इन्द्रेश मैखुरी
उत्तराखंड की अस्थायी राजधानी देहरादून की सड़कों पर 25 नवंबर की रात को एक युवा विपिन रावत के सिर पर प्राणघातक हमला किया गया. वजह यह कि वह अपने कुछ दोस्तों, जिनमें युवतियाँ भी थी, के साथ एक रेस्तरां में खाना खाने गया. कुछ लोगों ने उन पर फब्तियाँ कसी तो उसने विरोध किया. मामला सुलझने के करीब पहुंचा. लेकिन फब्तियाँ कसने वाले ने बेसबॉल के बल्ले से विपिन रावत के सिर पर हमला कर दिया.
यह घटना देहरादून के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक कार्यालय के एकदम निकट की है. गंभीर हालत में विपिन रावत को अस्पताल में भर्ती कराया गया. पुलिस के पास रिपोर्ट लिखवाई गयी पर आरोप है कि लक्खी बाग चौकी के प्रभारी प्रवीण सैनी, इतने गंभीर मामले में समझौता करवाने की कोशिश करके मामले को निपटाने की कोशिश में लगे हुए थे. मुकदमा भी मामूली धाराओं में लिखा गया.
इस बीच कल 3 दिसंबर को विपिन रावत ने दम तोड़ दिया. उसके बाद हुए विरोध के बाद हमलावर विनीत अरोड़ा की गिरफ्तारी हुई और लक्खी बाग चौकी प्रभारी को निलंबित करने की घोषणा की गयी.
जिस हमलावर का फोटो इतने दिन तक सोशल मीडिया पर घूम रहा था, उसे इससे पहले क्यूँ नहीं गिरफ्तार किया गया ?
यह प्रकरण तो लगातार सोशल मीडिया पर लोग उठा रहे थे तो इतने गंभीर प्रकरण में एक अमीरज़ादे को बचाने के लिए पुलिस द्वारा कोशिश की जा रही है, क्या यह उच्च अधिकारियों के संज्ञान में नहीं आया ? आखिर उत्तराखंड पुलिस के सबसे बड़े अधिकारी- महानिदेशक से लेकर थाना- कोतवाली तक सबसे मुस्तैदी से तो सोशल मीडिया में ही मौजूद रहते हैं ! पुलिस के खिलाफ कोई टिप्पणी मात्र कर देता है तो उत्तराखंड पुलिस के तथाकथित सोशल मीडिया वारियर्स, ट्रोल की तरह, ऐसा करने वाले के पीछे सोशल मीडिया में पड़ जाते हैं. अंकिता भण्डारी और केदार भंडारी प्रकरण पर टिप्पणी करने वालों के पोस्ट के कमेन्ट बॉक्स में जा-जा कर उन्हें धमकाया गया कि कार्यवाही होगी ! तो विपिन रावत के प्रकरण में जब सोशल मीडिया पर लिखा जा रहा था कि इस मामले में एफ़आईआर दर्ज करने से लेकर कार्यवाही करने में पुलिस की ओर से हीलाहवाली हो रही है तो फिर सोशल मीडिया पर मौजूद पुलिस महकमे के आला अफसरों ने इसका संज्ञान क्यूं नहीं लिया ?
जानलेवा हमले से विपिन रावत की मृत्यु के तत्काल बाद आरोपी विनीत अरोड़ा को जितनी तेजी से गिरफ्तार किया गया, इसका मतलब है कि पुलिस आरोपी को भली-भांति जानती थी. तो क्या विपिन रावत के जान गंवाने का इंतजार कर रही थी, देहरादून पुलिस ? विपिन रावत के न रहने के बाद लक्खीबाग चौकी प्रभारी के निलंबन समेत तमाम घोषणाएँ हुई, लेकिन क्या इस बात की गारंटी उत्तराखंड पुलिस लेगी कि ऐसी घटनाओं का दोहराव नहीं होगा, बिगड़ैल अमीरज़ादों को हमले के मंतव्य से गाड़ी में बेसबॉल का बैट, हाकी स्टिक, असलहे लेकर घूमने की छूट नहीं होगी ? ऐसा गंभीर मामला आने पर पुलिस मामले को समझौता करवा कर, रफा-दफा करने की कोशिश फिर नहीं करेगी ?
एक और प्रकरण सामने आया है, जो उत्तराखंड पुलिस की छवि पर प्रश्न चिन्ह लगा रहा है. 22 नवंबर को दिल्ली में राष्ट्रमंडल खेल गांव के सामने स्थित मकान में एक होटल मालिक अमित जैन ने आत्महत्या कर ली. सुसाइड नोट में मृतक ने होटल में पार्टनरशिप में पैसों के विवाद के चलते आत्महत्या करने का उल्लेख किया है और इसके लिए उत्तराखंड के एक आईपीएस अधिकारी का नाम लिखा है. ट्विटर पर इस मामले में ट्वीट करने वालों ने लिखा है कि अपना काला पैसा उत्तराखंड का आईपीएस अफसर वापस मांग रहा था.
इस मामले में भी उत्तराखंड पुलिस की तरफ से अब तक कोई कार्यवाही नहीं हुई है. उत्तराखंड पुलिस के प्रवक्ता और अपर पुलिस महानिदेशक (कानून व्यवस्था) डॉ.वी.मुरुगेशन का बयान अखबारों में छपा है कि दिल्ली पुलिस को आईपीएस का नाम सार्वजनिक करना चाहिए.
दिल्ली पुलिस को नाम तो सार्वजनिक करना ही चाहिए परंतु उत्तराखंड का पुलिस महकमा इतना नादान,अंजान और भोलाभाला है कि वह नहीं जानता कि उसका कौन अफसर ऐसे कारनामों में लिप्त हो सकता है ? दिल्ली पुलिस के पाले में गेंद डाल कर क्या यह कोशिश नहीं की जा रही कि जब तक संभव हो तब तक तो अपने आरोपी पुलिस अफसर को बचा लिया जाये ? क्या इस बात का खुलासा नहीं होना चाहिए कि वह पैसा कहाँ से आया, जिसे उक्त पुलिस अधिकारी ने होटल में निवेश किया था ? जैसा ट्विटर में लिखा जा रहा है कि वह काला धन है, क्या वाकई ऐसा है ? यदि वह काला धन है तो अब तक उत्तराखंड पुलिस महकमे में कोई नहीं जानता था कि उनका एक अफसर काला धन अर्जित कर रहा है ? जांच तो इस बात की भी होनी चाहिए कि क्या उक्त अफसर काले धन, उसके निवेश और बेनामी संपत्ति के मामले में इकलौता है या और भी काली भेड़ें (black sheep) हैं, उत्तराखंड पुलिस में ? अवैध रूप से वन भूमि पर कब्जा करने और पेड़ काटने के आरोप, उत्तराखंड पुलिस के एक पूर्व महानिदेशक बीएस सिद्धू पर एनजीटी में सिद्ध हो चुके हैं और एनजीटी उन पर इस बात के लिए जुर्माना भी लगा चुका है. इसलिए अवैध और बेनामी संपत्ति अर्जित करने वालों का खुलासा होना तो जरूरी है.
बीते कुछ समय से निरंतर सामने आती हुई घटनाओं के साथ ही इन दोनों प्रकरणों से यह स्पष्ट है कि उत्तराखंड पुलिस के महानिदेशक से लेकर पूरा महकमा सोशल मीडिया पर भले ही कितनी इमेज बिल्डिंग की कोशिश कर लें, लेकिन धरातल पर पुलिस की स्थिति बड़ी कमजोर है. “मित्र पुलिस” का उसका नारा, जनता के पक्ष का तो नहीं सिद्ध हो रहा है. पीड़ितों से हमला करने वालों का समझौता करवाने की कोशिश और खुद पुलिस के अफसर पर काले धन के लिए आत्महत्या के लिए उकसाने का आरोप, दोनों ही गंभीर मामले हैं और कानून-व्यवस्था की हालत पर सवालिया निशान लगाते हैं.
उत्तराखंड जानना चाहता है कि यह हो क्या रहा है उत्तराखंड पुलिस ?