगा लेते हैं।
कल पता लगा कि हमारे हरसिंगार में है इनका रैन बसेरा। हरसिंगार पर ठीक जीने के बगल में ही थके-मांदे सतभय्ये रोज आकर सो जाते हैं। हमने चुपचाप सोए हुए सतभय्यों को गिना। वे ग्यारह थे। पक्षी विज्ञानी बताते हैं कि वे पांच, सात, नौ या ग्यारह भी हो सकते हैं। हमें लगा, उनके साथ कुछ बच्चे भी हैं।
सतभय्यों की टोली एक ही टहनी पर सट कर सोई हुई थी, नैनीताल के ठीक उन नेपाली मजदूरों की तरह जो कभी दिन भर की मेहनत मजूरी के बाद थक-थका कर, रात को तल्लीताल पोस्ट ऑफिस के बरामदे में एक-दूसरे से सट कर सोए रहते थे। लोग कहते थे, एक करवट थक जाने के बाद उनका मेट जोर से कहता है- फरको! यानी, पलटो, और वे सभी करवट बदल लेते। मैंने कभी सोने से पहले उनकी टोली का गाया यह गीत सुना था:
कुरता मैइली, धोती मइली
ध्वै दिन्या कोई छइ ना, परदेशई मां मरी जौंलो र्वै दिन्या कोई छइ ना
(कुरता मैला है, धोती मैली है, धो देने वाली कोई है नहीं। परदेश में ही मर जाऊंगा, रो देने वाला भी कोई नहीं।)
इस महानगर में भला सीधे-सादे सतभय्यों का भी कौन है? जब तक ज़िदगी कट रही है, कट रही है। कंक्रीट के जंगल में हरियाली गायब होती चली जा रही है। कल पेड़-पौधे नहीं रहेंगे तो कहां जाएंगे सतभय्ये? दिन भर जमीन में जहां वे दाना चुगते हैं, वहां खतरनाक दोपाया आदमी भी है और चौपाया बिल्लियां भी। वह तो भला हो उनके संतरी यानी चौकीदार का कि जब वे दाना चुगते हैं तो वह मुस्तैदी से पहरा देता है। जब टोली के किसी साथी का पेट भर जाता है तो वह संतरी की ड्यूटी संभाल लेता है। भूखा संतरी जमीन पर आकर दाना चुगने लगता है। सतभय्यों की टोली का यह कड़ा नियम है कि चौकीदार एक के बाद दूसरा बदलता रहता है। इनका एका भी देखते ही बनता है। अगर बिल्ली पास में आ जाए तो ये सभी एकजुट होकर इतना चीखते हैं कि वह हमला करने की हिम्मत नहीं जुटा पाती।
सर्दियों में सतभय्यों की टोली हमारी बालकनी में आकर एक-एक करके पानी की ट्रे में जमकर स्नान भी करती रहीं। हम तो इन्हें सतभय्या कह रहे हैं लेकिन अंग्रेजों ने इन्हें अपने बंगलों के आसपास देखा तो इन्हें ‘सेवन सिस्टर्स’ कहने लगे। खैर, भाई हों या बहिनें हमें तो इनसे प्यार करना चाहिए ताकि हमारी दुनिया में ये चहचहा कर हमें टीम भावना का संदेश देती रहें। हमारे घरों के आसपास अब और चिड़ियां रह भी कौन-सी गई हैं?