रमदा
“इब्तिदा ए इश्क़ है रोता है क्या, आगे आगे देखिये होता है क्या।” से लेकर “ये इश्क़ नहीं आसां, इतना तो समझ लीजे, इक आग का दरिया है और डूब के जाना है” तक इस ‘कोरोना-ऋतु’ (बक़ौल प्रोफेसर पाठक) में मौजूदा संक्रमण-संकट के कई पहलू हैं।
यह समय ‘कोविद-19’ के माध्यम से इंसानी ज़िंदगी पर होने वाले / हो रहे सीधे आघात से मुक्ति की कोशिशों का दौर है जिसका मूल-मंत्र “घर पर रहें, सुरक्षित रहें” बताया जा रहा है। यह इस नजरिये से और भी ज्यादा जरूरी हो जाता है कि दुर्भाग्य से अगर हम भारतीय ‘संक्रमण के तीसरे फेज़ – सामुदायिक संक्रमण’ के दौर में आ गए तो हम बहुत भारी मुसीबत में होंगे क्योंकि सामान्य दिनों में सामान्य बीमारियों का ही बोझ उठा सकने में असमर्थ हमारी सार्वजनिक स्वास्थ्य-सेवाएँ इस घोर संकट में नाकाफी ही साबित होंगी। जब अपनी स्वास्थ्य-सेवाओं पर नाज़ करने वाले देशों में त्राहि-त्राहि मची है तो हम कहाँ टिक पाएंगे। मालूम तो हमें पहले भी था ही मगर अब तो टेलीविजन की मेहरबानी से दिखाई भी दे रहा है कि कैसे अन्तरिक्ष-यात्रियों के जैसे सूट पहन कर चीन/कोरिया/इंग्लैंड/अमेरिका/जर्मनी के चिकित्सक इस लड़ाई में लगे हैं और हमारे स्वास्थ्य-कर्मियों की स्थिति कैसी है?
खैर, अपनी तमाम तरह की मूर्खताओं के बावजूद हम जब भी इस संक्रमण-संकट से बाहर आ पाने में कामयाब होंगे तो एक ऐसा नया संकट दहलीज़ के भीतर घर कर चुका होगा, जिसकी दस्तक अभी से सुनाई देने लगी है। आर्थिक-अवसाद या मंदी का आसन्न संकट : ढीले-ढाले तौर पर अर्थव्यवस्था की ऐसी हालत का संकट जब आदमी और मशीनें लगातार लम्बे समय तक खाली या बेरोजगार रहें परिणामतः आय और रोजगार में ख़ासी गिरावट देखी जाए।
आज की “वैश्वीकृत-दुनिया” में इस तरह के संकट का सामना करने वालों में निसंदेह हम अकेले नहीं होंगे, पूरी दुनिया और पूरी दुनिया के लोग इस दौर की तकलीफ़ों में हिस्सेदारी करेंगे। किन्तु जनसंख्या के जिस हिस्से पर मंदी का दुष्प्रभाव सबसे अधिक पड़ता है उसकी तादाद को देखते हुए हमारी या हमारे जैसे देशों की हालत ज्यादा गंभीर होगी।
हम वर्तमान संक्रमण-संकट के ‘लॉक-डाउन’ से पहले ही ‘इकनॉमिक-स्लो डाउन’ की चपेट में थे। नोटबन्दी, जी.एस.टी. संबंधी नीतियों के रियल-स्टेट, व्यापार तथा पर्यटन पर दुष्प्रभाव की चर्चाएँ आम रही हैं। सी.ए.ए.को लेकर अभी हाल तक चले विवाद ने खास तौर से पर्यटन और होटल व्यवसाय को क्षति पहुंचाई है। इन सभी क्षेत्रों में रोजगार घटा है या छटनी की स्थितियाँ हैं। जानकार और विद्वान 2019 की सितम्बर-दिसम्बर तिमाही में ही सात सालों की न्यूनतम संवृद्धि दर (4.7%) की चर्चा कर रहे थे।
लॉक-डाउन की घोषणा के साथ बड़े शहरों से मजदूरों और मजबूरों का जो दारुण महा-प्रवास हमने अभी-अभी देखा है वह अपने पीछे अमानवीयता के दृश्यों के अलावा व्यावसायिक सक्रियता-संलग्नता का एक शून्य भी छोड़ गया है। ये तमाम लोग जिन व्यवसायों में लगे थे वहाँ कारोबार ठप है। कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है जहां व्यावसायिक गतिविधियां ध्वंश के कगार पर न हों। जो गतिविधियां लॉक-डाउन से मुक्त हैं वहाँ भी भारी गिरावट है। एक सन्नाटा है जो जीवन पर आए सीधे संकट के कारण अभी खल तो नहीं रहा है किन्तु यह निकट भविष्य में हमें एक अलग दिशा से तकलीफ देने वाला है। निर्माण, कन्स्ट्रक्शन, औद्योगिक-उत्पादन, व्यापार, पर्यटन, होटल, रेस्टोरेंट, सत्कार, यातायात: नभ –भूमि-जल, शॉपिंग-मॉल, सिनेमा, खेल, होम-डिलीवरी आदि-आदि समग्रतः सभी यहाँ तक कि दवा से संबन्धित उद्योगों तक में, तात्कालिक कारण भले ही अलग-अलग हों, गिरावट की प्रबल संभावनाएं हैं। इन गिरावटों के अपने प्रसार-प्रभाव होंगे जो इस गिरावट को और विस्तार दे सकते हैं, उदाहरण के लिए जब बेचने को कम होगा तो विज्ञापन घटेंगे, विज्ञापन घटेंगे तो इन पर निर्भर मीडिया- इलेक्ट्रोनिक हो या प्रिंट परेशानी के रूबरू होगा ही, सरकार के आय-स्रोत घटेंगे परिणामतः जनसाधारण के लिए चलाई जाने वाली कल्याणकारी परियोजनाओं पर किए जाने वाले व्यय भी घटेंगे ही।
यह गिरावट रोजगार और आय में कमी का स्वाभाविक परिणाम सामने रखेगी, संभव है समग्रतः मांग और कीमतों में गिरावट दर्ज़ हो। (कीमतों में गिरावट तभी सुखद होती है जब खरीदने के लिए पैसे होते हैं, क्रय-शक्ति के अभाव में यह कहीं दुखद होती है). इस तरह सृजित चक्राकार-गिरावट का अनुभव अर्थव्यवस्थाओं का रहा है और इससे निबटा भी गया है। आम तौर पर कीमतों की गिरावट आय में बढ़ोत्तरी द्वारा रोकी जाती है और सरकारी खर्च में वृद्धि इसका तरीका रहा है। किन्तु इस तरह की असामान्य परिस्थिति से कहीं पहले से ही वित्तीय घाटे की समस्या से जूझ रहे देशों के लिए यह आसान नहीं होता…“ इक आग का दरिया है और डूब के जाना है।” सरकार को ‘कोविद-19’ का मुक़ाबला करने के लिए जितने संसाधन अभी जुटाने और खर्च करने हैं उनको नज़र में रखते हुए भविष्य के भारी खर्चों के बारे में सोचना कठिन लगता है। किन्तु आसन्न संकटों का मुक़ाबला करने के लिए तैयार रह कर यह लड़ाई हमें बड़ी शिद्दत से लड़नी ही होगी।
सबसे कष्टकर यह जानना है कि समाज के जिस वर्ग को मौजूदा संक्रमण-संकट से सबसे ज्यादा तकलीफ दी है उसी वर्ग, किसान हों या मजदूर या मजबूर, को मंदी ने भी सबसे अधिक सताना है। यह वर्ग कितना बड़ा है उसका अनुमान इस बात से लगा लीजिये की जब संक्रमण-संकट के लिए राहत-पैकेज की घोषणा वित्तमंत्री ने की थी तो कहा था की हम 80 करोड़ लोगों (आबादी का 58%) के लिए निशुल्क पाँच किलो अतिरिक्त अन्न की व्यवस्था कर रहे हैं। यह उस महान विकास-यात्रा के बाद की स्थिति है जिसे हम योजना-आयोग से लेकर नीति-आयोग तक के नेतृत्व में पिछले सत्तर सालों से निरंतर करते जा रहे हैं।
“ अपने लिए कब हैं ये मेले हम तो हर मेले में अकेले, क्या पाएगा इसमें रह कर जो दुनिया जीवन से खेले ” इस वर्ग के लिए आज भी है और कल भी होना ही है।