अनुवाद ‘रमदा’ द्वारा
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पासए मोर्चे पर लगाने के लिए तकरीबन 6,00,000 की संख्या का अनुशासित और उच्चतः प्रशिक्षित कार्यकर्ता—संवर्ग है। शेष के पास ऐसा कुछ भी नहीं है। इस बार भाजपा के पास शेष दलों के समग्र की तुलना में 20 गुना ज्यादा पैसा था और अगली बार यह 50 गुना अधिक होगा।
निश्चिततः भारत में चुनावों का सम्बन्ध धनबल, प्रचार—प्रसार के तमाशे और मीडिया तथा सोशल मीडिया को अधिकाधिक नियंत्रित कर पाने से है। चुनाव आयोग को शामिल करते हुए देश की प्रत्येक संस्थाए कौन जाने शायद ई.वी.एम. भी उन्हीं की इच्छानुसार सक्रिय रही। अकूत धन की सहायता से उन्होंने हजारों की तादाद में आई.टी विशेषज्ञों, आँकड़ों के जादूगरों, प्रत्येक समुदाय, क्षेत्र, जाति, वर्ग यहां तक कि हरेक चुनाव—क्षेत्र और पोलिंग—बूथ तक के लिए तयशुदा प्रोपेगैंडा से सुसज्जित हजारों व्हट्सअप समूहों को संचालित करने वालेए सोशल—मीडिया एक्टिविस्टों की सेवायें ली।
ऐसा और इतनी मात्रा में पैसा बिक्री के लिए पेश की जाने वाली हर चीज़ बेचने में सफल रहता है और इस एक मामले में तो उत्पाद इतना विषैला था कि एक महामारी ही फैल गयी। विशाल स्तरीय, विषैली मध्ययुगीन मूर्खता से इतर महत्वपूर्ण कोई भी मुद्दा न तो जलवायु—परिवर्तन, न आसन्न, आर्थिक संकट, न स्वास्थ्य, न शिक्षा ही चुनाव—प्रचार का हिस्सा बना।
हम किस तरह इसे एक साफ—सुथरा चुनाव मान सकते हैं। यह तो एक ‘फेरारि’ और कुछ साइकिलों के बीच की रेस थी। इस दौड़ में असामान्य कुछ भी न देखते हुए मीडिया ने ‘फेरारि’ का खूब उत्साह वर्धन किया और आजकल ‘फेरारि’ की तारीफ के पुल बाँधते हुए साइकिलों को उनके ख़राब प्रदर्शन के लिए क़ोस रहा है।
सवाल यह है कि अब वे शेष रास्ते कौन से हैं जिनसे इस किलेबंदी को चुनौती दे जा सके। जो जीता वही सिकंदर लोकतंत्र के इस मॉडल—विशेष में मौजूदा राजनैतिक—दल धन और नफरत से परिपूर्ण इस अजेय चक्रव्यूह का सामना कर सकने की क्षमता नहीं रखते। मेरा मानना है कि जन—रोष ही एक दिन इसे ध्वस्त करेगा। मैं किसी क्रांति की बात नहीं कर रही। मैं गैर सरकारी संस्थाओं; एन.जी.ओ. के प्रभावों से मुक्तए स्वतःस्फूर्तए जनआन्दोलनों के पुनर्जीवित होने की बात कर रही हूँए और ऐसा होगा। इससे नई ऊर्जा और एक ऐसे विपक्ष का सृज़न होगा जिसे अपने अनुकूल ढाल पाना संभव नहीं होगा।
हमें एक नया खेल खेलना ही होगा जिसके परिणाम उस तरह ‘फिक्सड’ नहीं किये जा सकेंगे जिस तरह इस बार किये जा सके। प्रजातंत्र की महान विजय गाथा की तरह पेश किये जा रहे भारत के वर्तमान चुनाव दरअसल प्रजातंत्र जैसा कि उसे होना चाहिए का उपहास मात्र हैं।