गजेंद्र रौतेला
सम्पूर्ण हिमालयी क्षेत्र अपनी विशिष्ट और मौलिक संस्कृति के साथ-साथ भूमंडलीकरण के इस दौर में भी जीवंत लोकोत्सवों के लिए आज भी जाना जाता है।जिनमें से लौ/लय्या की एक खास जगह है। रुद्रप्रयाग जिले की मदमहेश्वर घाटी और कालीमठ घाटी के चुनिंदा स्थानों में होने वाले इस विशेष उत्सव की परंपरा भी अनूठी है।
दरअसल आज भी तथाकथित रूप से पिछड़े कहे जाने वाले दुर्गम क्षेत्रों में कुछ मौलिकता अब भी बरकरार है। स्थानीय गढ़वाली भाषा में लौ/ लय्या कहे जाने वाले इस उत्सव की लोकपरंपरा के अनुसार फागुन-चैत्र (मार्च) महीने की किसी एक नियत तिथि को लोकमान्यता और रीति-रिवाजों के साथ स्थानीय ग्रामवासियों की भेड़-बकरियों को लेकर पाल्सी (चरवाहे) उच्च हिमालयी बुग्यालों में लगभग सात-आठ महीनों तक के लिए (लगभग होली से दीवाली तक) ले जाते हैं तो इस दौरान सावन मास की समाप्ति तक इन भेड़ों के प्रवास को लगभग पाँच माह पूरे हो जाते हैं।इस दौरान इन भेड़ों की ऊन काफी हद तक बढ़ भी जाती है इसी ऊन की कटाई छंटाई और इस बीच नए जन्मे मेमनों को नमक खिलाने के लिए भेड़पालक पाल्सी सभी भेड-बकरियों को गांव के सबसे नजदीकी बुग्याल में एक निश्चित तिथि को उच्च हिमालयी क्षेत्र से वापस लेकर आते हैं । जहाँ पर इनके मालिकों के साथ साथ इनके कुछ खरीददार भी आते हैं। इस दौरान बहुत से ऐसे क्रियाकलाप होते हैं जो काफी रोमांचक होते हैं।
जिनमें से मुख्य है पळया (जिसकी खास परवरिश हो) भेड़ का सामुहिक रूप से एक लोकतांत्रिक पद्धति से चुनाव करना और उसके पालक पाल्सी,उसके मालिक और उस भेड़ का सम्मान उसे ब्रह्मकमल की एक खूबसूरत माला पहना कर करना। और यही ब्रह्मकमल जो कि भेड़पालक पाल्सी उच्च हिमालयी क्षेत्र से अपने गांववासियों और भेड़ों के मालिकों के लिए बीसियों किलोमीटर नंगे पांव चलकर प्रसाद स्वरूप भी लाते हैं।और इसी तरह गांववासी भी अपने-अपने घरों से उनके लिए कल्यो (पूरी- पकौड़ी,घी आदि) बनाकर लाते हैं जिसका लेन-देन भी इसी दौरान किया जाता है।
स्थानीय शिक्षक और ग्रामवासी रविन्द्र भट्ट बताते हैं कि “डेढ़-दो दशक पहले तक इसी लय्या के दौरान कई सारी खेल प्रतियोगिताएं भी हुआ करती थी जिसमें,कब्बडी,खो-खो और रडाघुस्सी (बैठकर फिसलना) आदि प्रमुख थी। लेकिन आज के दौर में यह सब समाप्त हो चुका है।”दिन भर इन सब गतिविधियों के साथ-साथ पाल्सी और भेड के मालिकों के बीच के मेहनताने की लेन-देन की प्रक्रिया भी इसी दिन सम्पन्न हो जाती है हालांकि नवजात मेमनों को नमक खिलाने और घर पर उनकी सुरक्षित परवरिश के लिए छोड़कर पुनः पाल्सी बड़ी भेड़-बकरियों के साथआगामी दो-तीन महीनों के लिए अर्थात दीपावली तक के लिए पुनः वापस उच्च हिमालयी क्षेत्रों के लिए चले जाते हैं।यह सारी प्रक्रिया ही लौ अथवा लय्या कही जाती है।जिसका स्थानीय भाषा में अर्थ होता है ‘बाल काटना’।
सदियों से चली आ रही इस खूबसूरत और उत्पादक लोकपरंपरा में भी वक़्त के साथ-साथ आज बहुत से बदलाव भी नजर आते हैं। जिनमें से प्रमुख हैं लय्या के अवसर पर गाए जाने वाले लोकगीतों का ह्रास हो जाना और काटी गई ऊन का बुग्याळ में ही छोड़कर बर्बाद कर देना। इन दोनों के ही मूल में जो चीज दिखाई देती है वो है हमारा ‘आधुनिक’ हो जाना और अपनी लोकसंस्कृति के प्रति सम्मान न होना। इस बारे में जब स्थानीय ग्रामवासी और पाल्सी नरेन्द्र सिंह रावत से पूछा तो उन्होंने बताया कि ‘”लय्या के गीतों की जगह मोबाइल पर बजने वाले गीतों ने ले ली है और ऊन को कातने और उनके दौखे (शुद्ध ऊनी कोट) बनाने वाले न तो लोग रहे और न ही पहनने वाले इसलिए सभी चरवाहे अब ऊन काट कर जहां-तहां बुग्याल में ही छोड़ जाते हैं।
यह सब देखना और करना बहुत दुखद तो होता ही है लेकिन हम कर भी क्या सकते हैं जब कोई खरीददार ही न हो तो।” वाकई में पूरे बुग्याल में सैकड़ों भेड़ों की ऊन का यूँ ही इधर उधर बिखरे पड़े होना बहुत दुखदाई और अफसोसजनक भी लगता है। इस विषय पर सरकार और उसका ऊन-रेशा बोर्ड को गंभीरतापूर्वक विचार कर कोई ठोस योजना बनानी चाहिए जिससे स्थानीय युवाओं को रोजगार भी मिले और हमारी धरोहर और विरासत को एक समुचित पहचान और आयाम भी ताकि हिमालयवासी भी सुरक्षित रहें और हिमालय भी।