देहरादून होली की शान थे दीवान सिंह कुमैय्या फोटोग्राफर
डॉ. अतुल शर्मा
हमें प्रसिद्ध फोटोग्राफर स्व.दिवान सिंह कुमैया जी की बहुत याद आती है, खास तौर पर होली के अवसर पर, हम उस समय फालतू लाइन के पास लिटन रोड (अब सुभाष रोड) पर रहते थे, पचास एक साल पुरानी होली उत्सव के वे अद्भुत रंग याद आ रहे हैं जो होलिका दहन से पहले होते थे। स्थान था सैंटथामस स्कूल का मैदान उस होलिका उत्सव में बहुत से लोकगायक सक्रियता से भाग लेते। इनमे प्रसिद्ध लोकगायक जीत सिंह नेगी जी, केशव अनुरागी जी, जीत जड़धारी जी, शिव प्रसाद पोखरियाल जी, मोहिनी जी, रेखा डोभाल जी, उर्मिल कुमार थपलियाल जी, नानू काका,जी, घन्नी के अलावा, रानी मुखर्जी, बबलू, ओमी लाला, जगत सिह बिष्ट, जी प्रतिभा जी गीता आदि। इन्ही के साथ साथ एक विशेष नाम है दिवान सिंह कुमैया जी का।
सुबह ही वे सफेद कुर्ता- पाजामा और टोपी पहन कर निकल पड़ते। हाथ मे हुड़का होता। वे गाते बजाते और खूब नाचते। बस यहीं से उनकी शुरूआत हो जाती थी। उनमे होली के उत्सव की जो स्वाभाविक उमंग होती वह बहुत थिरकन भरी थी। पूरे क्षेत्र मे कुमैया दा ही होते चर्चा मे। फिर वे घर-घर जाते और वहाँ हुड़का गुंजाते तो लोग बरबस नाचने लगते। लोग टोली बना कर गली मोहल्ले में जाते। सबको प्रतीक्षा रहती। साथ साथ लोग बोलते “जय बोलो रे होली वालों की“।
वैसे यह बात पचास साल पुरानी होगी। वह हमारे घर भी आते। पिता जी श्रीराम शर्मा ‘प्रेम’ का वे बहुत आदर करते थे। जब थोड़ा थक कर बैठते तो वे उठकर मधुमक्खियों की पेटी का भी मुआयना कर लेते थे। यह वे ही लगाते थे।
शाम पांच बजे तक एक कंधे पर हुड़का और दूसरे कंधे पर कैमरा लटकाये व्यस्त रहते और व्यस्त रखते थे। वे बहुत बडे़ फोटोग्राफर थे। इलेस्ट्रेटिड वीकली, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, आदि बडी़ पत्रिकाओं मे उनके खींचे फोटो लगातार छपते थे।
होलिका दहन से पहले लोगां की फर्माइश के बीच वे मंच पर आते तो गायक गीत गाते और कुमैया जी ठेठ कुमाऊँ के अंदाज़ मे हुड़का बजाते और पूरे मंच पर नाचते। एक और खासियत थी कि कई बार गीत मंच पर होता रहता और वे श्रोताओं व दर्शकों के बीच आ जाते और खूब हुड़का बजाते। वे होली की जान होते और लोकसंस्कृति के कलाकार भी। वे नाचते या हुड़का ही नहीं बजाते थे, वे कुमाऊँ की लोकसंस्कृति को जीते थे।
उनके घर अक्सर जाना होता तो वे खडी़ और बैठकी होली की बहुत रोचक बातें बताते। उनका यह करना कुछ पाने के लिए नही होता था बल्कि लोकसंस्कृति को प्रसारित करना होता था। उन्हें इसकी पूरी जानकारी थी। वे सबको जानते थे और सब उनको जानते थे।
एक बार प्रसिद्ध लोकगायक मोहन उप्रेती जी और नईमा खान ने एक प्रस्तुति नगरपालिका देहरादून के मंच पर दी तो कुमैया दा अपने हुड़के के साथ वहाँ भी पहुंचे हुए थे और दिल से जुड़े हुए थे।
आज हर होली पर उन्हे याद करता हूँ पर लोग उन्हें भूलते जा रहे हैं। पर कुछ लोगों के दिलों मे वे आज भी जीवित हैं।
मैंने चालीस वर्षों से जगह-जगह उन्हें लेखों और चर्चाओं मे निरंतर याद किया है। वे मुझे एक सच्चे लोकसंस्कृतिकर्मी के रूप मे याद रहते हैं।
हर हर पीपल पात, जय देवी आदि भवानी
धीरज सिंह नेगी
होली को उत्तराखंड के परिप्रेक्ष्य में देखें तो कुमाऊं और गढ़वाल में इस उत्सव के आयोजन में भिन्नता दृष्टिगोचर होती है। कुमाऊं में जहाँ पूष के पहले रविवार से शुरु होकर वसन्त पंचमी से होली बैठक परवान चढ़ने लगती है साथ ही शिवरात्रि के बाद और फागुन एकादशी से खड़ी होली की परम्परा है, वहीं गढ़वाल में पौड़ी, श्रीनगर, पुरानी टिहरी आदि शहरों के अतिरिक्त ग्रामीण अंचल में होली की कुमाऊं जैसी परम्परा नही ंदिखती। हां कभी कुछ शौकिया लोग मिलकर होली खेल लेते थे। गढ़वाल में वसंत पंचमी से लोक गीत व लोक नृत्य प्रारम्भ कर बैसाखी तक चलते रहते थे। इन गीतों में थड्या गीत प्रमुख रूप से गाये जाते थे। दक्षिण गढ़वाल के इलाके सलाण में होली के बजाय लोक गीतों के गायन की परम्परा रही है।
सन 1960-62 की बात होगी जब हम जूनियर कक्षाओं में पढ़ने वाले छात्रों ने होली खेलने की ठानी। मां भगवती की लाल ध्वजा दर्जी से सिलवा कर उसे बाँस के डन्डे में टांक कर अपने गांव से लेकर आसपास के गाँवों तक, घर में बनाए रंगों और बांस की पिचकारियों के साथ होली खेलने निकल पड़े। लोगों ने हमें गुड़, आटा, चावल आदि वस्तुऐं भेंट दी। हमारे साथी श्रीचंद ने कुछ होली गाईं – ‘हर हर पीपल पात, जय देवी आदि भवानी….‘। बांकी बच्चे उसका अनुसरण करते रहे। होली की पूर्व संध्या पर होलिका दहन किया गया। लोगों से प्राप्त आटा-चावल पका कर प्रसाद वितरित किया गया। गढवाल में रंगोत्सव को छरोली के नाम से पुकारा जाता है। होली के दिन हम होली की राख की पुड़िया बनाकर घर-घर बाँटने गए। शायद उसके बाद फिर कभी गाँव में होली का ऐसा सुंदर आयोजन नहीं हो पाया।
1965 में देहरादून आने पर कई वर्षों तक होली का उमंग और उत्साह बना रहा। 1972 में हम लोगों ने अपने मोहल्ले में बाकायदा एक समिति बनाकर होली का उत्सव मनाना शुरु किया। ढोल-दमांऊ के साथ होली गायन करके घर-घर में बधाई देने के लिए टोली बनाते थे।
लोगों से चन्दे में जो दक्षिणा मिलती या उसे मोहल्ला कल्याण कोष में जमा करते तब से अब तक इस प्रकार हजारों रुपये का कोष बनाकर जन उपयोगी वस्तुऐं लोगों को उपलब्ध करायी हैं। मुख्य रूप से शादी-विवाह में सामान्य शुल्क पर ऐसी सामग्री उपलब्ध कराई जाती। अब होली का सांस्कृतिक पक्ष कमजोर पड़ता जा रहा। उत्तराखण्ड राज्य बनने के उपरान्त देहरादून में कुमाऊं के लोगों की भी संख्या बढ़ी और यहाँ भी कुमाऊँ होली का आयोजन शुरू होने लगा। पुराने समय में दून के बालावाला, शमशेरगढ की पारम्पारिक होली गायन प्रसिद्ध रहा है। वहाँ झूमालाल के ढप की चर्चा आज भी होती है। दून के बढ़ते शहरीकरण में होली की कई पुरानी यादें अब सिमट कर रह गयी हैं। काश वे दिन फिर से लौट आते।