कृति अटवाल ( 11वीं )
नानकमत्ता पब्लिक स्कूल
मनुष्य प्रजाति के जैविक इतिहास और उसके द्वारा बनाई गई तमाम सारी संस्थाओं की तुलना में स्कूल एकदम नई संस्था हैं। ये मानव इतिहास की सामाजिक पैदावार है। और वर्तमान में यह संस्था सीखने के सबसे महत्वपूर्ण आवामों में गिनी जाती है। अमूमन एकमात्र तरीके के तौर पर भी। यूं तो सीखना-सिखाना पहले भी जारी था, तो भला स्कूल रूपी संस्था की आवश्यकता पड़ी क्यों!? इन संस्थाओं में दी जाने वाली शिक्षा के क्या मायने हैं? यह शिक्षातंत्र किन परिस्थितियों के मुताबिक़ बनाया गया था? क्या आज भी यह तंत्र उतना ही प्रासंगिक है जितना दशकों पहले तक माना जाता था?
इसी तरह की ढ़ेर उलझनों का जवाब देती पुस्तक है “शिक्षा के अर्थ।” जो एक पहिए के रूप में शिक्षा के इतिहास बिंदु को समकालीन व्यवस्था से जोड़ती है। इसे लिखा है मशहूर मनोवैज्ञानिक शोधकर्ता पीटर ग्रे ने। प्रथम एजुकेशन फाउंडेशन और बाल विज्ञान खोजशाला बेरीनाग के आशुतोष उपाध्याय जी ने इसका अनुवाद किया है। वहीं आवरण की ज़ीनत का श्रेय जाता है ऊषा कश्यप जी को। और इसके चित्र का कमलेश चंद्र जी को। किताब का आवरण चित्र इसकी विषय वस्तु का प्रतिबिंब है। 6 अध्यायों की यह किताब शिक्षा के प्रासंगिक मुद्दों को संजोये है। इस किताब को बुना है नवारुण प्रकाशन ने।
सीखना ताउम्र है; और इस सीखने की निरंतर को बनाए रखने का जरिया है शिक्षा। शिक्षा के आवामों में औपचारिक और अनौपचारिक दोनों ही संस्थाएं शामिल हैं। सीखने के शुरुआती दौर में बच्चे अनौपचारिक संस्थाओं में खेलों और खोज विधियों द्वारा स्वयं ही सीखते थे। लेकिन जैसे-जैसे उत्पादन के तरीके बदले, बाज़ार की ज़रूरतें भी बदल गईं। इन ज़रूरतों के अनुरूप अब तक मनमौजी रहे बच्चों को अनुशासित करने पर बल दिया गया। खेती और फ़िर उद्योगों के आगमन के बाद उन्हें मजदूर बनाया जाने लगा। जो जीवनशैली कौशल और ज्ञान केंद्रित थी वह तब्दील होकर श्रम केंद्रित हो गई।
जब सीखने के तौर-तरीकों में बदलाव आया तो समाज भी कई मायनों में बदल गया। प्रोफेसर ग्रे के शब्दों में “खेती व उससे जुड़े भू-स्वामित्व तथा संपत्ति संग्रह ने इतिहास में पहली बार आदमी-आदमी के बीच हैसियत में फ़र्क़ पैदा किया। जिन लोगों के पास ज़मीन नहीं थी वे भू-स्वामियों पर निर्भर हो गए। इसके अलावा, ज़मीदारों को यह भी पता चल गया कि वे दूसरों से अपना काम करवा कर अपनी संपत्ति में इज़ाफ़ा कर सकते हैं। दासप्रथा और ग़ुलामी के कई अन्य रूप सामने आने लगे।” यहाँ से गैर बराबरी का दौर शुरू हुआ। इसे बनाएं रखने के लिए लोगों के साथ-साथ ‘बच्चे’ भी पराधीनता की बेड़ियों में जकड़ लिए गए। और जो इसके विद्रोह के विचार भी मन में लाता मौत के घाट उतार दिया जाता।
उस समय शिक्षा का अर्थ केवल बच्चों की इच्छा को तहस-नहस कर एक अच्छा श्रमिक बनाना था। इसलिए शिक्षा केवल दिमाग़ों में एक विशेष तरह की जानकारी ठूंसने का पर्याय बन गई। इसी की व्यापक छाप हमें वर्तमान शिक्षा तंत्र में भी दिखाई देती हैं। उद्योगपतिओं ने जहां इस व्यवस्था से आज्ञाकारी कामगार तैयार करवायें वहीं राष्ट्रवादी ठेकदारों ने स्कूलों को देशभक्त और भावी सैनिक तैयार करने का केंद्र बना दिया। और शिक्षा तंत्र की आज भी यही विडंबना है।
बच्चे तब ही पढ़ना सीखते हैं जब वे सीखना चाहते हैं। सीखने की चाहत ही उन्हें दुनिया के नए अर्ज-ओ-तूल खोजने पर मजबूर करती है। पर ज़्यादा से ज़्यादा अंक पाने की होड़ उनकी जिज्ञासाओं को खत्म कर केवल प्रतिस्पर्धा की भावना को पैदा करती है। यह सब चीज़ें उनकी मासूमियत, उनकी नैसर्गिक चंचलता और बचपना उनसे छीन लेती हैं। शिक्षा का उद्देश्य जीवन में सार्थकता की खोज न रहकर बंजर, सुनसान पहाड़ पर सबसे पहले पहुँचने की दौड़ बन जाती है।
कुदरत ने बच्चों को स्वयं सीखने की क्षमता दी है। इसलिए स्कूल पहुँचने से पहले ही बच्चे की अच्छी खासी शिक्षा हो जाती है। प्रोफेसर ग्रे कहते हैं “उनकी शिक्षा कुदरतन होती है, यह खेलने, खोजने और अपने आसपास ग़ौर से देखने की उनकी नैसर्गिक प्रवृत्ति के कारण होती है।….. बच्चे जैविक रूप से इस तरह तैयार होकर जन्म लेते हैं ताकि वे अपनी मातृ संस्कृति में एक सफल वयस्क बनने के लिए ज़रूरी कौशल सीख सकें।” ऐसा ही कुछ अपनी किताब शिक्षा के सवाल में शिक्षक साहित्यकार महेश पुनेठा जी भी कहते हैं “बच्चे जन्मजात उत्सुक, जिज्ञासु और कल्पनाशील होते हैं।” और यही कारण है कि बच्चा हर चीज़ छूना चाहता है, उसे फेंक कर देखना चाहता है और उसका अवलोकन गहराई से करना चाहता है।
सीखने में खेल का बहुत महत्व है। खेल दुनिया से तालमेल बिठाने में बच्चों की मदद करता है। पीटर जी कहते हैं “यह बचकाना होता है, लेकिन व्यसकों की अनेक महानतम उपलब्धियों को रेखांकित करता है।….मनुष्य जीवन के लिए बेहद ज़रूरी ऐसे किसी कौशल की कल्पना भी मुश्किल है जो सामाजिकता बनने के कौशल से ज्यादा महत्वपूर्ण है। इस कौशल को पढ़ाया नहीं जा सकता। इसे केवल अनुभव से ही हासिल किया जा सकता है और बच्चों को यह अनुभव मुख्य रूप से खेलों से ही मिलता है।”
हम देखते हैं कि आज 5-8 प्रतिशत बच्चे गहरे अवसाद से पीड़ित हैं। ये स्थिति बच्चों के ‘खेलने के समय’ में लगातार होती कमी की वजह से ही पैदा हुई है। खेल सृजनात्मक और अभिनव होते हैं। पीटर ग्रे कहते हैं “यह खेल ही है जो बच्चों को अहसास दिलाता है कि वे अपने जीवन को खुद नियंत्रित कर रहे हैं। यह वह मौक़ा है जब वे अपनी जीवन की बागडोर खुद थाम लेते हैं।” पर आज के समय में खेल की जगह प्रतिस्पर्धा ने ले ली है। समाजशास्त्र की कक्षा 11वीं पुस्तक पढ़ते हुए भी हमने ऐसा ही कुछ पाया। अफ्रीका के एक बेहद पिछड़े इलाके के अध्यापक एक दौड़ प्रतियोगिता का किस्सा बताते हुए कहते हैं कि जब उन्होंने प्रतिस्पर्धआ में प्रथम आने वाले बच्चे को एक चॉकलेट इनाम के रूप में देने का वादा इस विचार से किया की बच्चे प्रसन्न होंगें। लेकिन उनके इस सुझाव ने बच्चों में किसी प्रकार के उत्साह को पैदा नहीं किया बल्कि दूसरी तरफ दुश्चिंता और दुख को बढ़ा दिया। आगे वो बताते हैं कि “उनकी (बच्चों की) ऐसे खेलों में रुचि नहीं है जहाँ ‘विजेता’ तथा ‘पराजित’ होंगे। उनके लिए आनंद का विचार आवश्यक तौर पर सहयोग तथा सामूहिक अनुभव है न कि प्रतिस्पर्धा। जहाँ पुरस्कार कुछ लोगों को वंचित करता है और कुछ को पुरस्कृत करता है।”
यह किताब शिक्षा के सही अर्थ को स्पष्ट करती है। इतिहास के उसी पुराने ढर्रे पर चल रही हमारी आज की शिक्षा व्यवस्था को भी व्यापक रूप से किताब में समझाया गया है। इस शिक्षा तंत्र को बदलाव की अत्यधिक ज़रूरत है। और आख़िरी में ग्रे के ही शब्दोंं में कहूँ तो हमें यह सोचने की ज़रूरत है कि “हमारी आज की सामाजिक दुनिया के मद्देनज़र क्या किया जाना चाहिए ताकि बच्चों को उनके स्वस्थ विकास पर ध्यान देने वाला समाज उपलब्ध कराया जा सके?”
पुस्तक – शिक्षा का अर्थ
लेखक – पीटर ग्रे
अनुवादक – आशुतोष उपाध्याय
प्रकाशन – नवारुण पब्लिकेशन
मूल्य – ₹100