राजीव लोचन साह
‘आपदा में अवसर’ मुहावरे गढ़ने में निष्णात हमारे प्रधानमंत्री का प्रिय जुमला है। वैसे समझदार लोग ऐसा हमेशा से करते आये हैं। यह हमारे देश की फितरत है। आज से सत्तर साल पहले तक व्यापारी अनाज की जमाखोरी कर अकाल की स्थितियाँ पैदा कर देते थे। कानून ने इसे रोका। पिछले वर्ष मई-जून में कोरोना की दूसरी लहर के दौरान निजी अस्पतालों, दवाई विक्रेताओं और एम्बुलेंस वालों ने खूब कमाया। अभी युद्धग्रस्त उक्रेन से वापस लाये गये भारतीय छात्रों से ‘प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जिन्दाबाद’ के नारे लगवाने का वीडियो वायरल हुआ है। लेकिन इस जुमले को छोड़ दिया जाये तो आपदायें हमें जरूरी सबक देती हैं, भले ही हम उन्हें अनदेखा कर दें। पिछली सदी के आखिरी दशक में जब नरसिंहाराव सरकार ने देश में आर्थिक उदारीकरण के दरवाजे खोले तो निजी क्षेत्र में जबर्दस्त उछाल आया। जानकार और समझदार लोग तब से लगातार इस बात पर जोर दे रहे हैं कि कम से कम शिक्षा और स्वास्थ्य को निजीकरण से दूर रखा जाये। लेकिन अब तक की किसी भी सरकार ने इस बात पर कान नहीं दिया है। शिक्षा और स्वास्थ्य सबसे बड़े व्यापार हो गये हैं। छोटे-छोटे कस्बों तक में तक इनकी पहुँच हो गई है। सरकार की ओर से अस्पतालों और स्कूलों को इतना कमजोर कर दिया गया है कि गरीब से गरीब आदमी भी निजी अस्पतालों और निजी स्कूलों की शरण में जाने को विवश है। जबकि आजादी के बाद पचास साल तक इन सुविधाओं ने सरकारी क्षेत्र में रह कर सफलतापूर्वक जनता की सेवा की थी। अभी कोरोना ने हमको बताया है कि निजी अस्पताल तो सिर्फ लूट-खसोट के अड्डे हैं। स्वास्थ्य का बुनियादी ढाँचा चरमरा जाने के बावजूद उस आपदा में जितना भी काम किया सरकारी अस्पतालों ने किया। अब उक्रेन के युद्ध ने हमें बताया है कि यदि देश में शिक्षा इतनी महंगी नहीं होती तो इतने सारे बच्चे विदेशों में पढ़ने नहीं जा रहे होते। इन दोनों आपदाओं के सबक साफ हैं। मगर क्या हम आगे के लिये कुछ सोचेंगे ?