हस्लाम हुसैन
जिन्होंने कई बार देश का प्रमुख बनने का आफर ठुकरा दिया था, लेकिन अपने मुल्क की मौजूदा हालात देखकर इस बार अपने आपको नए चुनाव तक प्रधानमंत्री बनने से नहीं रोक सके।
यह बात और है कि कुछ साल पहले उन्होंने एक राजनीतिक पार्टी बनाकर बंगलादेश के निज़ाम को बदलने की कोशिश की थी, इसलिए शेख हसीना उनसे डरती थीं, उन्होंने प्रोफेसर यूनूस को बर्बाद और बदनाम करने के सभी हथकंडे अपनाए। उन्हें ग्रामीण बैंक और दूसरी से संस्थाओं से हटाया जो बंगला देश के बेसिक इंफ्रास्ट्रक्चर में मदद करती थीं। आखिर में शेख हसीना ने प्रोफेसर को सूदखोर कहकर बदनाम करने की भरपूर कोशिश की, जैसा कि कट्टरपंथी करते थे।
जिस ग्रामीण बैंक को चलाने पर प्रोफेसर यूनूस को बदनाम किया गया वही तर्क मान लिया जाए जो जब ग्रामीण बैंक पर सरकारी कब्जा होने के बाद वही काम होता रहा है तब कौन सूदखोर हुआ ? हसीना बेगम?
हमारे दोस्त सौमित्र राय ने बंगलादेश के प्रोफेसर यूनूस की कहानी को एक डेवलपिंग कंट्री के लिए सीख और लर्निंग तरह लिया है। उनकी पोस्ट का हिस्सा नीचे दे रहा हूं।
“यह समझना ज़रूरी है कि प्रोफेसर यूनूस के माडल में कोई शोषक नहीं है जो ब्याज से फले-फूले। क्योंकि बंगलादेश ग्रामीण बैंक के मालिक गरीब समाज है, जिसने उसने चवन्नी डालकर बैंक को बनाया और जो ग़रीबों के साथ साथ बड़ी संस्थाओं से लेकर सरकारों को भी कर्ज देता था।
“आपको इस बात पर हैरत होगी जब हिन्दुस्तान में मोबाइल बड़े शहरो में भी पूरी तरह नहीं आया था, तब बंगलादेश में ग्रामीण बैंक ने गांवों में सैटेलाइट फोन लगा दिए थे।“
तो एक सूदखोर बंगलादेश का प्रमुख बन गया, जिसने अपनी विलक्षण प्रतिभा के बल पर अपने मुल्क सहित कई मुल्को की गरीबी को दूर करने में मदद की और उनका जीवन स्तर बहुत ऊपर उठाया।
कर्ज को लोग एक बवाल, बोझ और लानत समझते हैं…..और हो भी क्यों नहीं, क्योंकि कर्ज के साथ ब्याज की लानत जुड़ी है, जिसकी दर हैरतअंगेज होती थी और बढ़ती थी, और अभी भी है। यह ब्याज दर गरीब के लिए अलग (बहुत ज़्यादा) और अमीर के लिए अलग (बहुत कम) होती है। इसीलिए कुरान में ब्याज को हराम भी कहा गया है। अभी भी हिन्दुस्तान में गरीब एक महीने में 100 रुपए का ब्याज 20 रुपए तक देते हैं। बड़े शहरों में एक दिन का कर्ज भी 10 फीसदी ब्याज पर मिलता है।
कारोबार और खेती की ज़रूरतों में प्राइवेट इदारों/निजी लैण्डर्स का महीने का ब्याज 4-5 प्रतिशत होता है, जो बैंकों के अधिकतम 18 प्रतिशत से कहीं ज़्यादा, 60 प्रतिशत तक होता है। वो भी फिक्स ना कि बैंकों की घटती दर से।
यही सबसे बड़ी समस्या है जिससे हजारों किसान, कारोबारी और आम आदमी बर्बाद होकर खुदकुशी कर लेते हैं।
इसके बरअ़क़्स सरमायदारों, उद्योगपतियों को पच्चीस पैसा महीने का ब्याज पड़ता है। टाटा ने पश्चिमी बंगाल से नैनो का प्लांट गुजरात शिफ्ट किया तो गुजरात की मोदी सरकार ने हजारों करोड़ का कर्जा 4 प्रतिशत ब्याज पर दिया था। मुफ्त में ज़मीन अलग से, (नैनो बनी लेकिन भगवा कलर की पहली नैनो लांच करने पर भी नहीं चली। पैसा किसका डूबा यह समझ लीजिए।)
सामान्यतया बैंकों का ब्याज, अगर उसे सही ढंग से लौटाया जाए तो 12-15 फीसदी सालाना पड़ता है। जबकि गरीब को 60 से लेकर 240 प्रतिशत तक और कहीं-कहीं और कभी-कभी इससे भी कई गुना ज़्यादा पड़ता है।
इस बारे में हमारे दोस्त बलराज कटारिया जी की नीचे दी हुई पोस्ट का एक हिस्सा मुलाहिजा करें, जिसमें 300 साल पहले ब्याज के धंधे के हालात बयान किए हैं। इस नज़रिए से देखें कि 1400 साल पहले अरब में कितना और कैसा शोषणकारी ब्याज और सिस्टम होता होगा ?
“चूंकि इस्लाम के शुरुआती दौर में और उससे पहले रोमनो सासानियों के दौर में कहीं पर भी क़र्ज़ के लिए कोई रेगूलेटरी बाडी नहीं थी और ना हो सकती थी। जिसकी वजह से गरीबों का जबरदस्त एहतेसाल/शोषण होता था, और तमाम लिक्विडिटी सूदखोरों के पास जमा हो जाती थी।(ख़ासकर यहूदी सरमायादारों के पास, जिसका इस्तेमाल वे तब से लेकर आज तक गरीबों को दबाने के लिए कर रहे हैं।)
इसलिए इस्लाम में पुराने सिस्टम को रद्द करके अल्टरनेटिव फाइनेंस सिस्टम बनाया था, जिसको आज और ज्यादा समझने की ज़रूरत है। प्रोफेसर मुहम्मद यूनूस ने मौजूदा फाइनेंशियल मकड़जाल में से जो ग़रीबों के बिल्कुल मुफ़ीद नहीं था, माइक्रोफाइनेंस और माइक्रो क्रेडिट का एक ऐसा सिस्टम बनाया जिसमें कोई शोषणकारी नहीं था। उस सिस्टम के मालिक ही सिस्टम चलाने वाले थे। चूंकि इस्लाम के मुजद्दिदों के साथ साथ गांधीवादियों और समाजवादियों, कम्युनिस्टों, सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इसको समझने की कोशिश नहीं की, इसलिए कम से कम भारत में यह बहुत परिवर्तनकारी नहीं बना। हां अफसोस अब इसमें बुराईयां और शोषण और शामिल हो गया है।
लेकिन प्रोफेसर मुहम्मद यूनूस का माडल बिल्कुल अलग था, जिसको समझने के लिए सलाहियत चाहिए, जो कमसे कम समाज में नहीं दिखाई देती। मैं समाज और सभी वर्गों की बात कर रहा, सिर्फ मुसलमानों की नहीं।
मैंने जब प्रोफेसर मुहम्मद यूनूस के कांसेप्ट को जानकर 1990 में माइक्रोफाइनेंस में काम करना शुरू किया तो मुझे भी प्रोफेसर मुहम्मद यूनूस की तरह बुरा-बुरा सुनने को मिला। एक बार तो एक मौलवी ने मेरे खि़लाफ़ एक बड़ी महफ़िल में एक घंटे तक धुंआधार तक़रीर करके मुझे इस्लाम से ख़ारिज कर दिया था। ऐसा नहीं कि बाकी सिस्टम भी माइक्रोफाइनेंस के लिए मुफ़ीद था। हमारा बैंकिंग सिस्टम अभी भी गरीबों के लिए नहीं है, मैं इसे बेहतर ढंग से जानता हूं। मैंने तीस साल बैंकों और सरकारों को समझाने और एडवोकेसी में लगाए हैं।
यह समझने की ज़रूरत है कि क़र्ज़ क़र्ज़ नहीं होता। वो अर्थव्यवस्था के लिए धन की तरलता और उपलब्धता होता है, जिससे पूरा समाज खुशहाल हो सके। इसलिए कल्याणकारी राज्य सभी स्तरों पर धन की तरलता को बनाए रखने की पालिसी बनाते हैं। हिन्दुस्तान में मनरेगा और दूसरी रोजगार योजना और खेती के लिए 4 प्रतिशत या 0 प्रतिशत ब्याज इसी पालिसी का हिस्सा है।
इस्लाम ने भी यही विचार दिया था, लेकिन इस्लामी विद्वानों ने कुरान के ब्याज के हुक्म पर तो जोर दिया, लेकिन इस्लाम के इस कांसेप्ट कि दौलत/धन या पैसा समाज में या किसी एक के पास या अब सरकार के पास इकट्ठी जमा नहीं रहनी चाहिए, वो गर्दिश में या लिक्विड रहनी चाहिए, और उसके लिए इस्लाम में लेयर और एक्शन भी तय कर दिए थे। जिसे आज के दौर में प्रोडक्ट्स कहा जाता है। इस पर ना तो मौजूदा पसमंजर में ध्यान दिया और न समाज ने इस पर काम किया। छुटपुट जो काम हुए या हो रहे हैं वो लोकल लेबल तो चल जाते जबकि नियत हो, लेकिन वो आगे नहीं बढ़ पाते हैं।
इस्लाम ने जो अल्टरनेटिव फाइनेंस सिस्टम बनाया उसमें सप्लाई साईड भी थी, और अल्टीमेटम बैनैफिशीयरी साईड भी थी। जिसमें फ़ितरा, खै़रात, ज़कात से लेकर कर्जे हसना और रिस्क बेस्ड भागीदारी वगैरह शामिल हैं, ध्यान रहे यह सब राइट बेस थे ना कि चैरिटी बेस, आप के पास दौलत है, पैसा है तो आप इसके हकदारों को बिना एहसास दिलाए उन तक ख़ुद पहुंचाने का इंतेज़ाम करें ना कि मुस्तहक़ आपके पास फरियाद लेकर आए। मुस्लिम विद्वान इसमें चूक गए जिन्होंने इसमें इनीशिएटिव किए उन पर किसी ना किसी तरह फ़तवे बाजी की गई जबकि कोई भी इदारा एडमिनिस्ट्रेटिव ख़र्च निकाले बिना चल ही नहीं सकता।
प्रोफेसर मुहम्मद यूनूस ने इसी मकड़जाल में से गरीबों के लिए माइक्रो क्रेडिट का सिस्टम बनाया और शानदार ढंग से चलाया।
प्रोफेसर मुहम्मद यूनूस के काम के बारे में जानकर मैंने माइक्रोफाइनेंस सैक्टर में 25 साल से ज़्यादा काम किया है। इन सालों में अलग अलग मामलों की स्टडी भी की उनपर प्रैक्टिकल भी किया और यूनिवर्सिटीज में बच्चों को पढ़ाया भी है, इस्लामिक माइक्रोफाइनेंस/ माइक्रोफाइनेंस पर बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी सहित कई संस्थानों में लैक्चर भी दिए ।
करीब 15 साल पहले जब इस्लामिक माइक्रोफाइनेंस पर काम करने की बात की तो पता चला कि इंडिया में रेग्युलेटेरी फ्रेमवर्क नहीं होने से इस पर काम नहीं किया जा सकता। बहुत छोटे और लोकल लेवल पर जो काम किया जा रहा है वो या तो कानून से बचकर किया जा रहा है, या फिर चिटफंड और कोआपरेटिव को में जैसे तैसे एडजस्ट किया जा रहा है। जिसमें न तो ढंग की प्रोसेस है और न ट्रांसपेरेंसी और रिस्क मिटीगेशन। इसीलिए मुस्लिम फंड जैसे इदारों में बड़े बड़े घपले और काण्ड हुए हैं।
टिप्पणी – प्रोफेसर मुहम्मद यूनूस की अमेरीका से निकटता के बावजूद वो दक्षिण एशिया और ग़रीब मुल्कों के लिए बेहद ज़रूरी अर्थशास्त्री हैं जिनका माडल कम्युनिज्म और गांधीवादी विचारधारा को समाहित करके समाज को रास्ता दिखाता है जिसपर दोनों विचारधाराओं ने काम नहीं किया।
प्रोफेसर यूनूस सन् 2009 में माइक्रोफाइनेंस से सम्बंधित एक कार्यक्रम में अशोक होटल दिल्ली में आए थे तो मेरी उनसे बातचीत हुई थी। मेरी बेटी हनी इस्लाम से भी उन्होंने बात की थी। शान्ति का नोबेल पुरस्कार मिलने से पहले 2005 में उन्हें एक बड़े सरकारी बैंक ने बुलाया था, जिनकी हाई टी पार्टी में मैं भी निमंत्रित था। जिसमें मैं जा नहीं सका था, लेकिन मेरी दो बार उनसे माइक्रोफाइनेंस पर बातचीत हुई थी। वो भारत में माइक्रोफाइनेंस सैक्टर में और बदलाव चाहते थे। जिसके लिए मैं और मुझ जैसे बहुत लोग लगे हुए थे। तब यूपीए की सरकार थी सरकारी इनीशिएटिव भी हुए, लेकिन में राज्यों की जो सरकारें विपक्षी पार्टियों की थी वो यूपीए की योजनाओं को पलीता लगा रही थीं, बैंक का पूरा सिस्टम टस से मस नहीं हो रहा था। वो पूरी तरह कर्मचारियों की मनमर्जी और अफसरों के सरमायदारों की खिदमत से बर्बाद हो रहा था। जो इस दौर में अमीरों के हक में जाकर व्यापक समाज और अर्थव्यवस्था के लिए बेकार बन चुका है।
मैंने उत्तराखंड के पहले मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी जी और भगतसिंह कोश्यारी जी से लेकर नारायण दत्त तिवारी जी और जनरल खण्डूरी तक सबको इस लम्बे लम्बे लैटर लिखकर इस विषय में बताया था, लेकिन हुआ कुछ नहीं। ऊपरी अफसरों की जमात से लेकर निचले स्तर पर सब अपने अपने रंग में रंगे हुए थे। हालांकि सरकारी अमला इस विषय में अध्ययन करने के नाम पर बंगलादेश और दक्षिण भारत घूम कर लाखों रूपया खर्च कर आया था लेकिन काम धेले का भी नहीं किया।
इस मामले में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी जी के साथ बड़ा जबरदस्त किस्सा हुआ था। उनके दौर में जब 2006 में प्रोफेसर यूनूस को ग़रीबी उन्मूलन से समाज में शांति कायम करने पर नोबल पुरस्कार मिला (जिसकी बदौलत आज बंगलादेश का हैप्पीनेस और ह्यूमन डेवलपमेंट इंडेक्स भारत सहित कई एशियन मुल्कों से ऊपर है) तो तिवारी जी हैरत में पड़ गए, उन्होंने अपने अफसरों से प्रोफेसर यूनूस के कार्य और माडल के बारे में पूछा, क्योंकि वो खुद को विकास पुरुष कहलाना पसंद करते थे, लेकिन क्रेडिट प्रोफेसर मुहम्मद यूनूस साहब ले गए। सवाल यह था उनकी नजरों से यह सैक्टर क्यों नहीं आया। क्योंकि वो बड़े और मीडियम उद्योगों को विकास के लिए अहम समझते थे, जिसके लिए उन्होंने उत्तराखंड की तराई में इंडस्ट्रियल एरिया सिडकुल आरम्भ किए, जबकि उत्तराखंड में कृषि, बागबानी, मछली पालन, पशुपालन आदि, लघु/हस्तशिल्प, खादी ग्रामोद्योग और लघु व्यवसाय में माइक्रोफाइनेंस से प्रगति की बहुत संभावनाएं थीं। और जिसके लिए हम जैसे एक्टीविस्ट काम कर रहे थे और आगे काम करना चाहते थे। प्रोफेसर यूनूस को नोबेल पुरस्कार मिलने के बाद तिवारी जी ने कहा कि उत्तराखंड में भी प्रोफेसर यूनूस का माडल शुरू करने के लिए एक संस्था बनाई जाएगी, जिसके लिए उन्होंने अपने कार्यकाल के आखिरी दिनों में पांच करोड़ रुपए सैंक्शन भी कर दिया। लेकिन वो संस्था बनी अगले दो तीन महीने में हुए चुनाव के बाद। अगली सरकार में माननीय खण्डूरी की सरकार में जो सरकारी संस्था बनाई गई वो कुछ ही दिन चली। ऐसा क्यों हुआ इसका स्पष्टीकरण देने की भी ज़रूरत नहीं है। पिछले दस सालों में तो इस सैक्टर का एक तरफ भट्टा बैठ गया तो दूसरी तरफ यूपीए के टाइम की बनी पालिसी के बल पर “बंधन“ जैसी माइक्रोफाइनेंस संस्थाएं बैंक में तब्दील होकर बड़े लोगों की सेवा में लग गई हैं, इस फिर कभी बात होगी।
जबकि 1983 में प्रोफेसर मुहम्मद यूनूस के द्वारा बंगलादेश में शुरू किए गए माइक्रोफाइनेंस कार्यक्रम की सफलता के बाद बहुत से माडल बने। प्रोफेसर यूनूस ने इसी माडल से बनाए गए बंगलादेश ग्रामीण बैंक से अकेले बंगलादेश ही नहीं कई मुल्कों की तकदीर बदल दी। बंगलादेश ग्रामीण बैंक ने कई गरीब मुल्कों को भी क़र्ज़ दिया था। आज बंगलादेश की इकोनॉमी कई मुल्कों से जो बेहतर हुई है उसकी बुनियाद में माइक्रोफाइनेंस का बहुत बड़ा हाथ है। चूंकि ये माडल बैंकिंग ब्याज या एडमिनिस्ट्रेशन कास्ट बेस्ड (आधारित) थे, इसलिए बंगलादेश पाकिस्तान सहित कई इस्लामिक मुल्कों में बहुत से एक्टीविस्टों ने इस्लामिक माडल बनाए जो चल रहे हैं। इस बारे में मैं सोशल मीडिया में बराबर लिखता रहा हूं पिछले साल जो लेख लिखा था वो कई अखबारों और मीडिया में छपा/जारी हुआ था उसको फिर कभी शेयर करूंगा।
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बलराज कटारिया जी की फेसबुक पोस्ट से,
हज़ार साल से भी ज़्यादा अर्से तक (दसवीं सदी से लेकर बीसवीं सदी ईस्वी तक) भारत के आम मेहनतकशों और उत्पादक वर्ग को सिस्टम बनाकर लूटा गया था। भारती समाज को कई जातियों में तोड़ा गया था, और इन जातियों के लिए मैं बता दूं कि पैसा उधार लेने पर ब्याज की दर भी अलग अलग वर्ण/जाति के हिसाब से अलग हुआ करती थी !!
’द वंडर दैट वाज़ इंडिया’ किताब में बताया गया है कि इंडिया में सालाना बारह, चौबीस और साठ फ़ीसद ब्याज का रिवाज़ हज़ार साल से ऊपर तक के वक़्त में रहा है। बारह पर्सैंट या एक रुपया महीना ब्याज उच्च वर्णों के लिए था, चौबीस पर्सेंट (दो रूपया महीना) वैश्य वर्ग का रेट था, और इस रेट को हमारे यहाँ आज भी साहूकारी ब्याज कहते हैं, तथा संपूर्ण मंडी आढ़त सिस्टम पर यह रेट आज भी चलन में है। हमारा परिवार ख़ुद शुरू से ही इसी रेट पर आढ़तिए से ब्याज पर पैसा लेता आया है।
अब मैं बता दूं कि इंडिया की गोबरपट्टी में बहुत सी जातियों को अपना वर्ण या समाज में लेवल पता नहीं है, और वे अपने आपको इस या उस वर्ण से बताते रहते हैं। जितने भी किसान, दूधेरे या पशुपालक, मिस्त्री, दस्तकार, हुनरपेशा वग़ैरह जो असल उत्पादक वर्ग है, और जिनके पास 27 मई सन् 1710 (सरहंद इन्क़लाब बाब्बा बंदासिंह बहादर, बाब्बा बाज़सिंह)से पहले कोई प्रॉपर्टी नहीं थी, उन सब पर यह साठ फ़ीसद (पांच रुपया महीना) ब्याज लगता था, और इस सारे ग्रुप को शूदर कहा जाता है, तथा ब्याज की यह रेट शूदर रेट है।
अविभाजित पंजाब में सन् 1943 से पहले सर छोटूराम की पार्टी ने इस तरह के पांच पर्सेंट फ़ी महीना ब्याज रेट के खि़लाफ़ लाहौर एसेम्बली में एक्रॉस द बोर्ड क़ानून बनाया था, तथा जिस भी देनदार ने उधार लिए गए पैसों के डबल के बराबर लौटा दिए हैं, उस तरह के सभी क़र्ज़ को नल एंड वॉइड डिक्लेयर कर दिया था, तथा इस तरह के क़र्ज़ का नाम लेकर किसानों से छीनी गई लाखों हेक्टेयर (साढे आठ लाख हेक्टेयर के आसपास) ज़मीन किसानों के नाम पर वापिस रजिस्टर कर दी गई थी। मज़ेदार बात यह है कि सर छोटूराम के ऐसे प्रावधानों के लाने के खि़लाफ़ तब के पंजाब में “हिंदू धर्म ख़तरे में“ वाली मुहीम चलाई गई थी……।
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सौमित्र राय जी की फेसबुक पोस्ट से
इबरत की कहानी मोहम्मद यूनुस की है। एक नोबेल विजेता अर्थशास्त्री को कल घोषित रूप से बांग्लादेश की अंतरिम सरकार का मुखिया बना दिया गया।
शेख हसीना सरकार ने यूनुस को 2011 में ग्रामीण बैंक के मुखिया पद से हटा दिया।
पीएम और उसके मंत्रियों ने यूनुस को दर्जनों बार अपमानित किया, भ्रष्टाचार के झूठे आरोप लगाए। ईडी टाइप के अफसर लगाए और 6 महीने जेल में रखा।
अल जजीरा के मेरे पत्रकार मित्र डेविड बर्गमैन लिखते हैं कि हसीना सरकार के आतंक तले कोई विरोध करने को राजी नहीं था। लेकिन यूनुस ने अपनी गरिमा नहीं गिराई। नहीं बिके। नहीं झुके।
माफ़ कीजियेगा पोस्ट लम्बी है और कई जगह तारतम्य नहीं है कीमोथेरेपी की वजह ध्यान नहीं लग पा रहा था जिससे ढंग से लिख नहीं कर सका हूं। इसकी प्रूफ रीडिंग और एडीटिंग में हनी की मम्मी रीता इस्लाम जी सहयोग किया है इसका शुक्रिया।
फोटो – यह फोटो 2009 का अशोक होटल नई दिल्ली का जहां प्रोफेसर यूनूस एक कार्यक्रम के लिए आए थे। जहां मेरी उनसे बातचीत हुई थी। मेरी बेटी हनी इस्लाम से भी उन्होंने बात की थी।