विनोद पांडे
चमोली के हेलंग में टिहरी जल विद्युत निगम की सुरंग के मलुबे को चारागाह में डालने का अड़ियल रवैया और उसका स्थानीय विरोध तथा एक ग्रामीण महिला से सीआईएसएफ के जवानों के घास छीनने का मामला उत्तराखण्ड के वनअधिकारों की स्थिति को सही बयान करता है। इसलिए ये घटना लंबे समय तक प्रतीकात्मक रूप में भी महत्वपूर्ण बनी रहेगी। यह उसी प्रतिरोध के समतुल्य है जैसा आज से करीब 50 साल पहले गौरा देवी ने किया था। बल्कि उससे कहीं अधिक है क्योंकि तब निजी ठेकेदारों के कारिंदों को जंगल में घुसने से रोकना था, जबकि इस घटना में हेलंग की मंदोदरी देवी द्वारा अपने वन अधिकारों के लिए हथियारबंद पुलिस से टक्कर ली गई। आज की परिस्थितियां तब के मुकाबले कहीं कठिन हैं क्योंकि तब जंगल और प्राकृतिक संसाधनों पर व्यापारियों की नजर इतनी पैनी नहीं थी, न ही व्यापारियों की सरकार में इतनी गहरी पैठ थी। इतना ही नहीं कहीं, न कहीं सरकारें तब वनाधिकारों पर कम से कम दिखाने के लिए ही सही सहानुभूति का नजरिया रखती थी।
सरकारों का पहाड़ों में वनाधिकारों को छीनने का सिलसिला बहुत पुराना है। क्यांकि जंगलों के रूप में असीमित संसाधनां के अतिरिक्त बहुत बड़ी मात्रा में भूमि निहित है, इसलिए तरह-तरह के व्यापारियों, जिन्हें आजकल कॉरपोरेट कहा जाता है, की वनों और वन भूमि पर नजर गड़ी रहती है। 1815 में ब्रिटिश शासन के अधीन आ जाने के बाद भी उन्होंने जंगलों में स्थानीय अधिकारों के साथ छेड़छाड़ तब तक नहीं की जब तक उन्हें जंगलों में अकूत संसाधनों के रूप में मौजूद खजाने की जानकारी और जरूरत नहीं थी। 1853 में भारत में रेलों के प्रवेश व विस्तार के लिए न केवल रेलमार्गों और कोचों के बनाने के लिए जंगलों में प्रचुर कच्चा माल था और रेलमार्ग व इसके नेटवर्क को बिछाने के लिए जंगलों को काटने की जरूरत थी, रेलमार्ग के विकास हो जाने के फलस्वरूप जंगलों के कच्चे माल और प्रकाष्ठ आदि का परिवहन रेल तंत्र के सहारे आसान हो जाना था। इसके अलावा तब रेलों के ईंधन के लिए भी जंगलों की लकड़ी उपयुक्त विकल्प थी। इसलिए रेलों के आगमन ने जंगलों पर चौतरफा मार की। जिसके परिणामस्वरूप अंग्रेजी हुकूमत ने जंगलों में जनता के अधिकारों को दरकिनार कर उन्हें सरकारी नियंत्रण में ले लिया। तब से वन अधिकारों को खत्म करने के सरकारी प्रयास और उन प्रयासों का प्रतिरोध जारी है। यह प्रतिरोध तब भी था जब भारत गुलाम था और उत्तराखण्ड में आजादी की लड़ाई से पहले वन अधिकारां की लड़ाई शुरू हुई थी, यही प्रतिरोध कभी श्री देव सुमन ने किया और आजाद भारत में गौरा देवी ने किया। आजादी के 75वें साल में भी ये प्रतिरोध जारी है।
पिछले कुछ समय से हेंलग में जब टिहरी जल विद्युत परियोजना (टी.एच.डी.सी.) ने जब परियोजना के निर्माण के दौरान निकले मलुवे को स्थानीय ग्रामीणों के चारागाह जो पंचायत भूमि थी, में फैलाकर उसे जब हथियाने का प्रयास किया तो ग्रामीणां ने उस चारागाह से अपने पशुओं के लिए घास लाने का उपक्रम जारी रखा। उन्हें हत्तोत्साहित करने के उद्देश्य से सक्रिय प्रशासन, टीएचडीसी और सीआईएसएफ की मिलीभगत को मंदोदरी देवी ने मजबूती से जबाब दिया। जिसके कारण उन्हें एक छोटी सी बच्ची के साथ हिरासत में तक रहना पड़ा। लेकिन यहां पर इलैक्ट्रोनिक मीडिया के सदुपयोग के कारण यह खबर प्रदेश और देश के सामने आ पायी और फलस्वरूप उत्तराखण्ड के तमाम जन संगठनों ने हेलंग पहुंच कर वहां के निवासियों के साथ अपना सहयोग और एकजुटता का प्रदर्शन किया। जिसका तत्कालिक परिणाम भी सामने आ गया और जिलाधिकारी चमोली ने उस चारागाह में मलुवा डालना बंद करने के अलावा ग्रामीणों के अधिकारों को सुरक्षित रखने का आश्वासन भी दिया है। लेकिन प्रश्न यह है कि क्या इस आश्वासन के बाद यह प्रकरण समाप्त हो जायेगा? फिलहाल यह आंदोलन जोर पकड़ता ही जा रहा है और प्रदेश भर में जगह जगह से हेलंग के निवासियों के प्रति समर्थन व्यक्त किये जाने का सिलसिला अभी जारी है।
‘हेलंग एकजुटता मंच’ द्वारा लिये गये निर्णय के अनुसार 1 अगस्त 2022 को उत्तराखंड के अनेक स्थानों में धरना, प्रदर्शन व नुक्कड़ सभाएं की गई। इसके बाद संबंधित अधिकारियों को ज्ञापन सौंपे गये। व्यापक स्तर पर हुए यह प्रदर्शन अभूतपूर्व रहे। जिन स्थानों में यह विरोध प्रदर्शन हुए उनमें प्रमुख जोशीमठ, कर्णप्रयाग, श्रीनगर गढ़वाल, न्यू टिहरी, उत्तरकाशी, मसूरी, देहरादून, सतपुली, रामनगर, रूद्रपुर, भवाली, भीमताल, चौखुटा, कोकीलबना, बड़ेत, धूमाकोट, सल्ट, भिकियासैण, अल्मोड़ा, थलीसैंण, गरूड़, बागेश्वर, मुनस्यारी, पिथौरागढ, टनकपुर, चंपावत, थराली, मिदनापुर दिनेशपुर, नैनीताल जिला मुख्यालय, शामा (बागेश्वर), गोपेश्वर, पोखरी, पौड़ी आदि रहे।
उत्तराखण्ड भले ही इस बात से गौरवान्वित हो कि यहां पर चिपको के रूप में एक वनांदोलन शुरू हुआ जिसकी अनुगूंज विश्वभर में पहुंची और आज भी भारत ही नहीं बल्कि दुनियां भर में जहां भी पेड़ों को बचाने का आंदोलन होता है वहां चिपको का प्रतीकात्मक रूप प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से प्रदर्शित होता है। लेकिन यह चिपको आंदोलन का ही दुर्भाग्य था कि उसे साजिशन केवल पेड़ों को बचाने का आंदोलन के रूप में सीमित कर दिया गया। चिपको आंदोलन मूल रूप में अंग्रेजों द्वारा और आजाद भारत की चुनी हुई सरकारों द्वारा जनता के छीने गये वन व प्राकृतिक संसाधनों पर जनता के अधिकारों की पुर्नस्थापना का आंदोलन था। इसलिए यह आजीविका से जुड़ा हुआ एक बहुत व्यापक आंदोलन था, जिसमें तमाम किस्म की वनोपजों व वन भूमि पर प्रवेश का पर जनता का अधिकार के साथ ग्रामीण आजीविका के अधिकारों का आंदोलन था। जिसे चिपको के अग्र पंक्ति के नेताओं “अज्ञानतावश” या जानबूझ कर केवल पेड़ों को न काटने तक सीमित कर दिया। आंदोलन की इस सीमित परिभाषा ने मूल आंदोलन की भावना को ही ध्वस्त कर दिया लेकिन यह सीमित परिभाषा प्रादेशिक, राष्ट्रीय और अंर्तराष्ट्रीय राजनीति के अनुकूल थी। इसलिए चिपको के अग्र पंक्ति के नेतृत्व को राष्ट्रीय और अंर्तराष्ट्रीय सम्मान, मान्यता और अनेकों पुरस्कार हासिल होते गये लेकिन जनता के अधिकार हांसिये पर चले गये। इसीलिए इस तथ्य को भी नजरअंदाज नहीं करना चाहिये कि इन शीर्ष नेताओं का स्थानीय स्तर पर कोई पकड़ या विश्वास नहीं बन पाया। नतीजा यह था चिपको के विश्वव्यापी होने के बाबजूद भी उत्तराखण्ड के निवासियों के वन अधिकार वापस मिलने के बजाय और भी घटते चले गये। ऐसे कई नये कानून बने जिनसे वनाधिकारों को क्रमशः कम कर दिया गया। लेकिन कहीं न कहीं प्रतिरोध जारी रहा, इसलिए प्रदेश में वनाधिकारों की वर्तमान स्थिति को हेलंग की घटना सही चित्रित करती है। चिपको जैसे बड़े आंदोलन के बाबजूद जमीनी हकीकत यह है कि वनाधिकार कानून 2006 का प्रदेश में लागू हो जाने के बाबजूद भी विलुप्त कर दिये गये वनाधिकारों की वापसी भी एक गांव को नहीं हो पायी। यहां पर यह कहना आवश्यक है कि वनाधिकार कानून के बारे में संक्षेप में यह कहा जाता है कि ये वनवासियां के वनाधिकारों के विरूद्ध की गई भूलों का सुधार है और चिपको आंदोलन की सही भावना का प्रकटीकरण है। दुर्भाग्य है कि चिपको सहित अनेकों वनआंदोलनों को लड़ने और वनअधिकार कानून लागू होने के बाद भी उत्तराखण्ड के स्थानीय निवासी अपने वनाधिकारों से वंचित ही रहे हैं। इस विरोधाभास को रेखांकित किया जाना चाहिये।
इस घटना के शुरूआत में जो प्रशासन शुरू में आक्रामक हो गया था फिलहाल पूरी तरह पलट कर एकदम सहानुभूति दिखाने लगा है। प्रशासन के अधिकारी इस आंदोलन की ध्वजवाहक मंदोदरी देवी से उनके घर जाकर भी मिल चुके हैं। बताया जा रहा है कि जिलाधिकारी ने उनसे यह भी कह दिया है कि इस चारागाह में अब मलुबा नहीं डाला जायेगा, वे इस विवादित चारागाह से आगे आने वाले समय में घास काट सकती हैं और यह भी कि वे जब चाहें उनसे मिल सकती हैं और फोन कर सकती हैं आदि, आदि। जाहिर है शासन-प्रशासन को किसी भी हालत में इस तरह की घटना के होने और उसकी इसकी तीव्र और व्यापक प्रतिक्रिया होने की कोई उम्मीद नहीं थी और प्रशासन किसी भी दशा में इस आंदोलन को फैलने से रोकना चाहता है।
इलैक्ट्रोनिक मीडिया जिसका आमतौर पर मनमानी खबरें फैलाने के लिए उपयोग किया जाता है, इस बार सही समय पर सही उपयोग होने के कारण इस घटना को इतना प्रचार और प्रदेश भर में एकजुटता मिल पायी। इस समय उत्तराखण्ड के तमात जन संगठन पूरी तरह हेलंग की इस घटना के विरोध में एकजुट होकर सक्रिय हो गये हैं। जिसके लिए उन्होंने 1 अगस्त को प्रदेशव्यापी विरोध दिवस मनाने का निर्णय भी लिया है। निश्चित रूप से उत्तराखण्ड को लंबे समय से रूके हुए जल, जंगल और जमीन के मुद्दों को उठाने के लिए एक बेहतरीन अवसर मिल चुका है। हालांकि वर्तमान में उत्तराखण्ड में बहुत अधिक सक्रिय जन संगठन नहीं बचे हैं, लेकिन उसके बाबजूद भी अभी कई संगठन और आंदोलनकारी हैं, जिनकी जनता के बीच भी बहुत स्वीकार्यता है और उनके पास वन आंदोलन, शराब विरोधी आंदोलन और राज्य आंदोलनां जैसे लंबे चले ऐतिहासिक आंदोलनों का अनुभव है। देखना होगा कि क्या वे एक मजबूत आंदोलन खड़ा करने में सफल होगें। निश्चित रूप से ऐसे आंदोलन के लिए पुराने आंदोलनों की असफलता और भटकाव के कारणों का अध्ययन करना होगा। ताकि उन गलतियां, जिसके कारण वे आंदोलन अपने वांछित लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाये, की पुनरावृत्ति न हो। इस समय देश में जन आंदोलनों के लिए अनुकूल समय नहीं हैं, सरकार का रूख सख्त है और विकास के नाम पर सब कुछ सही सिद्ध किया जा रहा है। लेकिन जिस तरह जन संगठनों ने एकजुटता और उत्साह प्रदर्शित किया है उससे साफ लगता है कि उत्तराखण्ड में एक नये आंदोलन की संभावना पैदा हो गयी है। उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन के पीछे मूल भावना यहां के जल, जंगल और जमीन के मुद्दों पर जनता को न्याय मिलने की आशा थी, आशा की जानी चाहिये कि इस बार इस आंदोलन को सही दिशा में ले जाया जायेगा और रास्ते में आने वाले तमाम भटकावों को दरकिनार कर दिया जायेगा, वन आंदोलन और राज्य आंदोलन की मूल भावना को हासिल करने में ये नया आंदोलन ऐतिहासिक होगा।