केशव भट्ट
बागेश्वर में 1976 में खड़िया माइनिंग की जब शुरुआत हुई तब खनन का काम नेपाली मजदूरों द्वारा होता था. खनन के पट्टे की स्वीकृति मिलने के बाद खान वाली जगह का सीमांकन पिलरबंदी की जाती थी. सीमांकन में राजस्व भूमि, वन भूमि, पनघट, गौचर, गधेरा, नौले, धारों के साथ ही पैदल रास्तों का विशेष ध्यान रखा जाता था कि उन्हें किसी भी तरह का कोई नुकसान ना पहुंचे. बाकायदा बीच-बीच में प्रशासन भी नजर मार लेता था.
1990 के बाद खड़िया खनन में फायदे का पता चलते ही खड़िया निकालने में परेशानी होने पर गुपचुप ब्लास्टिंग का सहारा लिया जाने लगा. उसी दौर में एक कद्दावर खनन माफिया जेसीबी ले आया तो धीरे-धीरे जेसीबी की बाढ़ सी आ गई. शह मिलने के बाद एक्सकेवेटर उर्फ पोकलेन मशीने भी आ गई और सब मशीनों ने पहाड़ों को बेतहाशा चीरना शुरू कर दिया. खड़िया खान की ऐसी लॉबी बनते चली गई कि अब ये लॉबी राज्य से लेकर केन्द्र तक की सरकारों तक को प्रभावित करने में पीछे नही रहती हैं. खुद कई कद्दावर खनन माफिया सरकारों में ही शामिल होते चले गए. खड़िया खनन के पट्टों के लिए जो आवेदन किए जाते हैं उनमें आवेदनकर्ताओं द्वारा वादों की ऐसी झड़ी लगाई जाती है जैसे उनका यह काम बहुत बड़ा सामाजिक कार्य हो और इससे कई गरीब परिवारों के पेट पलने के साथ ही सरकार को भी एक बड़ी रकम राजस्व के रूप में मिलेगी.
कांडा में खड़िया खान में पट्टे के लिए एक आवेदक के मजमून की बानगी कुछ यूं है -‘खनन कार्य हस्तचालन विधि द्वारा खुली खदान से किया जायेगा. ऊपरी सतह की मिट्टी एवं अवमृदा को खरोंचकर कार्य क्षेत्र के समीप एकत्रित किया जायेगा. ऊपरी भार तथा आन्तरिक भार को हटाने के लिए एक एक्सकेवेटर उर्फ पोकलेन मशीन का उपयोग किया जायेगा परन्तु इसका उपयोग कभी-कभार महीने में चार से पांच दिन के लिए किया जायेगा. खड़िया के साथ मिश्रित मैग्नेसाइट पत्थरों को छेनी एवं हथौडे की सहायता से तोडकर खान के छोर पर संग्रहित किया जायेगा. खड़िया पत्थर का खुदान सब्बल और फावडे की मदद से अन्यत्र एकत्रित कर दिया जायेगा. प्राप्त खनिज का कटान व छटान हस्तचालित विधि द्वारा किया जायेगा. इसके अतिरिक्त प्रथम पांच वर्षों के दौरान कोई लाभ नहीं लिया जाएगा. विभिन्न वर्गों का खड़िया पत्थर 50 किलो के प्लास्टिक थैलों में भर कर खच्चरों द्वारा पीडब्लूडी सड़क के किनारे लाया जाएगा और वहां से श्रमिकों द्वारा ट्रक में लादकर हल्द्वानी लाया जाएगा. किसी भी प्रकार के ड्रिलिंग एवं विस्फोटन कार्य की आवश्यकता नहीं है. खनन कार्य में प्रयोग किये जाने वाले यन्त्र जैसे गैंती, फावडा, बेल्चा, हथौड़ा इत्यादि का प्रयोग किया जायेगा. खदान केवल दिन की पाली में ही चलायी जाएगी और एक वर्ष के औसत कार्य दिवस 240 होंगे. प्रथम पांच वर्षों के कार्य के दौरान लगभग 141290 मिट्रिक टन खड़िया पत्थर का खनन किया जायेगा.’
जबकि हाल ये हैं कि कभी रीमा क्षेत्र को रंगीली नाकूरी के नाम से जाना जाता था. बकायदा इस पर खूब पहाड़ी गाने भी बने थे. अब खड़िया खनन के कारण लोगों की कृषि भूमि बर्बाद हो गई है. खदानों की सीमाओं पर हरित पट्टी और रिटेनिंग वाॅल, खनन योजना में तो प्रस्तावित है पर धरातल पर गायब रहती है. अधिकतर खड़िया खानों की पिलरबंदी-सीमांकन नहीं के बराबर होने वाले हुए. सुरक्षा प्रोटोकॉल जैसे बफर जोन, ढलान पर्यवेक्षण और सुरक्षात्मक ढांचे भी मात्र कागजों तक ही सीमट जाते हैं. जल निकास और जलप्रबंधन की बात करना तो बेमानी हुई. खनन की वजह से पुराने मकानों के साथ ही नए मकानों में भी दरारें आ गई हैं. कई जगहों पर तो लोगों से जल, जंगल का अधिकार भी छिन गया है. जिन लोगों को खड़िया से कोई लेना-देना नहीं है। उनके लिए अपने खेतों, जंगल, चारागाहों, नौले-धारों तक पहुंचना ही मुश्किल हो गया है. अधिकतर पुराने रास्ते खत्म हो गए हैं. जंगलों में पेड़ों के अंधाधुंध कटान पर सबकी आंखें बंद रहती हैं. पर्यावरणीय और वैधानिक नियम-कायदे फाइलों में दबे रह जाने वाले हुए. खड़िया खानों में श्रम कानूनों का कोई काम नही रहता. नेपालियों के छोटे बच्चे भी खानों में अपने स्तर के काम में जुटे रहने वाले हुए. पीड़ित ग्रामीणों की आवाजें तो नक्कारखाने में तूती की तरह ही रह जाने वाली हुई.
उच्च न्यायालय की रोक से पहले रंगीली नाकुरी क्षेत्र के चैंरा, दोफाड़, चिढंग, खोलिया, रीमा समेत कई गांवों में खड़िया की खानों से एकाएक धन्नासेठ बन बैठे तथाकथित सफेदपोशों की खानों में दर्जनों पोकलेन, जेसीबी, ट्रैक्टर ट्राली समेत सैकड़ों मजदूर दिन-रात पहाड़ को नोचने में लगे रहते थे. इस बात से ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि खोलिया गांव में एक खड़िया खान में ही तीन पोकलेन, चार जेसीबी, चार ट्रैक्टर ट्राली और लगभग दो सौ नेपाली मजदूर खड़िया खोदने में जुटे रहते थे तो अन्य खानों का क्या हाल होता होगा..?? उच्च न्यायालय के रोक से पहले हर रोज यहां से लगभग सात से बारह ट्रक खड़िया लाद हल्द्वानी को जाते थे. जिले के पूरे खड़िया खानों की बात करें तो हर रोज खड़िया से लदे लगभग 250 ट्रक हल्द्वानी को जाते हैं.
खनन पर रोक के बाद अब 14 फरवरी को उच्च न्यायालय में प्रशासन ने अपना पक्ष रखना है. खनन जल्द खुले इसके लिए खनन कारोबारी भी जुटे पड़े हैं.
खड़िया खानों की तरह कुछ ऐसा ही खेल नदियों में खनन का चल रहा है. कुमाऊं मंडल में वर्षों से गौला, कोसी, दाबका, नंधौर, शारदा नदी में बड़े पैमाने पर खनन का कारोबार होता आ रहा है. एक अनुमान के मुताबिक इन नदियों से 2 हजार 342 हेक्टेयर क्षेत्रफल में खनन का कारोबार किया जाता है. जिससे सरकार को लगभग 200 करोड़ के प्रत्यक्ष राजस्व की प्राप्ति होती है. इसके साथ ही उप खनिज के नाम पर हर साल 15 हजार करोड़ का कारोबार होता है. राजस्व के नाम पर इन नदियों का सीना चीरकर नदियों के साथ ही पहाड़ को खोखला किया जा रहा है. बागेश्वर जिले की बात करें तो पहले यहां सरयू नदी में मेनुअल खनन की अनुमति दी गई. लेकिन मेनुअल खनन में ज्यादा फायदा नहीं होने पर पिछले दरवाजे से मशीनों को गुपचुप इजाजत मिल गई. खनन का खून मुंह पर लगने पर सरयू नदी के साथ ही गोमती नदी को भी बाढ़ के वक्त नदियों के उफान से जनता को नुकसान का बहाना दे खनन कारोबारियों को नदियों को छलनी करने की खुली छूट मिल जाती है.
इधर पर्यावरणविद्व भी कहते-कहते थक गए हैं कि, पहाड़ों का जिस तरह से दोहन किया जा रहा है उससे हिमालय क्षेत्रों में लगातार भूस्खलन की घटनाएं हो रही हैं. पहाड़ों का लगातार किए जा रहे दोहन से पहाड़ों पर पानी के स्रोत ही बंद हो गए हैं. नौले-धारे सूख गए हैं. दोहन के चलते पहाड़ों पर पानी का संकट खड़ा हो रहा है.
बहरहाल..! बागेश्वर जिले के नवांगत जिलाधिकारी अशीष भटगांई पुराने जिलाधिकारियों की कारगुजारियों को ईमानदारी से दुरूस्त करने में जुटे पड़े हैं. बकायदा इसके लिए वो खनन क्षेत्रों का दौरा कर खुद ही हालातों को जान समझ जमीनी सच्चाई से रूबरू हो उसे ठीक करने में लगे हैं. लेकिन..! ये बड़ा सवाल है कि, क्या खनन के खूनी कारोबार में अपने हाथ डुबा चुके खनन कारोबारियों के साथ ही सरकारी महकमों से जुड़े कतिपय घाघ बागड़बिल्ले कभी अपने नवांगत ईमानदार अफसर के प्रति वफादार हो उन्हें सच्चाई के दर्शन करा उच्च न्यायालय में सही रिपोर्ट देने के लिए रिपोर्ट बनाने में मदद करेंगे..?? वो सब तो छुपाने में माहिर होने वाले हुए. चाहे आरटीआई की सूचना हो या खाया हुआ माल. उन्हें सब हजम हो जाने वाला हुआ.
बहरहाल..! खनन बंद होने से नेपाली मजदूर अपने परिवार के साथ हताश निराश से वापस अपने घरों को लौटने लगे हैं. अपने ध्वस्त हो चुके सपनों के साथ खाली हाथ लौट रहे कई परिवार तो बस स्टेशन में ठंडी रातें गुजारने को मजबूर हैं. ठेकेदार से उन्हें वापस लौटने तक के जो पैसे मिले होते हैं उनमें से कई परिवारों के पुरुष ठंड के चलते शराब गटक जा रहे हैं और उसके बाद फिर उनके परिवार की महिलाओं को महिषासुर मर्दनी बनने में देर नही लगती है. अगली सुबह रोते हुए वो ठेकेदार को अपनी व्यथा सुना टिकट के लिए पैसा भेजने की मनुहार में जुट जाती हैं. उनकी मजबूरी समझ ठेकेदार भी उन्हें कुछ न कुछ फिर से दे ही देता है तो वो मायूस हो बस से पिथौरागढ़ की राह पकड़ लेते हैं. खनन क्षेत्रों में राशन वाले, ट्रक वाले, गांवों के मुंशी, राजस्व चैकियां.. सभी गहरे सन्नाटे में डूबे हुए हैं.
फिलहाल उत्तरायणी भी सकुशल संपन्न हो गई है और नगरपालिका चुनावों का कानफोडू शोर चालू आहे..!!