राजशेखर पन्त
क्या संबंध हो सकता है श्मशान और प्रेम का? मुझे अक्सर किसी डरावने ब्लैकहोल जैसा लगता है श्मशान, जिसमें सब कुछ अस्तित्व विहीन हो कर समाता चला जाता है। कुछ भी तो नहीं बचता यहां, जिसे एक सूत्र की तरह पकड़ कर आप उससे जुड़ सकें जिसे आपने स्वयं यहां कभी अपने हाथों से अग्नि को समर्पित कर दिया था। बहता हुआ पानी…वर्षों से सतत प्रवाह को तटस्थ भाव से देखते, अनुभव करते शिलाखंड और अधजली लकड़ियों के कुछ टुकड़े… न जाने कब से, कितने शरीर राख के ढेरों में बदलते रहे होंगे यहां… भला कैसे कोई अपने प्रिय के स्मृतिचिह्नों को ढूंढ सकता है, जुड़ सकता है उनसे… मुट्ठी भर राख भी तो नहीं बचती कुछ समय बाद। किसी पुरानी कब्र के खंडहर, ग्रेव-स्टोन पर उकेरे ईपीटाफ के शब्द, उस पर उग आयी काई की हरी परत, आसपास खिले कुछ जंगली फूल तो फिर भी बहुत कुछ कहते हैं, संजोये रहते हैं अपने आप में, पर श्मशान…
कहते हैं किसी प्रिय की मृत्यु एक ऐसी पीड़ा, ऐसी छटपटाहट दे जाती है जिसका उपचार असंभव है, और प्रेम स्मृतियों की एक ऐसी पोटली चुपचाप थमा जाता है जिसे चुराना असंभव है। प्रेम और मृत्यु से जन्मे परम विछोह के द्वैत की अभिव्यक्ति इतिहास में ताजमहल, रानी पद्मावती के मंडप, ऐश्टन मैमोरियल, एल्बर्ट मैमोरियल, प्राचीन मिस्र के एंटीनोआपोलीस जैसे अनेकों स्मारकों इत्यादि के माध्यम से होती रही है। प्रेम और मृत्यु-जनित विछोह की इन प्रतीकात्मक अभिव्यक्तियों की पृष्ठभूमि में इनको बनवाने वाले व्यक्तियों की सम्पन्नता, उनका वैभव, सामर्थ्य और संभवतः वह अहंकार जिसके चलते प्रदर्शन की भावना प्रायः प्रेम की तंद्रिल छुअन पर हावी होती दिखायी देती है -निर्विवाद रूप से अत्यंत मुखर है।
इन सबसे इतर प्रेम का एक अन्य स्मारक भी है, नितांत सादगी से बनवाया हुआ… जंगल में खिले किसी फूल पर ठहरी ओस की बूंद सा पवित्र…
नैनीताल शहर जे नजदीक पाइंस कही जाने वाली एक छोटी सी बसाहट के पास बने श्मशान घाट पर, किस मनस्थिति की पृष्ठभूमि में बनवाया होगा ‘लाला गोविंद लाल साह, सलीम गड़िया’ ने अपनी कथित ‘प्राणप्रिय’ सरस्वती देवी की स्मृति में एक छोटा सा ‘शिवालय’ और ‘प्रेम कुटी’? ‘प्राणप्रिय’ संबोधन संभावित रूप से उन संबंधों की ओर संकेत करता है जो इस युगल के मध्य रहे होंगे। बीसवीं सदी के प्रारंभिक दशक और रूढ़िवादी पर्वतीय समाज… सोचता हूँ उस जमाने में इन संभावित संबंधों को लेकर इतना आश्वस्त होना कि इन्हें सार्वजनिक रूप से स्वीकारा जा सके -क्या इस अद्वितीय बंधन की गरिमा और पवित्रता का सशक्त प्रमाण नहीं है? प्रेम के इस अद्वितीय प्रकरण को सहेजने के लिए श्मशान में एक छोटे से शिवालय का निर्माण असाधारण लगता है मुझे। यमुना के किनारे बनवाये गए ताजमहल की रागात्मकता मात्र छिछली भावुकता लगती है इसके सामने। ‘काल के कपोल पर ठहरा अश्रुबिंदु’ -जैसा कि गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर ने ताजमहल के लिए कहा है -विछोह के आर्तनाद का प्रतिनिधि स्मारक भले ही बन जाये पर प्रेम के उस उद्दात और चिरंतन स्वरूप को व्यक्त नहीं कर सकता जिसके सम्मुख मृत्यु अंत का पर्याय नहीं वरन एक सहज, सामान्य घटना बन कर रह जाती है।
जॉन डन की प्रसिद्ध पंक्ति -‘डैथ दाउ शैल्ट डाइ’ शायद बहुत पहले पढ़ी थी कभी, पर इसके अर्थ का अनुभव श्मशान में बने इस शिवालय को देखने, उसके मंतव्य को समझने के बाद ही हो सका।
जिस शिव के स्वरूप में विध्वंस, सृ bhजन और कल्याण की त्रयी समाहित हो रही हो, उसे समर्पित ‘सरस्वती’ की स्मृति भला कैसे कभी धुंधला सकती है।
सच! कितनी बौनी लगती है मृत्यु प्रेम के इस अनूठे स्मारक के सामने…