उमा भट्ट
अस्कोट-आराकोट यात्रा 2014 (25 मई से 8 जुलाई) में चमोली जिले में वान गांव से आराकोट तक मैं भी तीस दिन तक शामिल हुई। यात्रा पथ की कई संस्थाओं, संगठनों, विद्यालयों, व्यक्तियों को भी जानने-समझने का अवसर हमें मिला। टिहरी जिले में भैरव चट्टी के बाद हमारा अगला पड़ाव था बूढ़ाकेदार। 25 जून को हम यहां पहुंचे। यहां हम लोकजीवन विकास भारती में रहे। रात्रि-भोजन से पूर्व संस्था के सभाकक्ष में बैठकर यात्रियों ने अपने अनुभव रखे। गीत भी गाये गये। यात्रियों के अनुरोध पर लोकजीवन विकास भारती के संस्थापक सर्वोदयी र्कायकर्ता श्री बिहारीलाल जी, जिन्हें सभी बिहारी भाई के नाम से जानते है, ने विस्तारपूर्वक प्रारम्भ से अपने काम तथा विचारों के विषय में बताया। सभाकक्ष में यात्रियों के अतिरिक्त संस्था के कार्यकर्ता भी मौजूद थे। उनके इस आत्मकथ्य को यहां अविकल रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है।
श्री बिहारीलाल जी ने कहा –
आप सब लोगों के दर्शन हुए, इसकी मुझे कल्पना भी नहीं थी। आपमें से कुछ तो सुपरिचित हैं, कुछ नहीं। पर आप सबसे भेंट करके अच्छा लगा। आपने कहा कि मैं इतनी बैठकों में जाता हूँ, पर अब मैं कहीं जाना नहीं चाहता हूँ क्योंकि वास्तव में थोड़ा संकोच होता है। मुझे लगता है कि हम लोगों ने जो कुछ भी काम, जिस क्षेत्र में भी किया है, उसमें जिस प्रकार की प्राप्ति होनी चाहिए थी, वह दिखाई नहीं देती है। उस काम के बारे में लोग किस प्रकार से क्या कहते हैं, उस ओर हमारा ज्यादा ध्यान नहीं है, परन्तु उससे स्वयं हमें सन्तोष नहीं है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि हम लोगों ने अपने आप को ग्राम-स्वराज्य आन्दोलन के लिए, एक ग्राम-स्वावलम्बी जीवन के लिए समर्पित किया था परन्तु जेपी और बिनोबाजी के मरने के बाद ऐसा लगा कि हम लोग कुछ अलग-थलग से हो गये हैं। सबसे बड़ी बात यह कि बिहार में जो आन्दोलन हुआ था, उससे हम लोगों में बिखराव आया और हम ग्राम-स्वराज्य के रास्ते से बाहर निकल गये। इसमें कहीं न कहीं हम लोग दोषी थे। बिनोबाजी ने बार-बार हमसे कहा कि अभी यह वक्त आन्दोलन का नहीं है, अभी आपको ंकाफी मेहनत की आवश्यकता है, इस प्रकार के क्रान्तिकारी आन्दोलन में जुड़ना चाहिए या नहीं, इस पर विचार करने की आवश्यकता है। तब तो खैर जो कुछ हुआ, हम लोगों को लगा कि हमें भी राजनीति के क्षेत्र में झांकना चाहिए, दूसरे लोगों से भी मिलना चाहिए। उन लोगों का भी अपना सोच है, उस सोच के साथ भी मिलना चाहिए। अब लगता है कि शायद हम बिनोबाजी की बातों पर अडिग होते, उनकी बातों को मानते, तो ग्राम स्वराज्य का जो हमारा लक्ष्य था, उससे हम बिल्कुल अलग-थलग नहीं पड़ जाते। हम खुलकर राजनीति में मिल नहीं पाते हैं, क्योंकि राजनीति हमारा लक्ष्य नहीं है। हम मानते हैं कि वह तो एक केन्द्रीय उपकर्म है जबकि हम विकेन्द्रित व्यवस्था- विकेन्द्रित जीवन को चाहते हैं, इसलिए उसमें सहज मिलने की इच्छा नहीं होती। परन्तु जब तक ग्राम स्वराज्य जैसी स्थिति खड़ी नहीं होती, तब तक उसको छोड़ा भी नहीं जा सकता क्योंकि आखिर में ये सारी व्यवस्थाएं चरमरा जायेंगी तो स्वच्छंदता बढ़ जायेगी, यह बात भी मन में आती है। इसलिए मन में कोई स्पष्ट दिशा नहीं है। बुनियादी शिक्षा के बारे में कहँू तो किसी भी सभा या गोष्ठी में मुझसे यह प्रश्न पूछा जाता है कि बुनियादी शिक्षा में आपको कितनी सफलता मिली तो सफलता के बारे में तो हम फेल हैं। इसीलिए किसी संगठन या सम्मेलन में जाने की, वहां कुछ बोलने की इच्छा नहीं होती इसीलिए मैं नहीं जाता। वरना मनुष्य के रूप में सामाजिक प्राणी होने के नाते लोगों से मिलने की, बातें करने की इच्छा किसे नहीं होती।
इसके बाद बिहारीलाल जी ने अपने प्रारम्भिक जीवन के बारे में बताया-
मेरे पिताजी ने शुरू में टिहरी प्रजामण्डल में काम किया। प्रजामण्डल में यहां पर उन दिनों त्रेपन सिंह नेगी अध्यक्ष थे। छात्रावास में शंकर दत्त डोभाल उनके अनन्य सहयोगी थे। बूढ़ा केदार में महेश चन्द्र बहुगुणा राजनैतिक क्षेत्र में काफी मंजे हुए कार्यकर्ता थे। इन सब लोगों ने राजा की शराब की भट्टियां तोड़ने की कोशिश की। इस प्रकार प्रजामण्डल के जमाने से ही सामाजिक सुधार की एक प्रवृत्ति रही। 1949 में रियासत टूटी और लोकतंत्र की स्थापना हुई। 1951 में सर्वोदय का उदय हुआ और भूदान और ग्रामदान की प्रगति हुई। उसके बाद जेपी ने, जिन्हें भारत का लेनिन कहा गया, सब कुछ छोड़कर पटना में बिनोबाजी को अपना जीवन समर्पित किया। और वे शान्ति सैनिक बने। हमारे साथी शंकर दत्त डोभाल भी सर्वोदय के सैनिक बने और शान्ति सेना का संगठन किया। उसी दौर में मेरा सम्पर्क सुन्दरलाल बहुगुणा से हुआ तो सहज ही मेरा सर्वोदय में विश्वास बढ़ गया। तब से सुन्दरलाल बहुगुणा जी के साथ हमेशा मेरा साथ रहा। उनका सदा यह आग्रह रहा कि हमें समाजसेवा करनी चाहिए। समाजसेवा के कामों मे जुटते हुए हमें उत्तराखण्ड सर्वोदय मण्डल की ओर ध्यान देना चाहिए और खादी ग्रामोद्योग को बढ़ाना चाहिए।
इस बीच मैंने बुनियादी शिक्षा के बारे में काफी साहित्य पढ़ा। मेरे पिताजी की भी यह इच्छा थी कि कुछ बनोे, कुछ करो, इसमें मेरी आपत्ति नहीं है लेकिन यह जो पारम्परिक शिक्षा है, यह भी तुम्हें पूरी लेनी चाहिए। आजीविका दूसरी चीज है पर शिक्षा अपनी सन्तुष्टि के लिए ली जाती है। आजीविका तुम समाजसेवा से भी चला सकते हो। मैंने इन्टर पास करने के बाद पारम्परिक शिक्षा छोड़ दी लेकिन जब मैं सुन्दरलाल जी के साथ काम कर रहा था तो मुझे यह लगा कि यदि गांवों में काम करना है तो खादी ग्रामोद्योग और कृषि के बारे में मुझे जानकारी होनी चाहिए और यदि वह शिक्षा प्राप्त करनी है तो मुझे बुनियादी शिक्षा का अध्ययन करना चाहिए।
उन दिनों अक्षयकुमार जी खादी ग्रामोद्योग कमीशन के अध्यक्ष थे। उन्होंने उत्तरप्रदेश और बिहार में सबसे अधिक संस्थाएं स्थापित की थीं। पहले वे राजनीति में भी रहे। उनके कारण मुझे सेवाग्राम जाकर बुनियादी शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिला। मुझे लगा, जब तक हमारी शिक्षा-पद्धति और चुनाव-पद्धति में आमूलचूल परिवर्तन नहीं होता, तब तक हम देश में किसी प्रकार के व्यवस्था परिवर्तन की जो बात करते हैं, वह सम्भव नहीं है। समाज परिवर्तन या हृदय परिवर्तन में भी शिक्षा की अहम भूमिका है। इसके लिए एक प्रकार की रचनात्मक शिक्षा जो देश को स्वस्थ नागरिक बनाने में सहायक हो, उसके लिए हमें काम करना चाहिए। तो मैंने सात साल तक सेवाग्राम के शैक्षणिक कार्यक्रम-बुनियादी तालीम और उत्तर बुनियादी तालीम का अध्ययन किया। उसके अतिरिक्त दूसरी परीक्षाएं भी देता रहा।
फिर मैंने अनेक अनुभव लिये
फिर दुबारा मैं सिल्यारा आश्रम आ गया। वहां मुझे ऐसा लगा कि मूल्यों में थोड़ा फर्क आ गया है। अब उसे कैसे दूर किया जाय। तभी मुझे पुनः गुजरात जाना पड़ा। वहां समाजशास्त्र महाविद्यालय में मैंने शिक्षक के रूप में काम किया। उसी दौरान मुझे उत्तर बुनियादी शिक्षा के काम के लिए सेवाग्राम बुला लिया गया, जहां का कि मैं स्नातक था। वहां मुझे एक साल भी पूरा नहीं हुआ था कि बांगलादेश का युद्ध छिड़ गया, भारी उथल-पुथल हो गई। उस समय वहां मां-बहनों पर बहुत अत्याचार हुए। मेरे गुरुजी श्री राधाकृष्ण जी जो गांधी शान्ति प्रतिष्ठान में थे उस समय, उन्होंने मुझसे कहा कि बिहारीलाल, मैं इसलिए नहीं कह रहा हूं कि तुम ना कहो मुझसे। तुम सीधे कलकत्ता आ जाओ। मैं वहां गया और वहां बांगलादेश में मैंने एक साल तक पीड़ित बहनों के लिए काम किया। मूलतः तो हमारा तरीका बुनियादी शिक्षा का ही रहा पर उनको शिविरों में रखने से लेकर घर बसाने तक हमने काम किया।
प्रेम भाई एक बड़े योजनाकार हुए हैं। उन्होंने शिक्षा के नए-नए स्वरूप दिये हैं। सम्पूर्ण साक्षरता और सर्वशिक्षा अभियान में भी कई नई कल्पनाएं दी हैं, महिला समाख्या की कल्पना को साकार करने में भी उनका योगदान रहा है। उन्होंने कहा बिहारीलाल जी, आप हमारे साथ चलिए और वे मुझे मिर्जापुर ले गए। मैं सात साल मिर्जापुर में रहा। वहां हमने आदिवासी क्षेत्रों में काम किया। हमने शिक्षा के क्षेत्र में विविध काम किये। एक तो बुनियादी जीवन शिक्षा का काम किया जिसके अन्तर्गत जीवनशाला और ग्रामीणशालाएं स्थापित कीं। जो बच्चे स्कूल जा सकते थे, उनके जीवन शिक्षण का काम कैसे हो, उनकी जीवन पद्धति क्या हो, इसके लिए जीवनशालाएं खोली गईं। ग्रामीणशालाएं उन बच्चों के लिए थीं जो स्कूल छोड़ देते थे। ग्रामीणशाला का आन्दोलन उस समय सारे विश्व में चल रहा था, जैसे भैंस की पीठ पर स्कूल कैसे चले। उसी प्रकार हमारी समस्या थी कि आदिवासी जनता को कैसे शिक्षित करें क्योंकि उनके पास समय ही नहीं था, अपने साधन कुछ भी नहीं थे। सिर्फ महुआ के फूल खाकर अपना जीवन बसर करते थे। उसे चुनने में ही सारा समय लगाते थे। उनके लिए ग्रामीण शालाएं चलाने में हमने काफी समय दिया। उस समय बड़ी कठिनाई से आदिवासी बच्चों को स्कूल में लाते थे। मैं और मेरी पत्नी गांव-गांव जाकर बच्चों को लाते थे, उनको नहलाना, धुलाना, खिलाना-पिलाना, सब करते थे। रात को सुलाते थे, सुबह उठकर देखते थे तो बच्चे गायब। किसी प्रकार से इस काम को आगे बढ़ाया।
रिहन्द बांध जब बन रहा था तो वहां के राजपरिवार के लोगों ने विरोध किया था। बांध तो बन ही गया। उन्होंने तब मुआवजा भी नहीं लिया। कहा, हम अपनी मां का मुआवजा नहीं ले सकते। हम यहां से एक सुई भी नहीं ले जायेंगे और नहीं ले गये। जब उन लोगों के महल और मकानों में पानी भर गया तो सरकार ने नाव से उनको निकाला। वे जंगल में जाकर बस गये। उनकी स्थिति आदिवासियों से भी बदतर थी। हम उनके पास गये। वे चाहते थे कि हमारे बच्चे पढ़ें तो हमने उनके बच्चों को पढ़ाया। जब वे हमारे पास आने लगे तो आदिवासियों के बच्चे भी आने लगे। इस प्रकार से हम लोगों ने वहां पर स्कूल प्रारम्भ किया। करते-करते आज तो कई स्कूल हैं वहां पर। जीवनशाला तथा ग्रामीणशाला तो बाद में बन्द हो गईं पर जीवन शिक्षण विद्यालय आज भी वहां चल रहे हैं। आज उनका स्वरूप बदल गया है। सरकारीकरण हो गया है।
इसी बीच बिहार आन्दोलन शुरू हो गया। जयप्रकाश जी चाहते थे, मैं पलामूू जिले में जनता को आन्दोलित करूं तो मैं वहां चला गया। वहां दो महीने जेल में भी रहा। मैं ही नहीं, वहां सैकड़ों कार्यकर्ता थे। जब हम बाहर आये तो फूलमालाओं से सबका स्वागत हुआ। लोग जय जयकार कर रहे थे। हमें मालूम नहीं कि हमारी जमानत किसने करवाई। उन्हीं दिनों मेरे मन में आया कि मुझे अब उत्तराखण्ड जाना चाहिए। बलिया जिला सम्मेलन के दौरान मैंने बिनोबाजी से बात की कि मैं अब उत्तराखण्ड जाना चाहता हूं। उन्होंने कहा, क्या तलवार की धार पर चलना चाहते हो। क्या तुम्हारी चमड़ी भैंस के बराबर मोटी है। मैंने कहा बाबाजी, आपको अपनी शिक्षा पर शक है क्या? मैंने तो आपके साथ रहकर ही सीखा है। उन्होंने कहा, मुझे शक नहीं है। मेरा आशीर्वाद है, चले जाओ।
लोकजीवन विकास भारती के गठन के बाद-
जैसे ही परिस्थिति बनी मैंने यहां आकर काम शुरू कर दिया। काम तो मेरा वही बुनियादी शिक्षा का था। क्योंकि मैं बुनियादी शिक्षा को जीवन से अलग नहीं मानता। हमने जीवन विकास भारती को चार खेमों में बांटा – एक का नाम हमने दिया जीवन भारती, जिसका विशुद्ध काम शिक्षण का है अर्थात् शिक्षा को किस प्रकार से जीवन के विविध क्षेत्रों से, दैनन्दिन जीवन से जोड़ें। दूसरा है रचना भारती, जिसका काम है स्वावलम्बी जीवन के लिए किसी गतिविधि या उद्योग से जीवन को जोड़ना। ताकि एक स्वावलम्बी समाज बन सके। स्वयं भारती और ग्राम भारती ये चार शाखाएं इस प्रकार थीं। शिक्षा कोई ऐसी प्रक्रिया तो है नहीं कि हम बिजली का बटन दबायें और शिक्षा मिल जाये। उसमें तो समय लगता है। संस्कार के अन्तर्गत जब तक हम किसी चीज को नहीं डालते, तब तक वह शिक्षा किसी काम की नहीं। ईशावास्योपनिषद् में हम दो पहलू शिक्षा के देखते हैं – एक परा विद्या और दूसरी अपरा विद्या। यदि विज्ञान की भाषा में कहें तो एक को विशुद्ध विज्ञान कहेंगे और दूसरे को व्यावहारिक विज्ञान। हमारा जो सामुदायिक जीवन है उसमें बहुत सारी चीजें ऐसी हैं जिनमें बदलाव की आवश्यकता है। हमारा लक्ष्य होना चाहिए, शिक्षा के द्वारा समाज और खासकर बच्चे जो शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं, बदलाव की ओर आगे बढें। तो शिक्षा के क्षेत्र में आगे बढ़ते हुए हमने सामाजिक विकास के लिए भी काम किया।
उस समय हमने सबसे बड़ी समस्या देखी कि गांव में दूर से ही पता चलता था कि यह गरीब का घर है और यह अमीर का घर है। यह बहुत बुरा लगता था। मन में उपेक्षा के भाव पैदा होते थे। लगता था कि ये जो झोपड़ियां हैं, इन्हें पटाल के आंगन के रूप में आना चाहिए। हमने एक नारा दिया- मां बहिनों की जान बचाओ, हर घर में पटाल लगाओ। हमने जंगलात विभाग से बात की और मारवाड़ी पट्टी से पटाल की खानें रायल्टी पर लीं और 10-10 लोगों के समूह बनाकर पटालें निकलवाईं। और घरों को पटालों से छवाया। कोशिश यह रही कि सब घर पटाल के हो जायें। हमारा यह पक्ष था कि अमीरी और गरीबी का वैषम्य जो दिख रहा है, वह खत्म हो। अब तो वह खत्म हो गया है।
दूसरी महत्वपूर्ण सामाजिक बुराई यह थी कि उस समय कन्या विक्रय का बहुत प्रचलन था। हम लोगों ने इसे बन्द कराने के लिए बहुत जोर दिया। कुछ परिस्थितियां भी बदलीं। पर एक बात हमें यह लगती है कि कन्या विक्रय में मां-बहिनों का सम्मान था। क्योंकि सास-ससुर को यह चिन्ता रहती थी कि बहू के लिए इतना खर्चा किया है, यह मर जायेगी या छोड़ कर चली जायेगी तो हम फिर से लड़के की शादी के लिए इतना पैसा कहां से जुटायेंगे। पर अब जो यह दहेज की प्रथा आई है तो सास-ससुर सोचते हैं कि यह मर जाती तो हम दूसरी बहू ले आते और दहेज भी अधिक मिल जाता। इस प्रकार की जो भावना विकसित हुई है, उससे हमको लगता है कि हमने इसके पीछे जो समय बरबाद किया वह व्यर्थ किया।
शराबबंदी के लिए हमने काफी अच्छा काम क्षेत्र में किया है। करीब-करीब यह सफल हुआ है परन्तु उसमें हमको यह निराशा हाथ लगी है कि काम कोई कर रहा है और दूसरा कह रहा है कि हमने यहां शराब की इतनी भट्टियां तोड़ीं। हम नहीं चाहते कि हमारा नाम कहीं आये पर हम यह भी नहीं चाहते कि हमारे नाम का शोषण हो। इस तरह की जो गतिविधियां हुईं, उनसे हमें काफी निराशा हुई। इधर कुछ सालों से हमने शराब का विरोध छोड़ दिया है।
एक और प्रथा यहां प्रचलित थी। उन दिनों चैत के महीने में औजी तथा बेड़े लोग घर-घर जाकर नाचते-गाते थे और अनाज मांगते थे। उनके परिवार बंटे हुए थे। लोगों के लिए यह एक प्रतिष्ठा की बात हो जाती थी कि औजियों ने आकर नाचना है। भले ही उनको देने के लिए अपने पास कुछ न हो। गरीबी भी बहुत थी। मैं अपने समय की बात कर रहा हूं। दो महीने उत्तराखण्ड में सबसे अधिक गरीबी के होते हैं। एक जब आड़़ू फूलता है और दूसरा जब आड़ू पकता है। चैत में आड़ू फूलता है और सावन में पकता है। आज परिस्थितियां बदली हैं। उस समय हम बहुत सारे लोग आड़ू और कन्डाली घास खाकर ही रहते थे। अपने बच्चों के लिए खाना नहीं है तो औजियों को कहां से दें। मन ही मन लोग कुढ़ते थे पर जातीय अहंकार था कि इसको बन्द क्यों किया जाय। इसके लिए हमने लेबर कोआपरेटिव शुरू की। इसमें हमने औजियों को ठेके दिये जिससे उनको रोजगार मिला। ठेके भी दूर-दूर दिये। किसी को चमोली भेजा तो किसी को अल्मोड़ा। इस प्रकार से इस पर थोड़ा अंकुश लगा। हमने यह कोशिश की हमारे विद्यार्थी भी अन्धविश्वास तोड़ने और सामाजिक बुराइयों को कम करने में आगे आयें।
हम लोगों का एक महत्वपूर्ण काम यह भी रहा कि हमने उद्योग-धन्धा बढ़ाने के लिए टिहरी, उत्तरकाशी तथा रुद्रप्रयाग में काम किया। हमारे पास जो मुख्य कार्यकर्ता थे वे बदायूं और बिहार के थे ओर वे पिछड़ी जातियों से थे। उत्तराखण्ड आन्दोलन आरक्षण विरोध से शुरू हुआ। शुरूआत में जो घटनाएं हुईं, पिछड़ी जाति के लोगों के साथ जिस प्रकार से मारपीट हुई, उसमें हामारे जो अच्छे कार्यकर्ता थे, वे डरकर काम छोड़कर अपने घरों को चले गये। एक 85 साल का वृद्ध भी था जो महात्मा गांधी के साथ भी रहा था, उसका पूरा परिवार हमारे साथ रहता था, उसकी मृत्यु भी यहीं पर हुई थी, उसका परिवार बहुत डर गया और यहां से चला गया। इस तरह हमारा उद्योग-धन्धों का कारोबार चरमरा गया और हम भी उत्तराखण्ड आन्दोलन में लग गये।
इन तमाम कामों के अलावा हमारा मुख्य काम जल-संरक्षण का रहा। जल के दो मुख्य स्रोत हैं – बर्फ और वर्षा। बर्फ का तो निश्चित नहीं है पर वर्षा का पानी है। तो जो पर्वतों से नदियां निकलती है, ये जो गाड़-गधेरे हैं, ये सूखें नहीं और बाढ़ न लायें। जमीन को नुकसान न पहुंचायें। इन पर कैसे नियंत्रण हो, इनके प्रवाह मंे सातत्यता रहे, इनको चिरस्थायी कैसे बनाया जाय, यह मुख्य चिन्ता है। 1984-85 से हम लोगों ने चालों पर काम किया। मध्यप्रदेश से एक टीम को बुलाया। उसकी सहायता से किस ढाल पर कैसी चाल बनानी चाहिए, हमने इसका अध्ययन किया और उसी प्रकार की चाल बनाई। बड़ा या लम्बा प्रोजेक्ट तो हमने कभी लिया नहीं, इतनी क्षमता हमारी नहीं थी। संकट यह है कि जब भी किसी प्रोजेक्ट के तहत काम लिया जाता है तो एक बार तो निर्माण हो जाता है पर उसका रखरखाव कैसे हो, यह समस्या होती है। उसके लिए हमारे पास आज तक विकल्प नहीं है। चाल तो बनीं पर उनका रखरखाव कैसे हो। चिपको आन्दोलन में बहिनों ने यह नारा दिया था – धार ऐंच पानी, थाल पर डाला, बिजली बनावा खावा खावा, यह हमारा चिपको का मुख्य नारा था। अब गांव में जो ग्राम संगठन है, ग्राम पंचायत है या महिला मंगल दल है, जो भी संगठन गांव में है, गांव की दो चार चालों की देखरेख तो वह करेगा ही, मनरेगा से करेगा या दूसरे विकास की योजनाओं से करेगा पर धार ऐंच पानी तो तभी आयेगा जब हम जमीन के अन्दर के पानी को बढ़ाएं। इसके लिए हरीतिमा को फैलाना जरूरी है, यह आसान नहीं है। इसीलिए हमने इसे महसूस किया कि बड़ी चाल बनाना जरूरी है। 10-20 छोटी चालें तो हम आज भी बनाते हैं, पर बड़ी चाल बनाने के लिए प्रोजेक्ट लायेंगे तो उनके सक्षम रखरखाव के साधन हमारे पास नहीं हैं। मैंने कई बार कई जगह इसके लिए बात की है। चाल बनाने में तो सहयोग मिल जाता है पर रखरखाव में सभी हाथ पीछे खींच लेते हैं।
जैसाकि मैंने शुरू में बताया, हमारा मुख्य कार्यक्रम तो शिक्षा का है तो हमारा स्कूल और प्रशिक्षण का कार्यक्रम नियमित चल रहे हैं। 1997, 2000, 2002 और फिर 2003 की बाढ़ से हमारी संस्था को बहुत नुकसान हुआ। हमारी आय के जो स्रोत थे, जो नर्सरी थी, उसका बहुत नुकसान हुआ। 1997 में 29 लाख रुपये की सम्पत्ति बह गई। सरकार से तो हमने कभी एक पैसा आज तक नहीं लिया। वह तो हमारे उसूल के खिलाफ है। कभी पैसा लिया तो एक या दो सहयोगी संस्थाओं से लिया। हमने लक्ष्य बनाया है कि हमारे पास जो भी पैसा हो, वह मार्च में खत्म हो जाना चाहिए। मार्च में पैसा निल होना चाहिए, ताकि पाॅलिटिक्स न हो। जो भी आदमी यहां आये, पैसा कमाने के लिए या पैसा हड़पने की दृष्टि से पालथी मारने के लिए न आए। वरन् अपने पुरुषार्थ से पैसा खड़ा करे, यह हमारी भावना रही है। लेकिन बार-बार की तबाही ने हमें परेशान कर दिया है। किसी प्रकार से कर्जा करकेे हम 50 लड़कों का 2007 तक खर्चा चलाते रहे। फिर एक सीमा आ गई। कर्जा हम पर बहुत बढ़ गया। 2007 में हमने स्कूल बन्द कर दिया। अब जाकर हमने बिजली का पाॅवर हाउस, आस-पास की जमीनें, थोड़ा बहुत ठीक कर ली हैं। अब हम वर्कशाॅप भी लगता है, फिर से चलाना शुरू कर लेंगे। यदि पैसा नहीं भी मिलता है तो बच्चे भूखे तो नहीं रहेंगे। अब जरूरत हमको विशेषज्ञों, प्रशिक्षकों की है।
इधर बेटियों के लिये विद्यालय शुरू किया-
पिछले साल से हमने 50 लड़कियों के साथ विद्यालय शुरू किया है। विशेष रूप से लड़कियों को लिया है। इससे पहले लड़कों को लेते रहे पर इधर हमने देखा कि लड़के पहाड़ में टिक नहीं रहे हैं। 10 या 15 प्रतिशत लड़के ही हमारे हाथ आते हैं। बाकी तो होटलों में काम करने चले जाते हैं या पढ़कर आगे कहां जाते हैं, पता नहीं चलता। परन्तु वे गांव में टिक नहीं पाते। पर हमारा उत्तराखण्ड तो नारी शक्ति पर ही खड़ा है। ज्यादा से ज्यादा 60 या 70 प्रतिशत लड़कियां तो हमें मिलेंगी ही। यदि वे अनाथ लड़कियां हैं, जिसकी मां या बाप नहीं है, असहाय हैं और वे पढ़ना चाहती हैं, तो उनको हम लाभार्थी मानते हैं। उनको चाहे जैसे भी हो, हम पढ़ाते हैं। भगवान बूढ़ा केदारनाथ पर हमको भरोसा है। परेशानी में तो हम जरूर रहते हैं पर हम उससे निबट भी जाते हैं। पिछली बार मैं एक दूरस्थ गांव डालगौं गया था। शनिवार का दिन था, अचानक मैं एक सरकारी स्कूल में चला गया। देखा, उनका सांस्कृतिक कार्यक्रम चल रहा था। जूते बिल्कुल कतार में रखे थे, बहुत अच्छा कार्यक्रम चल रहा था। जैसा कि एक अच्छा स्कूल होता है। मुझे बहुत ही खुशी हुई। मैं तो अध्यापक को पहचानता नहीं था पर वह मुझे पहचान गया। मुझे बुलाया, बच्चों से गीत गवाये। काफी अच्छा लगा। उसने कहा, साहब, बगल में भी एक स्कूल शिशु मंदिर है। मैंने कहा, चलो, मैं उसको भी देख लेता हूं। वहां देखा तो सारे जूते इधर-उधर बिखरे पड़े हैं। अध्यापक अन्दर बैठा है। बच्चे हल्ला कर रहे हैं। तब मुझे ध्यान आया कि सरकारी स्कूल में सब लड़कियां ही लड़कियां थीं और इस स्कूल में सब लड़के हैं। मैंने पूछा ऐसा क्यों? अध्यापक ने बताया, इस स्कूल में फीस देनी पड़ती है इसलिए मां-बाप लड़कों को यहां भेजते हैं और लड़कियों को सरकारी स्कूल में क्योंकि वहां फीस नहीं देनी पड़ती। तभी मेरे दिमाग में यह बात घर कर गई कि चलाना है तो लड़कियों का स्कूल ही चलाना है। हमने कहा, चाहे वह सम्पन्न घर की हो या विपन्न घर की, हम लेंगे तो लड़कियों को ही। इसलिए हम लोग दूरस्थ गांव देखते हैं। हम यह नहीं पूछते कि तुम्हारा बाप क्या करता है, तुम लोगों की कितनी जमीन है, कितनी गाय-भैंस या भेड़-बकरियां हैं। हम यही जानना चाहते हैं कि कहां के हो। यदि मेड गांव के हैं तो इनका नाम लिखो। पिछले साल से 50 लड़कियों को हम पढ़ा रहे हैं। अभी छुट्टियां चल रहीं हैं, अन्यथा आप लोग उनसे मिल पाते, बातचीत कर पाते। 15 जुलाई को स्कूल खुलेगा। अभी कहीं से एक पैसा नहीं है पर स्कूल चलेगा। बचपन में सुन्दरलाल जी हमको सिखाते थे- वीरों की यह बात है भाई, कायर का नहिं काम रे। सर पर बांध कफन को निकले बिन सोचे परिणाम रे। जिस को लगी सेवा की लगन, कुर्बान का जिस पर रंग चढ़ा। ऐसे मस्त कहां लेते हैं सुख और चैन का नाम रे। तो यही संकल्प है हमारा। इसी तरह हम चलते हैं।
25 जून 2014
One Comment
उमेश तिवारी
बहुत प्रेरणादायक साक्षात्कार कलमबद्ध किया है उमा दी। पता चलता है, कितना समय है जीवन में काम करने वाले के लिए! कर्मयोगी पुण्यात्मा बिहारीलाल जी को नमन।