महिपाल नेगी
शादी हुई, दुल्हा-दुल्हन ने अपने-अपने पिट्ठू उठाए और पदयात्रा पर चल दिए ….हां तो साथियों, मैं दुलारी देवी के बारे में आपको कुछ बता रहा था, जिनका 14 जून 2022 निधन हुआ। उनका जन्म तो कोट ब्लॉक, सितोंस्युं पट्टी के थमाणा गांव पौड़ी गढ़वाल में 1944 में हुआ था लेकिन पढ़ाई लिखाई टिहरी की अठुर पट्टी के सुनारगांव और टिहरी शहर में। 14 15 वर्ष की उम्र में ही वह अपने ननिहाल सुनारगांव आ गई थी। उनकी मां अठुर के प्रतिष्ठित असवाल परिवार से थी। उनके मामा का नाम चिरंजीलाल असवाल था। असवाल जी प्रताप इंटर कॉलेज और बीटीसी काॅलेज के भी प्रधानाचार्य रहे। सुंदर लाल बहुगुणा के भी वे शिक्षक रहे।
गांव के निकट ही टिहरी शहर में राजमाता कॉलेज के छात्रावास में रहने के दौरान उन्होंने इंटरमीडिएट पास किया और फिर टिहरी से ही बीटीसी कोर्स भी किया। 1970 में राजकीय सेवा में आ गई और शिक्षिका बनी। इसके बाद भी उनका जीवन बेहद सादगी भरा रहा।
1977 में उनका विवाह तब पूरे उत्तराखंड में चर्चा का विषय बना था। अखबारों में खबरें बनी थी। 1974 के प्रथम अस्कोट – आराकोट पदयात्रा के युवा पदयात्री प्रताप शिखर से उनका विवाह तय हुआ। प्रताप शिखर छात्र युवा संघर्ष वाहिनी में सक्रिय रहे। तब उनके साथी एक पदयात्रा पर थे। 20 अक्टूबर को पदयात्रा करते हुए ही साथियों के साथ प्रताप शिखर टिहरी के सुनारगांव पहुंचे। अगले दिन दुलारी देवी से उनका विवाह तय हुआ।
विवाह के लिए न कोई तैयारियां न कोई सजावट। न बैंड – बाजा ना ही बारात। ना नए कपड़े न कोई खरीदारी। सामान्य जीवन में जिन कपड़ों में प्रताप शिखर जी और दुलारी बहन रहती आई थी, वही कपड़े पहने हुए थे। सुबह निकट की शिल्पकार बस्ती में साफ सफाई की और बालिकाओं के साथ कुछ कार्यक्रम हुए। फेरे ज़रूर हुए लेकिन फेरों से पहले प्रभात फेरी पर गए। विवाह के मौके पर साथ-साथ समाज सेवा का संकल्प लिया।
पदयात्रा रुकी नहीं। अमरूद के दो पौधे रोपे। विवाह के बाद विदाई हुई तो दूल्हा – दुल्हन दोनों ने अपने अपने पिट्ठू उठाए और और पैदल ही अठुर से रानीचौरी की ओर चल दिए। जहां पहले से बैठक तय थी। टिहरी से चंबा, राणीचौरी और फिर कुंजनी पट्टी के कोटी गांव तक। सड़क पर बसें उपलब्ध थी लेकिन विवाह के बावजूद पदयात्रा कार्यक्रम में कोई बदलाव नहीं हुआ।
दूल्हा – दुल्हन दोनों ही प्रतिष्ठित और संपन्न घरों के थे लेकिन पैदल ही करीब 25 किलोमीटर दूर घर पहुंचे। प्रताप शिखर पूरी तरह से सर्वोदय आंदोलन में समर्पित सिपाही थे। बड़ी खामोशी के साथ दुलारी बहन उनके इस अभियान में शामिल हो गई। सरकारी सेवा के अलावा रविवार सहित तमाम छुट्टी के दिन समाज सेवा के कार्यक्रमों में शामिल रहे। जीविकोपार्जन के लिए सरकारी सेवा को अपनाया और समाज सेवा को जीवन का लक्ष्य बनाया। नशा विरोधी और चिपको आंदोलन में शामिल रही।
1983 में जब जन जागृति संस्थान की स्थापना हुई तब उसकी नींव रखने में बड़ी खामोशी के साथ उनका योगदान भी शामिल रहा। सरकारी सेवा में होने के कारण वह बड़े मंचों पर तो नहीं दिखाई दी लेकिन ग्रासरूट पर उनका काम दिन-रात चलता रहा। प्रताप शिखर जी की तरह ही उन्होंने कभी अपने नाम के साथ जाति संज्ञा नहीं लगाई।
1992- 93 में जब लोक सेवक मंडल का कैंप हैदराबाद में हुआ तब पर्वतीय क्षेत्र से प्रतिनिधि बनकर गई। शांति सैनिक के रूप में उन्होंने पद यात्राएं की और आज भी हिमालय सेवा संघ की उपाध्यक्ष के रूप में काम कर रही थी। कुछ साल पहले प्रताप शिखर जी का निधन हुआ, तब उन पर अतिरिक्त जिम्मेदारी आ गई थी। इस पर भी समाज सेवा का संकल्प कभी डिगा नहीं।
उन्होंने सुंदरलाल बहुगुणा, धूम सिंह नेगी, घनश्याम सैलानी, कुंवर प्रसून, विजय जड़धारी, विमला बहुगुणा, सुदेशा बहन जैसे समर्पित सर्वोदय सैनिकों को संघर्ष के हर मोर्चे और मौके पर साथ दिया। उस पीढ़ी के कम ही लोग अब रह गए हैं, जो एक बार संकल्प लेकर कभी डिगे नहीं। हालांकि परिवारों को इस कारण अभाव भी झेलना पड़ा है।
उनके बच्चे अरण्य रंजन, डॉ सृजना और समीरा, बहू कविता उनके मिशन को आगे बढ़ाएंगे ऐसी अपेक्षा हम कर सकते हैं ……….
(यह फोटो उनकी शादी के अवसर की है)