इस्लाम हुसैन
आज मुझे बड़ा सुकून मिल रहा है, हिंदी में मैं इसे गौरव का क्षण कह सकता हूं।
2024 में अगस्त की एक तारीख में सुबह सुबह जब फेस बुक खोला तो 12 हजार करोड़ में बनी नई नवेली संसद की बिल्डिंग की एक छत के नीचे प्लास्टिक का डब्बा रखा देखा जिसमें टपकता हुआ पानी इकट्ठा हो रहा है। इससे मुझे बड़ी राहत मिली। जैसे इसमें पानी इकट्ठा नहीं हो रहा है, मेरी बाड़ी में खून चढ़ रहा हो।
मुझे हैरत नहीं हुई बल्कि सुकून और फख्र महसूस हुआ मुझे ही क्यों मुझे जैसे हजारों लाखों करोड़ों हिन्दुस्तानियों को होगा, जिनके घरों में बरसात में ऐसे डब्बे, देगची, बाल्टी, कटोरे फर्श से लेकर बिस्तर में सजे रहते हैं और जिसमें छत से टपकता हुआ पानी इकट्ठा होता रहता है। कैंसर से लड़ते हुए सुबह सुबह ऐसी पोस्ट से खून बढ़ जाता है, क्योंकि कीमोथेरेपी की दवाईयों से लगातार खून कम होता है।
मुझे लगता है वो कहावत सही हो रही है जिसमें झोपड़ी में रहने वाली एक बुढ़िया अपने बच्चों को समझाती है कि, शेर का डर नहीं होता टपके का डर होता है, वाकई में संसद में भले ही शेर हो लेकिन इस टकपे के आगे ढेर हैं। कोई औकात नहीं है।
वैसे हमारे यहां शायद इसीलिए टपकेश्वर का मंदिर भी स्थापित है ताकि इससे दिशा खातिर रहा था सके।
हर आदमी अपनी औकात के मुताबिक अपनी रिहाइश पर पैसा लगाता है, यह और बात है कि वो अपने मकान/छत बनाने या मरम्मत करने में कमीशन नहीं खाता होगा फिर भी टपका झेलता है। उससे बच्चे टपके को सम्हालने के लिए अपने घर के बर्तन इधर उधर लगाते होंगे, यहां चूंकि नई संसद के माई बाप को बिल्डिंग बनाने के बाद कोई लेना देना नहीं है।
हमारे टपकने वाली झोपड़ी और मकानों की संसद के सामने क्या औकात, जब वहां शान के साथ पानी इकट्ठा कर रहा है तो हमारी झोपड़ी में भी यही हो रहा था। इतने सालों का विकास और अरबों खरबों खर्च करने के बाद भी अगर डब्बा लगाना पड़ रहा है तो इसे ही राष्ट्रीय प्रतीक मान लिया जाना चाहिए इससे भावनाएं आहत नहीं होंगी भावनाएं उद्वेलित होकर संतोष का ऐसा वातावरण बनाएंगी जिससे यत्र सर्वत्र विकास ही दिखाई देगा।
मैं इस बात के सख़्त ख़िलाफ़ हूं कि इसकी तुलना या मुशाबिहत अंग्रेजों की बनाई संसद से की जाए, भाई अंग्रेजों का टपके से क्या लेना देना टपका उनका मसला नहीं है, यह हमारा मसला नहीं, हमारा कार्य कारण और परिणाम है।
संसद में रखे इस डब्बे से मैं और मेरे जैसे हजारों लाखों लोगों के दुख कम हो गए हैं, जो उन्होंने बरसात की रातों में डब्बे इधर उधर लगाकर झेले थे। वो अक्सर गाते भी थे
जिंदगी भर नहीं भूलेगी वो बरसात की रात, एक नहीं बीसीयों सैकड़ों रातें इस तरह बीती थी।
वैसे नई संसद में टपके के लिए शान से रखे इस डिब्बे में क्या इतना पानी इकट्ठा हो सकता है जिससे सरकार खुदकुशी करले या डूब जाए। अरे भाई दिल्ली में जब बरसात के पानी से बेसमेंट में बच्चे डूब सकते हैं तो सरकार क्यों नहीं डूब सकती।
अगर आप संसद में टपके वाले डिब्बे को देखकर अपने बचपन जवानी के टपके का सुख लेना चाहते हैं सुकून और फख़्र महसूस करना चाहते हैं तो सौमित्र राय जी की पोस्ट से उठाए इस वीडियो को देख सकते हैं, लिंक कमेंट बॉक्स में है।