राजीव लोचन साह
2024 के लोकसभा चुनाव के बाद भारत का लोकतंत्र पुनः जीवन्त सा होता लग रहा है। हालाँकि ऐसा माहौल कब तक रहेगा और क्या वह दशकों से चल रही समस्याओं का समाधान करने में भी सफल होगा, ऐसा कतई नहीं कहा जा सकता। मगर लगातार एक ही चेहरे को देखते हुए, उसी के एकालाप सुनते हुए जो ऊब सी होने लगी थी, वह अब खत्म होने को आ रही है। विशेषकर नई लोकसभा के पहले सत्र में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर जो बहस हुई, उसने संसदीय व्यवस्था पर नये सिरे से विश्वास पैदा किया है। एक दशक के अन्तराल के बाद सदन में नेता प्रतिपक्ष की नियुक्ति हुई और राहुल गांधी ने अपने लगभग पौने दो घण्टे के भाषण में देश के दो सबसे ताकतवर लोगों, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह को खड़े होकर आपत्ति करने को विवश कर दिया। छः महीने पहले तक ऐसा होना अकल्पनीय था। संसद टीवी के अनुसार उनके इस भाषण को 13 लाख लोगों ने देखा-सुना, जबकि उनके बाद बोलने वाले नरेन्द्र मोदी को केवल 63 हजार लोगों ने। यहाँ तक कि निर्दलीय रूप से संसद में आये बहुजन समाज के युवा नेता चन्द्रशेखर आजाद रावण को भी दस लाख के करीब व्यूज मिले। इससे जाहिर होता है कि संसद में अब सत्तापक्ष और विपक्ष का संतुलन एक स्वस्थ स्तर पर आ गया है और देश की राजनीति में रुचि रखने वालों को अब सिर्फ एक व्यक्ति के व्याख्यानों से काम नहीं चलाना पड़ेगा। संसद के बाहर भी राहुल गांधी ने जिस तरह से नारायण साकार हरि के तथाकथित सत्संग में हुए हादसे के बाद हाथरस, हिंसापीड़ित मणिपुर, गुजरात और अमेठी-रायबरेली के ताबड़तोड़ दौरे किये, उससे लग रहा है कि विपक्ष अपनी जिम्मेदारी निभाने में अब उत्साह से संलग्न हो गया है। एक मुर्दा पड़े लोकतंत्र में इस तरह से जान आ जाना शुभ लक्षण है। भारत के साथ यदि ब्रिटेन, फ्रांस और ईरान में हुए चुनावों के परिणामों को भी देखा जाये तो विश्व राजनीति में कुछ सकारात्मक बदलाव आ रहे हैं।