राजीव लोचन साह
भारत की हिन्दी पत्रकारिता बेहद असंतुलित और विरोधाभासी हो गयी है। एक ओर मुख्यधारा का मीडिया है, जिसे उसकी सरकारपरस्ती के कारण अब गोदी मीडिया ही कहा जाने लगा है। यह मीडिया निशिदिन यही साबित करने की कोशिश करता रहता है कि देश में आज जैसा खुशहाल वक्त कभी नहीं आया था; जो लोग इस बात पर शंका करते हैं, वे देशद्रोही हैं; अब तक देश में जो कमी या बदहाली रही, वह इससे पहले की कांग्रेस सरकारों के कारण थी; इस पिछड़ेपन का कारण दलित तथा अन्य धर्मों के लोग भी हैं, खासकर मुसलमान, जो अपनी आबादी बढ़ा कर हिन्दू धर्मावलम्बियों के सामने अस्तित्व का ही संकट पैदा कर दे रहे हैं; इन्हें तो इस देश में रहने का हक है ही नहीं। यह मीडिया गरीबी, महंगाई, बेरोजगारी आदि पर कभी कोई बात नहीं करता और सरकार की नाकामयाबियों को या तो सही साबित करने लगता है या फिर पूरी तरह छिपा लेता है। इससे भी आगे बढ़ कर यह सरकार के पक्ष में ऐसे नैरेटिव भी तैयार करता है, जिन्हें हाथोंहाथ उठा कर सत्ता पक्ष के लोग या तो अपनी पीठ ठोंकते हैं या फिर अपने राजनैतिक विरोधियों पर चोट करते हैं। कुल मिला कर यह गजब की पत्रकारिता है, जिसका उदाहरण किसी विकसित लोकतंत्र में ढूँढे भी नहीं मिलेगा। मगर इस मीडिया ने करोड़ों देशवासियों को इस तरह पकड़ रखा है कि वे अपनी राय इसी गोदी मीडिया के आधार पर बनाते हैं। यही कारण है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का विजय रथ इक्के-दुक्के झटकों के बावजूद इत्मीनान से आगे बढ़ रहा है। इसके समानान्तर एक वैकल्पिक मीडिया है, जिसकी पहुँच कुछ लाख जागरूक लोगों तक ही सीमित है। इसमें मुख्यतः सरकार के दबाव में बड़े गोदी मीडिया हाउसों से निष्कासित या स्वयं छोड़ कर आये प्रतिभाशाली और साहसी पत्रकारों के ब्लॉग हैं। ये संविधान में विश्वास करने वाले तथा तार्किक और तथ्यपरक पत्रकारिता करने वाले लोग हैं। मगर अपने मोदी विरोध में कई बार ये यथार्थ की जमीन पर अपनी पकड़ खो बैठते हैं। इससे इनकी विश्वसनीयता प्रभावित होती है और इनकी आम जनता पर पकड़ उतनी तेजी से नहीं बढ़ती, जितनी एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिये जरूरी है। इस पत्रकारिता में संतुलन लाना बहुत जरूरी है।