विनोद पांडे
पर्यटन का नाम सुनते ही मन में सुंदर, साफ-सुथरी जगहें, जिनमें शिष्ट किस्म के लोग घूमते हों की कल्पना होने लगती है, लेकिन पहाड़ों में इस साल गर्मियों के सीजन में जैसी पर्यटकों की भीड़ दिखी वह इसके ठीक विपरीत थी। इसका एक उदाहरण केदारनाथ यात्रा के दौरान समाचारों में सुर्खियों में रहा जहां भारी भीड़ के साथ वहां कूड़े के ढेर के चित्र वायरल हुए। पहाड़ों के बांकी मुख्य पर्यटक स्थलों से भले ही ऐसी खबरें उजागर नहीं हुई परन्तु वहां का हाल भी ऐसा ही था। प्रचलित पर्यटक स्थल जैसे मसूरी, शिमला नैनीताल आदि में स्थानीय लोगों ने जिस पर्यटन को देखा वह आने वाले समय में पर्यटन के बिगड़ते हुए स्वरूप का संदेश दे रहा है।
योजनाकार पहाड़ी और सुरम्य स्थानों में पर्यटन को विकास का एकमात्र जरिया बताते रहे हैं। यहां पर विकास का अर्थ केवल रोजगार है। उसमें इन जगहों की सहने की क्षमता और पर्यावरणीय परिस्थितियों के समावेश का अभाव रहता है। कोविड से राहत मिलने के बाद पिछले सालों में उत्तराखण्ड के दूरदराज से लेकर प्रचलित पर्यटक स्थलों में पर्यटन बेहिसाब बढ़ा है। इसके बढ़ने के पीछे कई कारण हैं। जिनमें मुख्य रूप से भारत की अर्थव्यवस्था में आये विस्तार के कारण कई नये वर्गों की आमदनी बढ़ी है और उनके पास कुछ अतिरिक्त पैसा पैदा हुआ है। इसके अलावा बेहतर रोड और मोटर कारों की उपलब्धता के कारण यातायात पहले के मुकाबले आसान और सुविधाजनक हो गया है। इसके साथ ही सरकारों द्वारा पर्यटन को प्राप्त दुलार के कारण पर्यटन के राह में आने वाली रूकावटें भी कम हुई हैं। इन सब कारणों का समन्वित परिणाम यह हुआ कि इस वर्ष न केवल गर्मियों के सीजन में बल्कि साल भर उत्तराखण्ड ही नहीं हिमाचल में भी पर्यटन बढ़ा जरूर पर पूरी तरह अनियंत्रित रूप में दिखा। जिससे इसके नुकसान भी साफ नजर आने लगे। दूसरे शब्दों में कहें तो यह प्रश्न उठ रहा है कि आखिर पर्यटन के लिए पर्यावरण की कितनी कीमत चुकानी पड़ रही है? कोविड के बाद पर्यटन का ग्राफ बहुत तेजी से चढ़ा है। व्यापारिक वर्गों में इसे “बदले का पर्यटन” या रीवेंज टूरिज्म का नाम दिया गया है। ये परिघटना पूरे विश्व में देखी गयी है। इस परिघटना के बाद यूरोप में तो इस बात को उठाया जा रहा है कि आखिर पर्यटन में नियंत्रण क्यों नहीं और इस बात पर बहस छिड़ गयी है कि क्या पर्यटन किसी का जन्मसिद्ध अधिकार है? पर्यटन क्या पर्यावरण संरक्षण के विरूद्ध जा रहा है? आदि।
दरअसल इस अचानक बड़े हुए पर्यटन को संभाल सकने के पीछे सबसे पहली समस्या यह है कि दरअसल हमारे पर्यटक स्थलों की सहने की क्षमता से कई गुना भीड़ और वाहन आने लगे हैं। इस नये पर्यटन की विशेषता यह है कि अब यह भीड़ केवल लोगों की नहीं है बल्कि वाहनों की भी है। देश में लोगों की बढ़ी हुई वाहन रखने की क्षमता के कारण भी आज अधिकांश पर्यटक अपने साथ अपना वाहन लाना पसंद करने लगे हैं। हमारे देश में पहले से ही सड़कों में चलने से लेकर वाहनों को खड़ी करने की बहुत बड़ी समस्या है। इस पर किसी पर्यटक स्थल में अचानक उसकी आबादी से कई गुना लोग आ जायें साथ में अपना वाहन लायें तो निश्चित रूप से अव्यवस्था फैलना स्वाभाविक है। साथ ही हमारे जीवन शैली में कूड़ा पैदा करने की प्रवृति भी तेजी से बढ़ी है उसके सापेक्ष नगरपालिकाओं और ग्राम सभाओं के पास पहले से ही अपनी स्थायी आबादी के कूड़े के निस्तारण की व्यवस्था नहीं है तो इस अस्थायी आबादी के कूड़े को कैसे निबटाया जाय? इसके प्रत्यक्ष उदाहरण केदारनाथ में इस सीजन के दौरान पैदा हुए कूड़े के ढे़र हैं। केदारनाथ क्योंकि धार्मिक महत्व का केन्द्र है उसकी अव्यवस्था तो राष्ट्रीय स्तर पर प्रचार पा गयी परन्तु अन्य पर्यटक स्थलों की ऐसी समस्या को प्रचार नहीं मिला। हालांकि उनकी दशा वहां से ज्यादा बुरी थी।
अन्य उद्योगों की अपेक्षा पर्यटन का तेजी से विस्तार पाने के पीछे प्रमुख कारण यह है कि पर्यटन चलाने के लिए अन्य उद्योगों की अपेक्षा निवेश बहुत कम होता है। इसका पहला कारण यह है कि पर्यटन जिन प्राकृतिक परिस्थितियों, जलवायु या अन्य विशेष महत्व के कारण प्रचलित होता है उस महत्व पर स्वामित्व दरअसल सार्वजनिक होता है, उसमें व्ययसायी का निजी निवेश नहीं होता है। जैसे कि पहाड़ों की जलवायु और सुंदरता पर जो पर्यटन चलता है उसे किसी व्यवसायी द्वारा नहीं बनाया गया है बल्कि वह प्राकृतिक है। प्रकृति के इस देन के आधार पर व्यवसायी जो धंधा चलाते हैं वह इसके लिए कोई टैक्स नहीं देते हैं। वर्तमान व्यवस्थाओं के अंर्तगत उसका उपयोग निर्बाध रूप से कोई भी कर सकता है। हालांकि उस पर लगातार पड़ने वाले दबाब के कारण उसका जो क्षरण होता है उसकी भरपायी के लिए कोई प्रतिपूर्ति कर नहीं लिया जाता है। इसके विपरीत पर्यटन को बढ़ावा देने को लेकर सरकारों और योजनाकारों का विशेष झुकाव होने के कारण इस तरह के नुकसान को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया जाता है। इसका एक उदाहरण है ऊँचाई पर स्थित बुग्यालों पर पर्यटन के लिए कैंपिंग। उत्तराखण्ड हाईकोर्ट द्वारा बुग्यालों में न केवल कैंपिंग पर प्रतिबंध लगाया गया है बल्कि सरकार को आदेश दिया है कि यहां पर व्यक्तियों के प्रवेश के लिए संख्या को भी नियंत्रित किया जाय। इसके बाबजूद जब द0 अफ्रीका के गुप्ता बंधुओं ने औली बुग्याल में विवाह का आयोजन किया तो उसमें प्रदेश के मुख्यमंत्री से लेकर पूर्व मुख्यमंत्री और प्रदेश के गणमान्य व्यक्ति भी शामिल हुए। मामला पर्यावरण प्रभाव को लेकर हाईकोर्ट तक गया जरूर परन्तु बुग्याल की किताबी परिभाषा के आधार पर कार्यक्रम पर प्रतिबंध नहीं लग पाया। बांकी अधिकांश बुग्यालों में प्रभावशाली लोगों द्वारा खुलेआम कैंपिंग के साथ ही स्थायी निर्माण तक कर लिये गये हैं। जबकि तथ्य यह है कि बुग्यालों का एक विशिष्ट प्रकार का पर्यावरण होता है जिसमें मानवीय गतिविधियां से बहुत ही गंभीर प्रभाव पड़ता है। पर्यावरण संरक्षण के शोर शराबे में कहीं इस तरह के तथ्यों का जिक्र तक नहीं होता है।
सरकार द्वारा निजीकरण के उद्देश्यों के अंर्तगत सार्वजनिक परिवहन को कमजोर किया जाता रहा है। सरकार के इस धारण के कारण जिन क्षेत्रों में पर्यटन का विस्तार हो रहा है, उनमें भी सार्वजनिक परिवहन को ठीक करने के कोई प्रयास नहीं दिखते हैं। इस कारण से पहाड़ी इलाकों में निजी वाहनों पर आधारित पर्यटन बढ़ रहा है। जिससे कई प्रकार की अव्यवस्थाऐं और प्रदूषण बढ़ रहा है। सरकारें सार्वजनिक परिवहन को बेहतर इसलिए भी नहीं बनाती हैं कि कारों का उद्योग आज अर्थव्यवस्था का एक बहुत बड़ा हिस्सा बन चुका है। कारों का निजी उपभोग बढ़ाने की नीति के कारण कार खरीदने के लिए आसान दरों पर ब्याज भी उपलब्ध है। इसलिए सरकार चाहती है कि खूब कारें बिकें और अर्थव्यवस्था सुचारू रूप से चलती रहे। इसके स्थान पर यदि सुविधाजनक सार्वजनिक परिवहन की व्यवस्था को बढ़ाया जाता है तो निश्चित रूप से इसका प्रभाव कारों के व्यवसाय पर पड़ेगा और दूसरे शब्दों में अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा। हालांकि इससे पर्यावरण पर प्रदूषण का बोझ कम पड़ेगा पर अर्थव्यवस्था पर प्रभाव पड़ेगा। इसलिए विकास के वर्तमान मॉडल में स्पष्ट रूप से पर्यावरण के हित और अर्थव्यवस्था के हित एक दूसरे के विपरीत होने लगे हैं।
उत्तराखण्ड पर्यावरण के आधार पर बहुत संवेदनशील है और इस प्रदेश का का महत्व देश के लिए भी पर्यावरण के आधार पर है। जिस पर्यटन को यहां के विकास का आधार समझा गया है उसे पहले प्रदूषण रहित उद्योग की संज्ञा दी जाती थी वही पर्यटन आज सबसे अधिक प्रदूषण फैला रहा है। इस दौर में जबकि प्राकृतिक आपदाऐं दिनों दिन बढ़ती जा रही है। विश्व स्तर पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव साफ-साफ दिखने लगा है। उन परिस्थितियों में पर्यटन के पर्यावरणीय प्रभाव पर ध्यान देने और उसका तटस्थ रूप से विश्लेषण करने का समय आ गया है। पर्यटन की आम धारणा “अतिथि देवो भव” के विचार पर नये सिरे से विचार करने का समय आ गया है। यह भी विचार करना होगा कि भीड़ वाले पर्यटन का विकल्प क्या हो सकता है। ऐसा पर्यटन जो रोजगार भी दे और पर्यावरण पर प्रभाव भी कम से कम डाले, इस तरह के विकल्पों पर विचार करना होगा। इसके निश्चित रूप से भीड़ वाले पर्यटन पर कई तरह के नियंत्रण लगाने पड़ेगें। निश्चित रूप से इस तरह के प्रयासों ने भले ही अल्पअवधि में पर्यटन व्ययसायियों के आमदनी पर विपरीत प्रभाव पड़े निश्चित रूप से टिकाऊ पर्यटन के विकास के लिए यह जरूरी है।
फोटो : इंटरनेट से साभार
One Comment
अनवर जमाल
विनोद जी ने बेहद जरूरी सवाल उठाएं हैं ।
जरूरी है कि सरकार कोई नियम बनाए कि एक समय में कितने पर्यटकों को पहाड़ झेल सकता है । उसी के हिसाब से उनकी एंट्री सारे स्थलों पर हो ।