नवीन जोशी
पुरौला (उत्तरकाशी) में पिछले वर्ष मई-जून में ‘लव ज़िहाद’का जो मामला जोर-शोर से उछाला गया था, जिसके कारण शांत कस्बे में साम्प्रदायिक तनाव फैल गया था, दो युवकों को लम्बे समय तक जेल में रहना पड़ा थाऔर दशकों से रह रहे मुस्लिम दुकानदारों को चुन-चुनकर भगाया गया था, वह अदालत में झूठ का एक पुलिंदा साबित हुआ है, जिसे जाहिर है, भाजपा और उसके सहयोगी हिंदूवादी संगठनों ने फैलाया-भड़काया था।
हल्ला यह मचाया गया था कि ‘लव ज़िहाद’का एक मामला पकड़ा गया है। शांति और सद्भाव वाले पुरौला में तनाव भड़क गया था। लड़की के चाचा ने पुलिस में रिपोर्ट लिखाई थी कि दो युवक अवयस्क लड़की का अपहरण करके ले जा रहे थे। नामजद रिपोर्ट के आधार पर 25 साला उबैद खान और 24 वर्ष के जितेंद्र सैनी गिरफ्तार किए गए। उसके बाद कस्बे के मुसलमानों को धमकाया जाने लगा, उनकी दुकानों पर धमकी भरे पोस्टर चिपकाए गए, उन्हें भाग जाने की चेतावनी दी गई। पुरौला में मुसलमानों के प्रवेश पर रोक लगाने की मांग भी की गई थी। भाजपा और हिंदू संगठनों ने प्रदर्शन किए, पूरे उत्तराखण्ड में ‘मुसलमानोंका कब्जा’ होने का आरोप लगाया गया। मामला प्रदेश और देश भर की सुर्खियां बना। कई मुसलमान परिवारों को कस्बे से भागना पड़ा, उनकी दुकानें बंद हो गईं, जो टिके रहे वे उपेक्षा और भय में जीते रहे।
समान नागरिक संहिता और ‘लिव-इन रिलेशन’के अनिवार्य रजिस्ट्रेशन जैसे कानून के अलावा भी कई मामलों से स्पष्ट है उत्तराखंड को भाजपा-संघ ने अपनी नफरत की राजनीति के लिए नई प्रयोग भूमि बनाया है। भाजपा के लगातार दो विधान सभा चुनाव जीतने और लोक सभा की पांचों सीटों पर भी दोबारा कब्जा जमाने से साबित होता है कि साम्प्रदायिक विभाजन का उसे लाभ हो रहा है। समाज को क्या कीमत चुकानी पड़ रही है, यह उसकी चिंता का विषय नहीं है।लेकिन इसे दूसरे तबकों और मीडिया की चिंता का विषय अवश्य होना चाहिए।
पूरा मामला झूठा और साम्प्रदायिक घृणा फैलाने वाला प्रमाणित होने के बाद स्थानीय अखबारों का क्या रुख रहा, जो पिछले वर्ष ‘लव ज़िहाद’की रिपोर्टों से भरे रहते थे? क्या किसी ने इस झूठे मामले से पुरौला कस्बे की समाजिक संरचना, शांति और सद्भाव पर पड़े दुष्प्रभाव पर लिखकर सच को सामने लाने की जरूरी पहल की? क्या किसी ने आम जनता को यह समझाने का प्रयास किया कि साजिशन फैलाई जाने वाली ऐसी अफवाहें समाज में किस कदर अविश्वास और दरारें पैदा कर देती हैं, जिसे भरना आसान नहीं होता और हम आवश्यक मुद्दों को भूलकर नाहक झगड़े-फसाद में लपेट दिए जाते हैं, जिसका फायदा कोई और उठाते हैं?
देश के दो बड़े अंग्रेजी अखबारों, ‘द हिंदू’ने 20 जुलाई और ‘इण्डियन एक्सप्रेस’ ने 22 जुलाई 2024 के अपने अंकों में पुरौला कस्बे का ताज़ा हाल पेश किया है। दोनों अखबारों की रिपोर्टें बताती हैं कि पुरौला अब वही नहीं रह गया है, जैसा इस साजिश से पहले था। दशकों से वहां रह रहे निवासियों के बीच अविश्वास और आशंका की दरार पड़ गई है। कुछ मुस्लिम परिवार जिन्हें तनाव के बीच भागना पड़ा था, लौट आए हैं। कुछ नहीं लौटे हैं। कुछ ने अपने मकान बेच दिए हैं। कुछ दुकानें आज भी बंद हैं। उनके सामाजिक रिश्ते बदल गए हैं, दुआ-सलाम कम हो गई है और दुकानदारी आधी रह गई है। दुख दब गया है लेकिन कायम है और सदमा भी।
‘नैनीताल समाचार’ की इस रिपोर्ट में आगेपुरौला कस्बे के निवासियों के जो बयान और अन्य विवरण प्रस्तुत किए जा रहे हैं, वे ‘द हिंदू’ और ‘इण्डियन’एक्सप्रेस’में प्रकाशित रिपोर्टों से साभार उद्धृत किए गए हैं।
अदालत ने दोनों युवकों को निरपराध घोषित कर दिया है। जिस लड़की के अपहरण का आरोप लगाया गया था, उसने और उसके चाचा ने बयान दिया कि अपहरण करने का कोई प्रयास नहीं हुआ था। उस दिन वह दर्जी की एक दुकान तलाश रही थी। उसने उबैद और जितेंद्र से दुकान का पता पूछा तो उन्होंने रास्ता बता दिया था। अपहरण करने का आरोप गलत है। पहले अपहरण के प्रयास का जो बयान दिया था, वह पुलिस के दबाव में किया था। पुलिस ने कहा था कि अपहरण का आरोप लगाते हुए बयान दे दो। लड़के के चाचा ने कहा कि उसने एक पड़ोसी आशीष के कहने पर आरोप लगाया था। आशीष, जो अपने को चश्मदीद गवाह कहता था, अदालत में अभियुक्तों की पहचान नहीं कर पाया।
पुरौला में कपड़े की दुकान चलाने वाले सोनू खान कहते हैं कि हमें तनाव के कारण अपना मकान बेचना पड़ा था कि शायद यहां से पूरी तरह जाना पड़ जाए।हमारे अब्बा 1975 में उत्तरकाशी आ गए थे। मैं और मेरा भाई साहिल खान, हम यहीं पैदा हुए। पिछले बरस मकान बेचकर हम एक रिश्तेदार के यहां रहे। एक हिंदू दोस्त ने हमें अपने यहां रखने की पेशकश की थी। अब हमारी दुकान में हिंदू ग्राहक कम आते हैं।
सोनू का भाई साहिल पुरौला छोड़कर देहरादून के विकासनगर में चला गया है, जहां वह मोबाइल मरम्मत की दुकान चला रहा है। साहिल कहता है, अब मैं शायद ही पुरौला लौट पाऊंगा। मेरे ही हिंदू दोस्तों ने हमारे खिलाफ जुलूस निकाला था, यह बात मुझे ताउम्र सताती रहेगी। सोनू ने अपनी बड़ी बेटी को भी साहिल के पास विकासनगर भेज दिया है। पुरौला में उसकी दुकानदारी इतनी कम हो गई है कि किराया चुकाना और परिवार चलाना कठिन हो गया है।
मोटरसायकिल मरम्मत का काम करने वाले मोहम्मद फारूख बताते हैं कि पिछले वर्ष तनाव के बाद हमें ईद की नमाज़ भी अदा करने नहीं दी गई थी। जो लोग तब कस्बा छोड़कर चले गए थे, उनमें से ज़्यादातर लौट आए हैं लेकिन अब रोजी-रोटी चलाना मुश्किल हो गया है। मोहम्मद ज़ाहिद की पुरौला में कपड़े की दो दुकानें थीं। वह पुरौला छोड़कर पक्की तौर पर देहरादून बस गए हैं।
रिश्तेदार बताते हैं कि उबैद, जिसे लड़की के अपहरण के आरोप में गिरफ्तार किया गया था, सदमे में रहता है। उसका परिवार पुरौला में फर्नीचर की दुकान करता था। उबैद की गिरफ्तारी के बाद आनन-फानन में दुकान बेचनी पड़ी। दुकान और माल की कीमत का बीस फीसदी ही मिल पाया था। उसका मुकदमा लड़ने के लिए उसके भाई को दर-दर भटकना पड़ा। अब उबैद के लिए बिजनौर (उप्र) में कोई काम और ठिकाना बनाने की कोशिश हो रही है।
अपनी टेलरिंग शॉप में बैठे 30 वर्षीय शाहनाज़ कहते हैं कि हम यहां 1992 से रह रहे हैं। 2004 में हमने पुरौला में एक मकान खरीदा था, जिसे उनके अब्बा ने यहां आने के बाद से किराए पर ले रखा था। पिछले साल के कांड के बाद डर के मारे मकान बेचना पड़ा। हमारी अम्मी का दिल ही टूट गया है। वह भाई के साथ देहरादून चली गई हैं। मैं अपनी दुकान चलाने की कोशिश कर रहा हूं लेकिन वह बात नहीं रही। अब दुआ-सलाम भी कम ही लोग करते हैं। शाहनवाज़ की दुकान के नीचे जिस व्यक्ति की कपड़े की दुकान थी, वह बंद पड़ी है। जो पहलेसलीम अहमद की कपड़े की दुकान हुआ करती थी, उस पर नए मालिक के नाम पर ‘रघुनाथ गार्मेण्ट्स’का बोर्ड लगा हुआ है। जिनमुस्लिम दुकानदारों के नाम-पट पिछले बरस तोड़फोड़ दिए गए थे, उनमें से कुछ ने दोबारा बोर्ड नहीं लगाए हैं।
एक दुकानदार ने नाम न छपने की शर्त पर बताया कि ऊपर-ऊपर लगता है कि सब-कुछ सामान्य हो गया है लेकिन जो दरार पड़ गई है, वह भरनी मुश्किल है। करीब चालीस परिवार भागने पर मजबूर हुए थे। सात-आठ को छोड़कर ज़्यादातर लौट आए हैं लेकिन अलगाव साफ दिखाई देता है। पिछले साल बवाल के वक्त मेरे बच्चे पूछते थे कि दूसरे लोग हमें गाली क्यों देते हैं। मेरे पास कोई जवाब नहीं था। जवाब आज भी नहीं है। जिन्होंने तब बवाल मचाया था, अब जब कभी दुकान पर आते हैं तो ऐसे कि जैसे कुछ हुआ ही न हो। हम भी वैसा ही व्यवहार करते हैं कि सब भूल चुके हैं।
प्रेम का टूटा धागा जोड़ा तो जा सकता है, लेकिन जो गांठ पड़ी रह जाती है, उसका क्या? नफरत की राजनीति की लहर में बह जाने वाले क्या इस पर तनिक विचार करेंगे?
(20 जुलाई, 2024 के ‘द हिंदू’में प्रकाशित ईशिता मिश्र तथा 22 जुलाई, 2024 को इण्डियन एक्सप्रेस’में प्रकाशित अवनीश मिश्र की रिपोर्टों के आधार पर)