नवीन जोशी
तो उर्मिल कुमार थपलियाल भी चले गए। कोविड महामारी के चरम दौर में उनकी बीमारी की खबर मिली थी। उन्हें कोविड नहीं हुआ था, लिवर में कैंसर का पता चला था जो असाध्य हो गया था। कुछ दिन अस्पताल में रहे फिर घर आ गए थे। महामारी के कारण घर में लगभग कैद मैं उनसे मिलने नहीं जा सका। बीमारी के बाद फोन पर भी बात नहीं हो पाई थी, हालांकि हमारी अक्सर खूब बातें होती रहती थीं।
अपनी किशोरावस्था से मैं उर्मिल जी को जानता था। उनसे आकाशवाणी में अक्सर भेंट होती। मैं ‘उत्तरायण’ में वार्ता पढ़ने जाता तो वे कार्यक्राम के बीच पांच मिनट के लिए समाचार पढ़ने आते थे। उन्हें नाटकों में अभिनय करते देखता और उनके निर्देशित नाटक भी। जब पता चला कि उर्मिल जी एक जमाने में कहानियां लिखते और धर्मयुग में भी छपते थे तो मैं अपनी कहानियां उन्हें दिखाने और उनसे सीखने उनके घर पहुंच जाता था। स्थानीय समाचार में पत्रों उनके व्यंग्य प्रकाशित होते थे। जब मैं ‘स्वतंत्र भारत’ में काम करने लगा तो उसके कुछ समय बाद उन्होंने उसमें ‘सप्ताह की नौटंकी’ कॉलम लिखना शुरू किया। यह कॉलम वर्षों चला। बीच में कुछ वर्ष ‘आज की नौटंकी’ नाम से दैनिक कॉलम भी लिखा। नौटंकी में वे समसामयिक राजनैतिक विषयों पर खूब चुटकी लिया करते थे। एक बार उन्होंने तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव पर तीखी चुटकी ले ली। मुलायम नाराज हुए या उनका कोई चमचा अफसर, पता नहीं लेकिन सम्पादक घनश्याम पंकज ने ‘नौटंकी’ कॉलम बंद करवा दिया। बाद में वह फिर शुरू हुआ। ‘हिंदुस्तान’ में हमने उनसे ‘नश्तर’ कॉलम शुरू करवाया। ‘नौटंकी’ आधारित उनके कॉलम कई और अखबारों में छपने लगे। नट-नटी संवाद और सामयिक मुद्दों की शैलियों में बजता उनका नक्कारा (नगाड़ा) अखबारों-पत्रिकाओं में सबसे पहले पढ-आ जाता था।
थपलियाल जी के साथ लम्बी बातचीत का इरादा कब से मन में था। महामारी शुरू होने के ठीक पहले जनवरी 2020 में एक दिन मैं डायरी लेकर उनके घर जा पहुंचा- ‘अपने बचपन और परिवार के बारे में बताइए।’
वे हंसे- ‘क्या करोगे यार जोशि ज्यू यह सब जानकर?’ मैंने उन्हें टाल-मटोल नहीं करने दी, जिसमें वे माहिर थे। बात अचानक कहीं से कहीं मोड़ देते थे। एकाध बार पहले ऐसा कर चुके थे। जाड़ों की गुनगुनी धूप में बैठकर फिर उन्होंने अपनी कहानी बतानी शुरू की। उन्हें एक-एक विवरण याद था। इसलिए विस्तार में बात होने लगी। एक-डेढ़ घण्टे वे अपने बचपन के बारे में बोलते रहे। कुछ दिन बाद मैं फिर पहुंचा उनके पास। उस दिन उन्होंने देहरादून पहुंचने और किशोरावस्था से लेकर युवावस्था के दौर के किस्से बताए। उससे आगे की कहानी वे तीसरी बैठक में बताने वाले थे, हालांकि बार-बार पूछते थे कि इसका करोगे क्या। उसके बाद महामारी का प्रकोप ऐसा आया कि हमारी मुलाकात नहीं हो सकी। हाल-चाल जानने के लिए फोन पर बात होती थी और हर बार यही तय होता था कि महामारी जाए तो देहरादून से लखनऊ तक के उनके सफर पर बात होगी। यह बात अब कभी नहीं हो पाएगी।
ग्राम ढौंड, मासों (गढ़वाल) निवासी पिता गुणानंद थपलियाल और माता राजेश्वरी की यह एकमात्र संतान कब जन्मी कोई नहीं जानता। मां का निधन प्रसव के दौरान या उसके कुछ दिन बाद हो गया था और जब राजेश्वर (मां के नाम पर यही नाम उनका तय हुआ था) पांच या छह वर्ष का था तो पिता चल बसे। अनाथ हो गए इस बालक को उसकी एक विधवा बुआ ने पाला। बुआ को ही वह मां कहता था। उर्मिल जी ने हंसते-हंसते कहा था- ‘मैं अनूठा हूं। मेरा कोई भाई नहीं, बहन नहीं, चाचा-ताऊ नहीं।’ देहरादून में स्कूल जाने पर राजेश्वर ने स्वयं अपना नाम लिखवाया- सोहनलाल। यही उनका आधिकारिक नाम था- सोहनलाल थपलियाल। जब कविता लिखने लगे तो तखल्लुस रखा ‘उर्मिल’ जो बाद में उनका पहला नाम ही बन गया। रेडियो पर जब वे कहते- ‘अब आप सोहनलाल थपलियाल से समाचार सुनिए’ तो बहुतों को आश्चर्य होता था।
थोड़ा बड़ा होने पर किशोर सोहनलाल ने गांव के घर में पड़े एक पुराने बक्से को उलटा-पुलटा तो उसमें एक पोस्टकार्ड मिला जिसमें दामोदर चंदोला ने गुणानंद जी को श्रावण संक्रांति के दिन पुत्र-जन्म की बधाई लिखी थी। पोस्ट कार्ड सन् 1941 का था। सोहनलाल ने इसे ही अपना जन्म वर्ष मान लिया। इस हिसाब से चार दिन पहले ही हरेला के दिन उनका 81वां जन्म दिन था। फेसबुक पर उन्हें बधाइयां भी मिली थीं।
उनकी स्कूली शिक्षा देहरादून में हुई- लक्ष्मण विद्यालय, लक्खीबाग और इस्लामिया स्कूल (आज का गांधी विद्यालय) में। 1957 में हाईस्कूल पास किया। देहरादून में ही सोहन लाल में भविष्य के उर्मिल थपलियाल के बीज पड़े और अंकुर फूटे जिसे कहानी और कविताओं से शुरू करके नाटककार, रंग अभिनेता-निर्देशक, लोक संगीत मर्मज्ञ और नागर नौटंकी को पुनर्स्थापित एवं नया रूप देने वाला चर्चित नाम बनना था।
बाल्यकाल में बुआ का काम करते-करते गुनगुनाते रहना उनके भीतर किस कदर संगीत जगा गया था यह 1957 में चुक्खू की रामलीला में सीता की भूमिका अदा करते हुए सामने आया। रामलीला की तालीम कराने वाले सुमाड़ी के सदानंद काला ने सोहनलाल की प्रतिभा पहचानी। सीता का उनका अदा किया रोल इतना पसंद किया गया कि देहरादून की दूसरी रामलीला में भी, जो सर्वे ऑफ इण्डिया, हाथी बड़कला में होती थी, उन्हें उसी रात सीता बनने जाना पड़ता था। बुआ के कण्ठ से सुनी लोक धुनें उनके मन-मस्तिष्क में इस कदर बैठी रहीं कि वर्षों बाद जब अपने चचेरे दादा भवानी दत्त थपलियाल का सन 1911 में लिखा गढ़वाली नाटक ‘प्रहलाद’ उन्होंने लखनऊ में मंचित किया तो वही धुनें इस्तेमाल कीं। वे बताते थे कि बुआ को पूरा ‘प्रह्लाद’ नाटक कंठस्थ था।
देहरादून में पढ़ते हुए और बाद में ‘हिमाचल टाइम्स’ में काम करते हुए सोहनलाल ने कहानियां लिखीं, ‘उर्मिल’ उपनाम रखकर कविताएं लिखीं और नीरज एवं शेरजंग गर्ग जैसे कवियों के साथ मंच से सुनाईं। वहीं उनकी मुलाकातें परिपूर्णानंद पैन्यूली, दीवान सिंह ‘कुमैयां’, जीत सिंह नेगी, केशव अनुरागी, अल्मोड़ा से अक्सर आने वाले मोहन उप्रेती और ब्रह्मदेव जी के यहां आए धर्मवीर भारती, मोहन राकेश, आदि से हुईं। इसी दौरान वे टाउनहाल में मंचित नाट्य प्रदर्शनों के प्रति आकर्षित हुए। पारसी रंगमंच के प्रभाव वाले इन प्रदर्शनों का उन पर ऐसा जादू चढ़ा कि उसी तर्ज़ पर ‘अनारकली’ नाटक लिखा और होली की रात सांस्कृतिक पण्डाल में स्वयं ही मोनो प्ले के रूप में मंचित कर डाला। अकबर, सलीम, अनारकली, सारी भूमिकाएं अकेले निभाईं। यहां से रंग-अभिनेता, लेखक और निर्देशक उर्मिल थपलियाल की जो यात्रा यात्रा शुरू हुई वह अनेक पड़ाव पार करते हुए उनके निधन से कुछ मास पहले तक अबाध जारी रही।
1964 में लखनऊ आने के बाद वे धीरे-धीरे पूरी तरह रंगमंच को समर्पित होते गए। 1965 से आकाशवाणी में समाचार वाचक बने। शुरुआती दिनों में उन्होंने गढ़वाली लोक संगीत और लोक-नाट्य‘ आधारित ‘फ्यूलीं और रामी’, ‘मोती ढांगा’ और ‘संग्राम बुढ्या रमछम’ जैसी प्रस्तुतियां भी दीं। ‘कुत्ते’ और ‘काठ का घोड़ा’ जैसे शुरुआती प्रायोगिक नाटकों के बाद उर्मिल थपलियाल रंगमंच में निरंतर प्रयोग करते गए। पहाड़ से जो लोक संगीत और नृत्य वे साथ लेते आए थे, उसका नाटकों में रचनात्मक प्रयोग किया। उनके अभिनीत और निर्देशित नाटकों की सूची लम्बी है। एक दौर में ‘यहूदी की लड़की’ और ‘सूर्य की पहली किरण से सूर्य की अंतिम किरण तक’ जैसी उनकी प्रस्तुतियां बहुत सराही गईं थीं। कालांतर में लोक नाट्य विधाओं की ओर वे अधिकाधिक आकर्षित होते गए। अखबारों में नौटंकी लिखते ही नहीं थे, नाटकों में नौटंकी का बेहतरीन प्रयोग भी करते थे। इसकी उच्च स्तरीय परिणति ‘हरिश्चन्नर की लड़ाई’ में देखी गई जो अपने सैकड़ों प्रदर्शनों में हर बार नया होता रहता है। नौटंकी का उन्होंने खूब अध्ययन किया और गुलाब बाई के जीवन पर एक नाटक भी लिखा-खेला। अपने लोक-नाट्य-प्रयोगों के बारे में एक बार उन्होंने मुझसे कहा था कि “गांव का आदमी अगर मुर्गे की बांग पर जागता है तो शहर के आदमी को ‘अलार्म’ चाहिए। मैंने अपनी नौटंकी में अलार्म घड़ी में मुर्गे की बांग फिट करने की कोशिश की है।”
पढ़ना-सीखना उनका निरंतर चलता रहता था। प्रौढ़ावस्था में उन्होंने गढ़वाल विश्वविद्यालय से ‘लोक रंगमंच में गति व लय’ विषय पर पीएचडी पूरी की। नौटंकी की मूल धुनों एवं वाद्यों की स्वर लिपियां बनाने में भी वे लगे रहते थे। उनमें गजब का हास्य-व्यंग्य बोध था। उनकी राजनैतिक-सामाजिक चुटकियां अंतिम दिनों तक विभिन्न समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं। ‘रीजनल रिपोर्टर’ में भी वे ‘बकमबम जी बकमबम’ नाम से कॉलम लिखते थे। वे देश-दुनिया के समाचारों से अद्यतन रहते थे और उनके लेखन में उस पर खूब चुटकियां होती थीं। खूब लिखने के बावजूद उनमें दोहराव नहीं होता था। कोरोनाकाल में उन्होंने फेसबुक को माध्यम बनाकर रंगमंच की बारीकियों पर व्याख्यान भी पेश किए।
उत्तर प्रदेश संगीत अकादमी से लेकर केंद्रीय संगीत नाटक अकादमी, हिंदी संस्थान और देश भर की विभिन्न संस्थाओं ने उन्हें सम्मानित-पुरस्कृ नौटंकी और नाट्य कार्यशालाओं एवं मंचनों के लिए वे हाल-हाल तक देश भर का दौरा करते रहते थे। वे बड़े खुशदिल और यारबाश इनसान थे। पहाड़ीपन उनकी बोली-बानी और व्यक्तित्व में छाया रहता था।
हिंदी रंगमंच को उन्होंने नए प्रयोगों और लोक नाट्य शैलियों से समृद्ध किया। लुप्तप्राय नौटंकी को पुनर्स्थापित करने और मूल स्वरूप में छेड़छाड़ किए बिना उसका नागर रूप विकसित करने के अलावा व्यंग्य को नई धार देने के लिए भी वे याद किए जाएंगे।
One Comment
Rajendra Bhatt
बहुत अच्छा , प्रवाहमय लेख।