राजीव लोचन साह
समाज को कैंसर से बचाने के लिये सिगरेट या गुटखा न बेचने वाला वंशी पनवाड़ी अन्ततः 16 जनवरी को कैंसर से ही इस दुनिया को अलविदा कह गया।
मेरा बाजार का, बल्कि ईमानदारी से कहा जाये तो नैनीताल शहर का ही, एकमात्र अड्डा ध्वस्त हो गया।
अपने से एक-दो साल ऊपर या नीचे रहा होगा वंशी। मगर गोरखा लाईन हाईस्कूल में उससे मिले की कोई याद नहीं है। जवानी उतर जाने के बाद पान खाने का जो शौक लगा, वह कैण्ट बाजार में रणजीत राठौर जी की दुकान तक ले जाने लगा। मगर जल्दी ही समझ में आ गया कि इनके हाथ में वह हुनर तो है ही नहीं। पान खाने वालों की संख्या घट रही थी और शहर में पान की दुकानें बहुत कम हो गई थीं। तो अस्सी के दशक के अन्त में मैं कभी डाँठ से आगे तल्लीताल बाजार में वंशी चौधरी की दुकान में जा फँसा। योगेश, राजा और बाॅबी (डाॅ. अनिल साह) जैसे अपने अच्छे दोस्त वंशी के खास हुआ करते थे और तल्लीताल की पृष्ठभूमि हमारी साझा थी ही। इसलिये अपरिचय का सवाल तो उठता नहीं था। कुछ ही समय में 11 बजे के लिये निर्धारित अपना ब्रंच या लंच, जो भी उसे कहें, निपटा कर वंशी की दुकान तक जाना अपना नित्यकर्म हो गया। 12 बजे वंशी का तीन घंटे का लंच ब्रेक होता, अतः यह मेरे लिये डेडलाईन थी। उससे पहले उसकी दुकान पर पहुँचने की हड़बड़ी होती। उससे शहर की ताजा घटनाओं की जानकारी मिलती। स्थानीय से लेकर अंतराष्ट्रीय घटनाओं पर तफसरा होता। किसी दिन खाना खाने में विलम्ब हो गया या उस वक्त किसी अन्य काम में उलझ कर वंशी के पास न जा सका तो दिन भर लगता रहता कि कुछ महत्वपूर्ण है जो छूट गया है।
धीरे-धीरे वंशी एक अच्छे मित्र से आगे एक राजदार भी बन गया। मेरी जिन्दगी के न जाने कितने राज उसके बैंक लाॅकर में बन्द हो गये। जो बात मैं किसी से नहीं कह पाता था, उससे कहता था। हर सम्भव मामले में उससे राय लेता, जो बहुधा बड़े काम की होती। पान की दुकान में बैठे-बैठे वह आसपास घट रही गतिविधियों पर पैनी नजर रखता और मुझे उनसे अवगत कराता रहता। उत्तराखंड आन्दोलन के दौरान नैनीताल समाचार का सांध्यकालीन उत्तराखंड बुलेटिन 54 दिन तक उसकी दुकान के सामने क्रांति चैक पर ही चला। गिरदा बहुत प्यार से पेश किया गया उसका कम्प्लीमेंट्री पान खाकर ही अपने महाकाव्य ‘जागौ जागौ हो मेरा लाल’ की अगली पंक्तियाँ कोरस में गाने के लिये जाता था। बुलेटिन की प्रतिक्रियायें उससे मिलती रहतीं। एक दिन मैंने उससे कहा कि यार ये भाजपायी गैरसैंण राजधानी के मुद्दे को लटकाने के लिये अफवाह फैला रहे हैं कि गैरसैंण में यूकेडी वालों की जमीनें हैं, इसलिये वे वहाँ राजधानी की माँग करते हैं। ‘‘लो,’’ उसने छूटते ही कहा, ‘‘इन्होंने तो तुम्हारी, गिरदा और शेखर पाठक की जमीनें भी वहाँ बतलायी हैं।’’ मगर कौन ? कौन हैं वे अफवाह फैलाने वाले। लेकिन वह अपने सूत्र नहीं बतलाता था कि मैं कहीं उस व्यक्ति के पास जाकर उससे उलझ न पड़ूँ। ऐसा हमेशा होता था। हमारे ऊटपटाँग कामों के बारे में शहर में क्या चर्चा है, यह तो वंशी बतला देता। मगर यह बतलाने से पूरी तरह मुकर जाता कि आखिर यह चर्चा कर कौन रहा है। एक रोज, जब मेरे होटल एसोसिएशन से बगावत करने के बाद एसोसिएशन के पदाधिकारी वंशी की दुकान पर ही मुझ पर पिल पड़े, तो वंशी चुपचाप तमाशा देखता रहा। बाद में उसने अपनी जोरदार प्रतिक्रिया दी।
मैं अपने दोस्तों को भी, अगर वे मेरे पान खाने के शेडयूल के दौरान मेरे साथ रहते तो, वंशी की दुकान पर उठा ले जाता। ऐसे ही एक दिन त्रेपन सिंह चौहान मेरे साथ था। मैंने वंशी से उसका परिचय करवाया कि ये लेखक हैं और अपने ताजा उपन्यास ‘हे ब्वारी’ के प्रमोशन के सिलसिले में नैनीताल आये हैं। अगले दिन वंशी की फरमाईश हुई कि मैं उसे ‘हे ब्वारी’ पढवाऊँ। उस दिन से एक और सरदर्द मेरे सिर पर आ पड़ा, वंशी को हिन्दी किताबें, विशेषकर कथा साहित्य पढ़ाने का। वह इतना पढ़ाकू निकला कि तेजी के साथ मेरी किताबें चाटने लगा। मैं आज उसे तीन-चार किताबें देकर आता और हफ्ते भर के भीतर वह पढ़ कर उन्हें वापस कर देता। इस कोरोना काल में तो उसने मेरी सारी ही किताबें चाट डालीं। मैंने हाथ खड़े दिये कि अब तुम्हें किताबें चाहिये तो खुद आकर मेरी लाइब्रेरी से छाँट ले जाओ। हमारे एक परिचित अध्यापक ने एक बार बताया कि वंशी चौधरी स्कूल के दिनों में कहानियाँ लिखा करते थे। तब मैंने वंशी की बहुत खुशामद की कि वह लिखना शुरू करे। मगर वह हत्थे नहीं चढ़ा।
उसे गले की परेशानी लगी रहती होगी। मगर उसने ज्यादा ध्यान नहीं दिया। फिर बहुत देर हो गई। उसे जयपुर के महावीर कैंसर अस्पताल ले जाया गया। मगर वंशी की 32 किलो की काया कीमोथेरपी नहीं झेल पायी।