राजीव लोचन साह
कैसा नैनीताल देखा था! कोलाहल और भीड़ से मुक्त, शान्त-नीरव, हद दर्जे का साफ-सुथरा, बाग-बगीचों और अंग्रेजों की छोड़ी इमारतों से भरपूर। बाजारों में भिश्ती नालियों में पानी डालते थे और ढिढोंरची की मुनादी सुनने के लिये लोग इकट्ठे हो जाते थे। एक हैल्थ ऑफीसर को हलवाई की दूध की कढ़ाही में कुछ बदबू आती दिखी तो सारा दूध नाली में फिंकवा दिया गया। मालरोड में चलाने की अनुमति न मिलने के कारण एक सज्जन शहर का इकलौता स्कूटर घसीट कर ले जाते दिखाई देते थे। कारें कितनी कम थीं ? उनका लेक ब्रिज टैक्स प्रति फेरा 10 रु. (आज के 1,000 रुपये से ज्यादा) इसलिये था कि मालरोड में गाड़ी ले जाने का साहस हर कोई न कर सके। सड़क के किनारे पेशाब करना तो एक असम्भव दृश्य था।
अब कैसा जो यह नैनीताल हो गया है! गन्दगी, भीड़ और कोलाहल से बजबजाता। जहाँ की असुरक्षित सड़कों पर पैदल चलने की गुंजाइश न होने के कारण घर में ही कैद रहने को मन करता है।
बहुत से लोग इसे पर्यटन का विकास मानते हैं। मगर यहाँ पीढ़ी दर पीढ़ी रह रहे लोग ऐसा नहीं मानते। न वे लोग ऐसा मानते हैं, जिन्हें यहाँ रहते हुए पचास साल से ज्यादा हो गये हैं। इनमें से बहुत सारे लोग तो अब तमाम मजबूरियों के कारण हल्द्वानी शिफ्ट हो गये हैं। उनका स्थान उन लोगों ने ले लिया है, जिन्हें न तो नैनीताल के अतीत और परम्पराओं की कोई जानकारी है और न ही उनकी कोई जरूरत है। उन्हें नैनीताल सोने का अण्डा देने वाली एक मुर्गी है। उन्हें बस पर्यटन चाहिये। जब वह लाभदायी नहीं रहेगा तो वे यहाँ का कारोबार समेट कर कहीं अन्यत्र पर्यटन का विकास करने चले जायेंगे।
दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि शासन-प्रशासन में ऐसे ही लोगों का बोलबाला है। अतः पिछले कुछ सालों में एक शब्द जिसने दानवाकार रूप ले लिया है, वह है ‘पार्किंग’। गृहस्थियाँ उजाड़ दो, ऐतिहासिक इमारतें ध्वस्त कर दो, कमजोर पहाड़ियों वाले शहर को आपदा में धकेल दो, मगर पार्किंग दे दो। पिछले कुछ समय से नैनीताल का विकास इसी ‘पार्किंग’ के आसपास हो रहा है। इसके विकल्प कि सारी गाड़ियाँ बाहर रोक दो और सार्वजनिक यातायात को इतना कुशल बना दो कि किसी को नगर में गाड़ियाँ लाने की जरूरत ही न पड़े, पर कोई नहीं सोचता। अन्ततः माथेरान जैसे हिल स्टेशन भी इसी देश में हैं।
इसी सोच के तहत 1883 में अस्तित्व में आया तल्लीताल स्थित डाकघर ध्वस्त करने की कवायद चल रही है। यह खूबसूरत इमारत नैनीताल का लैण्डमार्क है। योरोप के किसी शहर में होती तो इसका रुतबा ही कुछ और होता। पर्यटक इसके आगे फोटो खिंचवाते। मगर अब यह अपने अन्तिम दिन गिन रही है। कारण प्रशासन चाहता है कि इस स्थान पर सड़क चौड़ी कर दी जाये। जबकि ऐसी कोई जरूरत उस जगह पर महसूस नहीं होती। शहर के अनेक लोगों ने प्रशासन की इस योजना पर आपत्ति जाहिर की है और ज्ञापन भी दिये हैं, मगर इधर के सालों में शासन-प्रशासन सिविल सोसाइटी को इतनी हिकारत से देखने लगे हैं कि इस कोशिश का कोई सकारात्मक परिणाम निकलेगा, ऐसा लगता नहीं। अनावश्यक रूप से और गलत जगहों पर पार्किंग बनाने की इस जिद से ही बलिया नाले के ऊपर एक नयी पार्किंग बनाने का काम शुरू किया जाने वाला है, बगैर इस खतरे को जाँचे कि क्या इससे तल्लीताल बाजार की ऊँची इमारतों पर कुछ प्रभाव पड़ेगा।