उमा भट्ट
25 मई 2024 से प्रारम्भ अस्कोट से आराकोट की यात्रा में इस बार मेरी कुछ ही दिन की भागीदारी रही। पिथौरागढ़ तथा बागेश्वर जिले के सीमान्त गावों को देखने का अवसर मिला और ग्रामवासियों से बातचीत हुई। पिथौरागढ़ जिले के पांगू गांव से शुरू हुई यात्रा में मैं जिन गावों में शामिल हो सकी, वे हैं – पांगू, घट्टाबगड़, सरमोली, गिरगांव, बिर्थी, कर्मी, बदियाकोट और हिमनी। बातें कई तरह की हुईं पर एक बात जो सभी गावों में सामान्यतया मौजूद थी और जिस पर चर्चा भी हुई, वह थी औरतों की माहवारी के विषय में। यह चर्चा सबसे पहले कर्मी में उठी जब राजकीय इन्टर कालेज कर्मी, जिला बागेश्वर में एक अध्यापिका ने आपसी बातचीत में इस मुद्दे को उठाया। उनका कहना था कि इस क्षेत्र में महिलाओं को माहवारी के दौरान पांच दिन तक गोठ यानी गौशाला में रहना पड़ता है और उनकी शुद्धि के लिए गोमूत्र का छिड़काव भी उन पर किया जाता है। उन्हें शौचालय का प्रयोग नहीं करने दिया जाता। नहाने के लिए गधेरे में जाना पड़ता है, चाहे बरसात का मौसम हो या जाड़े का। यही नहीं, लड़कियों के साथ भी यही व्यवहार होता है। इस दौरान लड़कियां विद्यालय से भी अनुपस्थित रहती हैं। यह हमारे लिए एक चौंकाने वाला तथ्य था। उनका यह भी कहना था कि महिला कर्मचारियों को माहवारी की वजह से गांव के लोग किराये में मकान देने में आनाकानी करते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि बाहर के इलाकों से विशेष कर शहरी क्षेत्रों से गांव में आई हुई महिला कर्मचारी माहवारी के बारे में कुछ नहीं बतायेंगी। इस जानकारी के बाद तो हमने प्रत्येक गांव में इस बावत बातचीत जारी रखी। अस्कोट-आराकोट के दल में इस बार तीन या चार महिलाएं निरन्तर भागीदारी कर रहीं थीं इसलिए बातें करने में असुविधा नहीं थी। 2018 में जौलजीवी से पंचेश्वर तक की यात्रा में भी यह बात उठी थी कि उस इलाके में जहां चौमू देवता का मन्दिर है, छात्राओं के लिए माहवारी के दौरान विद्यालय जाना वर्जित है। हमने इस बात को तब काफी प्रचारित किया और कई पत्रकारों ने राष्ट्रीय स्तर के समाचार पत्रों में इस मुद्दे को उठाया। शिक्षा विभाग के स्तर पर भी यह बात उठाई गई थी।
राजकीय इन्टर कालेज कर्मी के प्रधानाचार्य से पूछने पर उन्होंने कहा कि लड़कियां माहवारी के दौरान भी विद्यालय आती हैं लेकिन घर में उन्हें अलग रखा जाता है। एक अध्यापक जिनकी पिछले 13 वर्ष से इसी विद्यालय में तैनाती है, ने बताया कि पहले इस मामले में बहुत कट्टरता थी पर अब कम हुई है। प्रधानाचार्य ने बताया कि विद्यालय में वेंडिंग मशान है और लड़कियों को सेनेटरी पैड दिये जाते हैं।
गांव के लोगों से बात करने पर वे यही तर्क देते हैं कि यह देवभूमि है। देवता बाहर भी हैं और घर के अन्दर भी। माहवारी में यदि महिलाओं को अलग न रखा जाय तो अशुद्धि हो जाती है और देवता नाराज हो जाते हैं, जिसका दुष्परिणाम पूरे गांव को भुगतना पड़ता है। 2013 की आपदा को भी लोगों ने महिलाओं के नन्दा राजजात में जाने से जोड़ा था। यह भी बताया गया कि कुछ लोगों ने अलग कमरे बना दिये हैं पर जिनके पास पैसा है, वे ही बना सकते हैं, हर कोई तो नहीं बना सकता।
चमोली जिले के हिमनी गांव में महिलाओं और लड़कियों के बीच इस विषय पर बात की तो सभी ने इस बात को स्वीकार किया कि ऐसा होता है। इन गावों की लड़कियां जब पढ़ने के लिए बाहर जाती हैं, तब वहां वे माहवारी के बारे में किसी को कुछ नहीं बताती हैं और सामान्य रूप से रहती हैं परन्तु गांव में वे ही लड़कियां देवता के नाम पर अनिष्ट की आशंका से डर जाती हैं। हालांकि शहरों में अब इस तरह माहवारी को अभिशाप समझा जाना या अपवित्रता के भाव से जोड़ना लगभग समाप्त है लेकिन माहवारी के दौरान धार्मिक कार्यों में स्वयं महिलाएं शामिल नहीं होतीं। परन्तु लड़कियों को माहवारी की सूचना देने की अनिवार्यता शहरों में और बहुत से गांवों में नहीं दिखाई देती। लड़कियों से यह पूछने पर कि तुम्हें कैसा लगता है, उनका कहना था कि शुरू-शुरू में बहुत बुरा लगता है फिर आदत सी बन जाती है। कम उम्र की लड़कियों से इस सन्दर्भ में हमारी बातें नहीं हो पाईं। कुछ सयानी लड़कियों तथा विवाहित महिलाओं से ही बातें हुईं, जिन्होंने देवभूमि में होने के इस दण्ड को स्वीकार लिया है।
हिमनी गांव में हमारी मुलाकात एक ऐसी महिला से भी हुई जिसका मायका मुन्स्यारी में है और ससुराल हिमनी में। उसका पति आईटीबीपी में काम करता है। देहरादून में पढ़ाई के दौरान दोनों की मुलाकात हुई और घरवालों की रजामन्दी से विवाह हो गया। उसने बताया कि वह गौशाला में न रहकर पूरे पांच दिन तक अलग कमरे में रही। जब हम अधिक पूछताछ कर रहे थे तो कई व्यक्तियों ने कहा कि औरतें अब गौशाला में नहीं रहतीं, अलग कमरे में रहती हैं। अलग कमरे में रहना कोई समाधान नहीं है। महिलाओं से अगर बात की जाय तो वे इसे एक कष्टदायक स्थिति मानती हैं। पर जब तक वे यह मानने को तैयार नहीं होतीं कि यह एक स्वाभाविक शारीरिक प्रक्रिया है, इसका उन्मूलन कठिन है। धर्म और संस्कारों के साथ-साथ समाज ने रूढ़िवादिता का ठेका भी महिलाओं को दे रखा है जिसे वे बखूबी ढो रही हैं।
स्त्री-पुरुष में विभेद पैदा करने के कई पितृसत्तात्मक तरीके हैं। उन्हीं में से एक है माहवारी के दौरान स्त्री की अपवित्रता की घोषणा कर उसे अस्पृश्य मानना। देवता के कामों से वंचित रखना। जब इस पर बहस की जाय तो कहा जाने लगता है कि महिलाओं को आराम देने के लिए यह रिवाज बना है जबकि हकीकत यह है कि पहाड़ के गावों में माहवारी के दौरान स्त्रियां लकड़ी-घास काटने जंगल जाती हैं, खेती के सारे काम करती है, केवल भोजन बनाने का काम नहीं कर सकतीं तो इसमें आराम कहां है। गौशाला में पशुओं के साथ सोने की मजबूरी उनके स्वास्थ्य और स्वच्छता दोनों के लिए हानिकारक है। कम उम्र की मासूम लड़कियों के लिए यह अनुभव कितना पीड़ादायक ओर हीनताबोध भरने वाला होता होगा, कहना मुश्किल है। अपने हमउम्र लड़कों की तुलना में वे स्वयं को कितना बंधा हुआ और हीन महसूस करती होंगी। जब यह कहा गया कि शहरों में रहने वाली आपकी ही बहू-बेटियां इस बात को नहीं मानतीं तो पुरुषों का यही तर्क था कि यह हमारी देवभूमि है, यहां कितने सारे देवी-देवता रहते हैं। अगर हम नहीं मानेंगे तो हम सबका अनिष्ट होगा।
धर्म तो सदा से स्त्रियों के खिलाफ रहा है। हमारे बनाये हुए देवी-देवता भी हमारी ही तरह पितृसत्तात्मक हैं, इसलिए वे भी स्त्रियों के साथ भेदभाव करते हुए दिखाये जाते हैं। अनेक मन्दिर ऐसे हैं जिनमें आज भी स्त्रियों का प्रवेश वर्जित है। अनेक देवताओं की पूजा में स्त्रियां भागीदारी नहीं कर सकतीं। यदि ऐसे मन्दिरों और पूजा पद्धतियों की सूची बनाई जाय तो वह लम्बी बनेगी। अस्कोट-आराकोट यात्रा के साथी हर्ष एक कविता बार-बार सुनाते हैं जिसमें वे कहते हैं पहले देवताओं ने हमें बनाया और फिर हमने अपने देवता बनाये। पर सच तो यह है कि हमने अपने देवताओं को भी पितृसत्तात्मक सोच से भर दिया और वे भी स्त्रियों पर अत्याचार करने लगे। तब ऐसे स्त्री-विरोधी देवताओं का हम क्या करें ?
पंचेश्वर यात्रा के बाद जब इस प्रश्न को उठाया गया था तो बेसिक शिक्षा विभाग, पिथौरागढ़ ने इस पर कार्रवाई की थी कि लड़कियों को स्कूल आने से न रोका जाय। यहां भी इस तरह का आदेश शिक्षा विभाग द्वारा दिया जा सकता है कि माहवारी के कारण कोई भी छात्रा अनुपस्थित न पाई जाय अन्यथा विद्यालय पर कार्रवाई की जायगी। यह हो सकता है लेकिन जातीय ओर लैंगिक भेदभाव से भरे देवभूमि के इस समाज पर क्या कार्रवाई हो सकती है।
फोटो इंटरनेट से साभार